22-01-2020 (Important News Clippings)

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22 Jan 2020
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Date:22-01-20

More The Messier

With three capitals to boot and one run aground, Andhra Pradesh’s politics kick up a stink

TOI Editorials

Amaravati, billed as a “futuristic, world class city in the making” by Andhra Pradesh government officials at its foundation in 2015, will now have to share the honours with Visakhapatnam and Kurnool, with the YSRCP government proposing three capitals for the state. Government has pitched the contentious legislation, which is causing unrest around Amaravati, as an attempt to ensure “decentralisation and inclusive development of all regions”. The objective is laudable but shouldn’t be a clever-by-half attempt at sugar coating the bitter pill delivered to investors and farmers in Amaravati.

Alongside stalling development works citing funds crunch, chief minister Jagan Mohan Reddy has accused TDP of benefiting from insider information on Amaravati development plans. Soon World Bank, Asian Infrastructure Investment Bank and a Singapore consortium pulled out of funding commitments. Farmers are now on the warpath over uncertainty regarding 33,000 acres of farmland that the Chandrababu Naidu government had pooled from them with promises of returning developed plots. Meanwhile, plans to abolish the legislative council may be afoot. The rationale for scrapping the council – that TDP enjoys absolute majority and stalls bills – is blatantly arbitrary.

Frequent policy changes, especially when serving governments change, dampen the business climate. Investors scare away easily when this happens. Land pooling in Amaravati was a breakthrough, allowing the state to bypass the convoluted processes stipulated by the new land acquisition act. Amaravati’s success would have impelled farmers across India to collaborate on such development work. Jagan’s vision of Amaravati as legislative capital, Vizag as administrative capital and Kurnool as judicial hub will complicate governance. Despite his misgivings, Jagan must make an effort to complete Amaravati. Leaving it unfinished will stand as a cautionary tale for investors eyeing India, but particularly Andhra Pradesh.


Date:22-01-20

सामाजिक एवं राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक वृद्धि

नितिन देसाई

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गत जुलाई में जब अपना पहला बजट पेश किया था तो तमाम दूसरे विश्लेषकों की तरह इस लेखक ने भी आर्थिक चिंताओं की एक सूची तैयार की थी। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर में तीव्र गिरावट, राजकोषीय दबाव, दोहरी बैलेंस शीट की समस्याएं, गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) को पेश आ रही मुश्किलें, रोजगार सृजन की सुस्त रफ्तार, छोटी इकाइयों एवं कृषि क्षेत्र में व्याप्त तनाव, कारोबारी लड़ाइयां और वैश्विक वृद्धि चालकों में सुस्ती जैसे बिंदुओं को उस सूची में रखा गया था। लेकिन आज भी हालात जस के तस हैं और कुछ समस्याएं तो और भी गंभीर हो गई हैं। हालांकि अब सरकार इन मुश्किलों की मौजूदगी स्वीकार करने के लिए कहीं अधिक तैयार है और खुद प्रधानमंत्री बजट प्रक्रिया की सीधी बागडोर संभालते हुए नजर आ रहे हैं। वैसे यह सरकार अपनी आर्थिक नीति को दिशा देने में भी अर्थशास्त्र की तुलना में नाट्यशास्त्र पर अधिक यकीन करती है लिहाजा हम वृद्धि तेज करने के लिए नाटकीय एवं अप्रत्याशित उपायों की उम्मीद कर सकते हैं। लेकिन इस समय हमें क्या इसी की जरूरत है?

दीर्घावधि वृद्धि की बुनियाद निवेशकों के उस विश्वास पर टिकी होती है जो उन्हें देश के सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश की स्थिरता को लेकर होता है। विदेशी निवेशकों के मामले में तो यह बात खास तौर पर सही है। इस मोर्चे पर हालात गत जुलाई के बाद काफी बदले हैं। देश का राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लाने के लिए चलाए गए अभियान और आने वाले दिनों में राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी (एनपीआर) एवं राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) लाए जाने की चर्चाएं सत्ताधारी दल की तरफ से दी जा रही तमाम सफाई के बावजूद डर एवं संदेह पैदा कर रही हैं।

नागरिकता से संबंधित प्रस्तावों के खिलाफ दी जा रही दलीलें इसके आर्थिक प्रभावों पर आधारित न होकर संविधान में निहित धर्मनिरपेक्ष भारत के विचार को दी जा रही चुनौती पर आधारित हैं। पिछले 70 साल से धर्मनिरपेक्ष भारत के ही तौर पर लोग इस देश को देखते रहे हैं। ऐसे में यह महज दुर्घटना नहीं है कि संप्रदायवाद के खिलाफ इस प्रतिरोध की अगुआई कर रहे युवा संविधान की प्रस्तावना का पाठ कर रहे हैं।

संप्रदायवाद और भेदभाव के आरोपों पर जोर-शोर से चर्चा होती रही है। इसे देखने का एक तरीका यह है कि सीएए कानून उन कथित अवैध प्रवासियों पर लागू होगा जो 2014 से पहले भारत आ चुके हैं। सीएए बुनियादी तौर पर आम-माफी देने वाला कानून है। पहले भी अवैध शरणार्थियों की समस्या से जूझ रहे कई देशों ने उन्हें वापस न भेज पाने पर ऐसी छूट देकर नागरिकता दी है। अमेरिका ने भी 1986 में रीगन के कार्यकाल में ऐसी माफी दी थी। लेकिन सीएए कानून के जरिये दी जा रही छूट साफ तौर पर विभेदकारी है क्योंकि यह मुस्लिमों को छूट से बाहर कर देता है। अभी यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि इस कानून पर उच्चतम न्यायालय का रुख क्या होगा? लेकिन यह समझा जा सकता है कि इतने सारे लोग इस कानून को समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन क्यों मान रहे हैं? इस कानून ने केंद्र एवं कई राज्य सरकारों के बीच तनातनी की स्थिति भी पैदा कर दी है जो उच्च वृद्धि पथ के लिए जरूरी माने जाने वाले सहकारी संघवाद की संभावनाओं को सीमित करता है। जीएसटी परिषद में आम सहमति से फैसले लिए जाने की स्थापित परंपरा से अलग होने को इस दिशा में पहले संकेत के तौर पर देखा जा सकता है। अगर केंद्र एवं राज्यों के बीच तनातनी की स्थिति और बिगड़ती है तो हम आर्थिक नीति के अन्य क्षेत्रों में भी सहकारी संघवाद की सोच से भटकाव देख सकते हैं। यह निवेश निर्णयों के अलावा आर्थिक वृद्धि को भी प्रभावित करेगा।

नागरिकता निर्धारण संबंधी प्रस्तावों ने देश भर में छात्रों की अगुआई में विरोध प्रदर्शनों को जन्म दिया है। प्रदर्शनों के प्रति अधिकारियों के कुछ हद तक एकतरफा रवैये और प्रदर्शनकारियों पर हिंसात्मक जवाबी हमलों के प्रति बरती जा रही सहिष्णुता सड़कों पर टकराव और हिंसा बढऩे का सबब बन सकता है। ऐसी स्थिति सार्वजनिक अव्यवस्था का माहौल पैदा करेगी जिससे निवेशक पैसे लगाने को लेकर भयभीत होंगे। खासकर देश के उत्तरी राज्यों में करोड़ों नए रोजगार पैदा करने की जरूरत है।

नागरिकता संबंधी इन प्रस्तावों को लागू करने से जमीनी स्तर पर व्यापक गतिरोध पैदा होगा और अगर 2005 के बाद असम में लागू हुए एनआरसी के अनुभव को आधार बनाएं तो इस कवायद का खासा आर्थिक प्रभाव भी होगा। असम में एनआरसी लागू हुआ तो उससे देश की महज तीन फीसदी ही प्रभावित हुई लेकिन इसे अंजाम देने में करीब एक दशक का वक्त लग गया। इस काम में 50,000 से अधिक सरकारी कर्मचारी लगे और 1,200 करोड़ रुपये से भी अधिक की लागत आई।

सरकार ने अब कहा है कि उसका एनआरसी को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का कोई इरादा नहीं है लेकिन यह सत्तारूढ़ पार्टी के चुनाव घोषणापत्र का हिस्सा रहा है और उसके तमाम नेता इस बात को पूरी शिद्दत से कहते आए हैं। बहरहाल डर यह है कि एनआरसी और एनपीआर एक ही काम अंजाम देने के लिए हैं और इनका वैसा ही असर होगा जैसा असम में एनआरसी लागू करने पर हुआ है।

बड़ी समस्या गरीब लोगों पर पडऩे वाले प्रभाव को लेकर है। इनमें से कई लोग अपनी नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी दस्तावेज नहीं पेश कर पाएंगे जिसके बाद उनकी जिंदगी भारत की नागरिकता साबित करने में ही उलझ जाएगी। अधिकार समूह राइट्स ऐंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप (आरआरएजी) ने असम में एनआरसी से बाहर रखे गए लोगों के बीच एक छोटा सर्वेक्षण कर उन पर पड़े आर्थिक बोझ का जायजा लिया।

सर्वेक्षण में शामिल 62 लोगों ने नागरिकता विवाद से संबंधित सुनवाई में शामिल होने पर औसतन प्रति व्यक्ति 19,065 रुपये खर्च किए थे। यह हमारी औसत प्रति व्यक्ति आय का करीब 15 फीसदी है और एक गरीब व्यक्ति की आय का बड़ा हिस्सा है। इस सर्वेक्षण के मुताबिक, उनमें से कई लोगों को इसके लिए अपनी कृषि भूमि गिरवी रखने, मवेशी और कृषि उपज/बगीचा बेचने, ऑटो रिक्शा जैसा आय का इकलौता साधन भी बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। कई लोगों को तो इसके लिए कर्ज भी लेना पड़ा।

इसके अलावा दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों को एनआरसी सेवा केंद्र तक पांच-दस बार जाने से जुड़ी चुनौतियां भी थीं। इस सर्वेक्षण में उन लोगों को शामिल नहीं किया गया जिन्हें अपने दम पर विदेशी अधिकरण में बचाव करना पड़ा जिस पर अमूमन एक-डेढ़ लाख रुपये तक का खर्च आया।

असम में 1994-2005 के दौरान गरीबी दर 52 फीसदी से कम होकर 34 फीसदी पर आ गई थी लेकिन उसके बाद एनआरसी प्रक्रिया शुरू होने पर यह राज्य गरीबी के खिलाफ जंग में पिछडऩे लगा। वर्ष 2012 में अधिकांश राज्यों ने 10 फीसदी तक का सुधार दिखाया था, वहीं असम की गरीबी दर में केवल दो फीसदी की गिरावट आई। उस समय देश की अर्थव्यवस्था उछाल पर थी। क्या इसका यह मतलब है कि असम में एनआरसी शुरू होने से यह व्यवधान आया?

सरकार को यह तय कर लेना होगा कि विकास उसकी प्राथमिकता है या नहीं। अभी उच्च वृद्धि और पांच वर्षों में पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था काफी मुश्किल लग रही है। लेकिन अगर यह अपने नागरिकता प्रस्तावों पर आगे बढ़ती है तो इससे केंद्र एवं राज्यों के बीच तनातनी, सामाजिक वैमनस्य और गरीबों की जिंदगी पर असर देखने को मिलेंगे। इस स्थिति में उसे विकास लक्ष्यों को तिलांजलि देनी होगी। सत्ताधारी दल को स्वीकार करना चाहिए कि गत 70 वर्षो में भारत एक धर्मनिरपेक्ष एवं उदार लोकतंत्र बना है और इसके आम नागरिकों के मन में यह संकल्पना गहराई तक पैठी हुई है। भारत को लेकर अंतरराष्ट्रीय जगत की छवि भी कुछ ऐसी ही है।


Date:22-01-20

आबादी की समस्या

संपादकीय

वर्षों तक आबादी में तेज वृद्धि भारत की ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की भी समस्या बनी रही। परंतु हाल के वर्षों में इस समस्या का क्रम उलट गया है। संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि दुनिया के 27 देशों में अब 2010 की तुलना में कम आबादी है। 55 देश ऐसे हैं जहां 2050 तक आबादी में गिरावट आएगी। यानी जनसंख्या में कमी आना सामान्य बात हो जाएगी। इसके भू-आर्थिक परिणाम चिंतित करने वाले हैं। उदाहरण के लिए कुछ अर्थशास्त्री जिनके मुताबिक प्रतिव्यक्ति आर्थिक वृद्धि से उत्पादकता बढ़ती है और इसमें नवाचार की भूमिका होती है। उन्हें आशंका है कि आबादी कम होने से नवाचार में कमी आएगी। इससे प्रति व्यक्ति आय में ठहराव आएगा। अन्य लोगों की चिंता है कि आबादी कम होने से भविष्य की मांग को लेकर उत्पादकों के अनुमान में भी कमी आएगी। इससे समेकित मांग और निवेश का संकट उत्पन्न हो सकता है। कुछ अन्य का कहना है कि इन प्रभावों के चलते भविष्य में प्रजनन दर में और कमी आ सकती है क्योंकि भविष्य की कठिनाइयों के चलते लोग शायद कम संतानोत्पत्ति करें।

आबादी में ठहराव को पहले केवल अमीर अर्थव्यवस्थाओं से जोड़ा जाता था लेकिन अब उसे मध्य आय वर्ग वाले देशों में भी देखा जाने लगा है। भारत के जो देश उच्च मध्य आय के स्तर पर हैं उनमें भी यह दिखाई पड़ रहा है। वर्ष 2019 की आर्थिक समीक्षा में देश के जनांकीय ढांचे पर एक अध्याय है जो आने वाले वर्षों में संदर्भ बिंदु बन सकता है।

इसमें अनुमान जताया गया है कि 2021 से 2041 के बीच दो दशक में देश की जनसंख्या वृद्धि 12 फीसदी तक होगी। परंतु यह बात विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों के बीच आबादी में और प्रजनन में होने वाली बढ़ोतरी के अंतर को छिपा जाती है। कुछ राज्य मसलन बिहार आदि की आबादी 25 फीसदी बढ़ेगी। दूसरे राज्यों मसलन आंध्र प्रदेश की आबादी में शायद ही कोई खास बढ़ोतरी दर्ज होगी। आर्थिक समीक्षा के अनुसार 2021 से 2041 के बीच उसकी आबादी में 3.4 फीसदी का इजाफा होगा। समीक्षा के अनुसार इस सदी के चौथे दशक तक तमिलनाडु की आबादी में कमी आने लगेगी। आयु में आ रही तब्दीली का प्रभाव इससे भी कहीं पहले महसूस किया जाने लगेगा। सन 2031 तक 11 राज्यों में कामकाजी आयु वाली आबादी कम होने लगेगी। दूसरे शब्दों में कहें तो देश के नीति निर्माताओं को ऐसी स्थिति की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए जहां देश का बड़ा हिस्सा स्थिर या घटी आबादी की समस्या से दो चार होगा।

मानव विकास सूचकांकों पर बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले राज्य केरल की आबादी सन 2001 से 2011 के बीच केवल 0.5 फीसदी बढ़ी। देश के उन हिस्सों से काफी कुछ सीखने की आवश्यकता है जहां स्कूल जाने वाली आबादी उच्चतम स्तर पर है। स्कूलों के बुनियादी ढांचे पर इसका असर दिखने लगा है। समीक्षा के मुताबिक 2010 के दशक में दिल्ली को छोड़कर देश के हर प्रदेश में 50 से कम छात्रों वाली प्राथमिक शालाएं बढ़ी हैं।

स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे में भी सुधार करना होगा ताकि बुजुर्ग मरीजों को सेवा दी जा सके। इतना ही नहीं, इस घटनाक्रम के वृहद आर्थिक प्रभावों को भी ध्यान में रखना होगा। भारत हमेशा यह अपेक्षा नहीं कर सकता है कि श्रम शक्ति की बढ़ी हिस्सेदारी की बदौलत वृद्धि को गति मिलेगी। ऐसे में इस संभावित रुझान का मुकाबला करने का केवल एक ही तरीका नजर आ रहा है। हमें अधिक से अधिक महिलाओं को कामकाजी बनाने पर ध्यान केंद्रित करना होगा।


Date:22-01-20

सामाजिक अशांति पैदा कर सकती है बढ़ती असमानता

संपादकीय

बजट का पारंपरिक हलवा कितना स्वादिष्ट रहा, यह बजट के दिन ही मालूम होगा। संभ्रांत वर्ग सरकार पर दबाव डाल रहा है कि वर्तमान आर्थिक संकट से उबरने का उपाय यह है कि उद्योगों को टैक्स में छूट दी जाए। वहीं दुनिया में बढ़ती असमानता नापने वाली संस्था ऑक्सफाम की रिपोर्ट ने फिर दहशत पैदा की है। जबकि, आईएमएफ की एक अन्य रिपोर्ट ने भी उसी दिन भारत की विकास दर को घटाकर 4.8 प्रतिशत करते हुए कहा है कि विश्व में आर्थिक मंदी भी भारत के घटते विकास के कारण है। इन रिपोर्ट्स को एक साथ देखें तो घरों में काम करने वाली किसी महिला को एक कंपनी के सीईओ की एक साल की आमदनी के बराबर कमाने के लिए, भारत की वर्तमान औसत आयु के हिसाब से 360 बार जन्म लेना होगा (22277 वर्ष)। दूसरी ओर, इस सीईओ की आय हर सेकंड 106 रुपए है, जो भारत में एक गरीब परिवार की रोजाना की आय से भी ज्यादा है। ऑक्सफाम के मुताबिक आर्थिक विषमता (गरीब-अमीर के बीच की खाई) नियंत्रण से बाहर होती जा रही है, क्योंकि सरकारों की नीतियां गलत हैं और लिंगभेद उसमें वृद्धि कर रहा है। नीति आयोग ने इन दोनों रिपोर्टों से आगे बढ़ते हुए हाल में बताया कि भारत में पिछले एक वर्ष में लगभग सभी राज्यों में भूख, गरीबी और असमानता की स्थिति 2018 के मुकाबले और खराब हुई है। आयोग ने 62 सूचकांकों का इस्तेमाल करते हुए पाया कि 28 में से 22 राज्यों का परफॉर्मेंस घटा है। आर्थिक विषमता की स्थिति को यूं समझा जा सकता है कि ऊपर खड़ा हर एक व्यक्ति नीचे खड़े हर 70 लोगों से चार गुना ज्यादा पैसे वाला है और यह असमानता हर साल बढ़ रही है। समाजशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि यह खाई सामाजिक उपद्रव का बड़ा कारण बन सकती है। जहां एक वर्ग टैक्स में ज्यादा छूट को वर्तमान आर्थिक संकट की चाबी बता रहा है, वहीं ऑक्सफाम के अनुसार, अगर ऊपर के एक फीसदी वर्ग से टैक्स के रूप में अगले दस वर्ष तक सरकार मात्र 0.5 फीसदी और ले तो बुजुर्गों, बच्चों की देखभाल, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में 11.40 करोड़ कर्मियों को नौकरियां दे सकते हैं। भारत के मात्र 63 लोगों की संपत्ति देश के बजट से ज्यादा है। बजट तैयार किया जा रहा है और सरकार को इन रिपोर्टों का संज्ञान लेना चाहिए।


Date:22-01-20

भूजल संकट से बेखबर क्यों हैं हम

सुविज्ञा जैन

घटते भूजल की चिंता बढ़ती जा रही है। हाल में दुनिया के चौरानवे देशों के एक हजार से ज्यादा वैज्ञानिकों, जल विशेषज्ञों और संबंधित जानकारों ने इस ओर ध्यान दिलाते हुए दुनियाभर की सरकारों और गैर सरकारी संगठनों के नाम एक बयान जारी किया है। यह मसला हाल फिलहाल उतना बड़ा जरूर न दिख रहा हो, लेकिन साल दर साल जिस तरह भूजल संकट बड़ा बनता जा रहा है, उसके मद्देनजर फौरन ही चेत जाना चाहिए। पिछली सदी के अस्सी के दशक से आज तक दुनिया में पानी की खपत हर साल कम से कम एक फीसद बढ़ रही है। इस हिसाब से यह अंदाजा भी लग गया है कि कितनी भी किफायत बरत लें, आज की तुलना में 2050 तक दुनिया को कम से कम तीस प्रतिशत अतिरित पानी की जरूरत पड़ेगी ही पड़ेगी। पिछले हफ्ते जारी वैज्ञानिकों का बयान चेता रहा है कि इसे दूर की बात न मानें बल्कि निकट भविष्य में भी खतरे की घंटी बजने को है। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जल संकट कोई नई चिंता है। पिछले तीन दशक से इसे जताया जा रहा है।ये अलग बात है कि इस बीच कोई बड़ा हादसा हुआ दिखाई नहीं दिया। सवाल उठना स्वाभाविक है कि बढ़ती मांग के बावजूद पानी का इंतजाम हो कहां से रहा है। जवाब है कि सतही जल कम पडऩे के बाद पूरी दुनिया में जमीन के नीचे आरक्षित भूजल का दोहन बढ़ता गया। दुनिया की जो हालत है, वह तो फिर भी उतनी खराब नहीं है जितनी कि अपने देश की है। इसका सीधा-सा कारण है कि दुनिया में इस समय जितना भूजल दोहन हो रहा है, उसका एक चौथाई सिर्फ भारत में जमीन से उलीचा जा रहा है। जबकि भौगोलिक तथ्य यह है कि दुनिया में जितनी जमीन है, उसकी तुलना में भारत की भूमि का क्षेत्रफल सिर्फ ढाई फीसद है। इस हिसाब से देखें, तो हम विश्व के मुकाबले कोई दस गुना भूजल दोहन कर रहे हैं, यानी घटते भूजल से होने वाला खतरा सबसे ज्यादा हमारे सामने ही है।

इसे ज्यादा दोहराने की जरूरत नहीं कि बढ़ती आबादी, जलवायु परिवर्तन और अतिदोहन से घटते भूजल के कारण प्रति व्यति जल उप्लब्धता पिछले दशकों के मुकाबले तेजी से घट गई है। कहा जा सकता है कि सिर्फ हम नहीं, बल्कि दुनिया के कई इलाके पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं। संयुत राष्ट्र की ‘वल्र्ड वाटर डवलपमेंट रिपोर्ट के मुताबिक करीब चार सौ करोड़ लोग यानी दुनिया की दो तिहाई आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है, जहां साल के कई महीनों में पानी की भारी किल्लत रहती है और इनमें से दो सौ करोड़ लोग ऐसे हैं जो पूरे साल ही पूर्ण रूप से पानी का संकट झेल रहे हैं। इन क्षेत्रों को ‘वाटर स्ट्रेस्ड क्षेत्र कहा जाता है। गंभीर बात यह है कि पानी की बेहद कमी वाले इन क्षेत्रों में वे क्षेत्र भी शामिल हैं जहां बारिश से पर्याप्त जल मिलता है। पर्याप्त वर्षा के बावजूद जल संकट का मुय कारण वहां बारिश के पानी का सीमित भंडारण है। बारिश से मिलने वाले पानी को पूरा-पूरा रोक कर रखने में ज्यादातर छोटे और विकासशील देश आज भी असमर्थ हैं। दरअसल, वर्षा जल भंडारण एक खर्चीला काम है। भारत की बात करें तो या इस स्थिति पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि बारिश के महीनों में जो क्षेत्र बाढ़ से जूझते हैं, वे इलाके बाकी के महीनों में पानी की किल्लत में रहने लगे हैं। अभी तक तो किल्लत वाले इलाकों में कामकाज किसी तरह चल रहा था। इसका कारण था भूजल की पर्याप्त उप्लब्धता , यानी भूजल को उलीच कर काम चल रहा है। लेकिन अब चेत जाना चाहिए, योंकि भूजल चुकने लगा है। भूजल चुकने का कारण भी साफ है। बारिश से ही सतही जल और भूजल दोनों का पुनर्भरण होता है। लेकिन भूजल के पुनर्भरण की एक गति है। पिछले कुछ समय में जिस रफ्तार से जमीन से पानी निकाला जा रहा है, वह पुनर्भरण की रफ्तार से तेज है। जाहिर है, भूजल घटता जा रहा है। देश में कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां भूजल खत्म होने को है या पहुंच से काफी नीचे चला गया है। इसके लिए अगर पूरी ताकत लगा दें, फिर भी इसके पुनर्भरण में कई साल लग जाएंगे। इसीलिए वैज्ञानिकों और जल विशेषज्ञों ने पिछले महीने जो बयान जारी किया है, उसमें कहा गया है कि भूजल पर ज्यादा सोचने के लिए अब बिल्कुल समय नहीं बचा है। भूजल संकट की बात को अगर और पुता करना चाहें तो संयुत राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट पर नजर डाल लेनी चाहिए। इसके मुताबिक इस समय दुनिया में दो अरब लोग पीने के पानी के लिए भूजल पर आश्रित हैं। यही नहीं, खेती के लिए भी चालीस फीसद पानी जमीन से लिया जा रहा है। यहां तक कि कई नदीतालाबों का स्रोत भी भूजल ही है। वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के ‘वॉटर रिस्क एटलस के मुताबिक एक सौ चौरासी में से करीब सत्रह देश ऐसे हैं जो जल संकट की ‘अति गंभीर श्रेणी में आ चुके हैं। ये वे देश हैं जहां कहा जाता है कि डे जीरो अब दूर नहीं। डे जीरो यानी वह दिन जब सभी नल सूख जाएंगे। इन देशों में कतर, इजराइल, लीबिया, जॉर्डन, ईरान, कुवैत, ओमान जैसे देश शामिल हैं। भारत भी इन्हीं में एक है। ऐसा भी नहीं है कि भूजल संकट को लेकर भारत में समय-समय पर चिंताएं न जताई गई हों। पिछले साल ही नीति आयोग ने ‘वाटर कंपोजिट इंडेस रिपोर्ट में बताया था कि आने वाले एक साल में इकीस भारतीय शहरों में भूजल लगभग खत्म होने जा रहा है। भारत में आज बयासी करोड़ लोग ऐसे इलाकों में रह रहे हैं, जहां प्रति व्यति प्रतिवर्ष जल उप्लब्धता सिर्फ एक हजार घनमीटर या उससे कम है। जबकि अंतरराष्ट्रीय मानदंड के मुताबिक प्रति व्यति सालाना कम से कम एक हजार सात सौ घनमीटर पानी से ज्यादा उप्लब्ध होना चाहिए। भूजल के आसन्न संकट के सुविधाजनक समाधानों की सूची लंबी होती जा रही है। इन समाधानों में पानी का किफायत से इस्तेमाल का नारा प्रमुख है। जल संरक्षण में नागरिकों की भूमिका भी जोर-शोर से प्रचारित की जा रही है। वत-वत पर भूजल दोहन को कानूनी डंडे से रोकने के समाधान भी बताए जाते हैं। लेकिन जिस एक प्रमुख कारण की चर्चा कम होती है, वह है भूजल का अंधाधुंध दोहन। इसकी जरूरत इसलिए पड़ रही है कि वर्षा जल को रोक कर रखने का पर्याप्त प्रबंध हमारे पास नहीं है। हमें हर साल चार हजार अरब घनमीटर पानी प्रकृति से मिलता है, जिसमें से सिर्फ दो सौ सत्तावन अरब घनमीटर पानी हम बांधों, जलाशयों में रोक पाते हैं। जबकि विशेषज्ञ बताते हैं कि बारिश के दौरान हमें छह सौ नब्बे अरब घनमीटर वह सतही जल आसानी से उप्लब्ध है जिसे गैर बारिश वाले आठ महीनों के लिए रोककर रखा जा सकता है। यदि यह पानी भंडारित हो तो भूजल पर निर्भरता अपने आप ही कम हो सकती है।


Date:21-01-20

चौकस होगी विधि–व्यवस्था

ए.के. जैन , (लेखक उप्र के पूर्व डीजीपी)

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ व आर्थिक राजधानी नोएडा (गौतमबुद्धनगर) में पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू कर दी गई है। यह उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के कुशल नेतृत्व में जनहित में उठाया गया उपयुक्त कदम है‚ जिसकी आवश्यकता प्रदेश को दशकों से थी। कई बार इसकी घोषणा हुई‚ यहां तक की कानपुर के लिए पुलिस कमिश्नर का चयन भी सत्तर के दशक में कर लिया गया मगर एक सशक्त लॉबी के दबाव में प्रदेश सरकार ने हर बार कदम पीछे खींच लिये। हालांकि योगी सरकार के इस निर्णय की हर जगह प्रशंसा हो रही है। दरअसल‚ यह कानून–व्यवस्था के क्षेत्र में उठाया गया एक साहसिक कदम है। 1861 के पुलिस एक्ट के दायरे से बाहर निकलकर स्मार्ट पुलिसिंग की दिशा में एक बेहतरीन कदम है। यह प्रणाली देश के 71 महानगरों में पहले से ही सफलतापूर्वक कार्य कर रही है। उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल राम नाइक ने भी इसकी अनुशंसा कई बार की क्योंकि उन्होंने मुंबई में भी इसकी सफलता को नजदीक से देखा था। मुंबई में किस तरह वहां अंडरवर्ल्ड की कमर पुलिस आयुक्त प्रणाली के तहत तोड़ी गई‚ वह सर्वविदित है। विभिन्न पुलिस आयोगों ने बारहां कहा है कि जहां भी शहरीकरण हो रहा हो व शहर की आबादी 10 लाख से ऊपर हो‚ वहां पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू की जाए।

साल 1977 में ‘धर्मवीर कमीशन’ ने आपातकाल के बाद जनता पार्टी की सरकार में अपनी रिपोर्ट दी थी‚ जिसमें महानगरों में बेहतर पुलिस व्यवस्था के लिए पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू करने की संस्तुति की थी। तब यह लागू नहीं की जा सकी थी। अभी भी देश में कुछ राज्य ऐसे हैं‚ जहां पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू नहीं जा सकी है। इसके तहत पुलिस को ही मजिस्ट्रेट का अधिकार दिया जाता है‚ जो कानून–व्यवस्था के हित में है। कई बार जानमाल की हानि रोकने के लिए मौके पर त्वरित निर्णय लेने की जरूरत होती है। लेकिन पर्याप्त शक्तियों के अभाव में कानून–व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। फिर पुलिस व मजिस्ट्रेट के बीच तालमेल बैठाना एक दुरुûह कार्य होता है। अलबत्ता‚ पुलिस की जवाबदेही तय करने के साथ ही शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए। पुलिस की कार्यप्रणाली मुख्यतः निरोधात्मक होनी चाहिए‚ जिसमें अपराधों को घटित होने से रोका जा सके। 151 सीआरपीसी के तहत कार्रवाई 107/116/116(3) सीआरपीसी के तहत निरुûद्ध करने की कार्रवाई‚१४४ का लगाया जाना‚109/110/गुंडा एक्ट के तहत नेकचलनी के लिए पाबंद करना‚ गैंगस्टर एक्ट के तहत अपराधियों पर कार्रवाई/रासुका में निरुद्ध करना आवश्यक होता है।

अभी तक ये अधिकार मजिस्ट्रेट को थे‚ जो अब पुलिस को दे दिए गए हैं। इस व्यवस्था के दूरगामी परिणाम होंगे व कानून–व्यवस्था‚ अपराध नियंत्रण में अत्यंत सहायक सिद्ध होंगे। कानून–व्यवस्था की स्थितियों में ये कार्रवाई पुलिस ही करती थी परंतु उसको मजिस्ट्रेट के आदेश की प्रतीक्षा रहती थी तथा तभी बल प्रयोग वैधानिक होता था। लाठीचार्ज‚ टीयर गैस का छोड़ा जाना‚ रबड़ बुलेट का प्रयोग‚ फायरिंग के आदेश प्राप्त होने पर ही पुलिस से अपेक्षा होती थी कि पुलिस कार्रवाई करेगी। मजिस्ट्रेट के अन्य कार्यों में व्यस्त रहने या अवकाश पर रहने की स्थिति में इनमें अनावश्यक विलंब होता था जो कभी–कभी घातक सिद्ध होताथा। यूरोप‚ अमेरिका इत्यादि देशों में पुलिस खुद अपने विवेक से निर्णय लेती है व उसके लिए उत्तरदायी होती है। कमिश्नर प्रणाली में जुलूसों की अनुमति/जुलूस के मार्ग का निर्धारण/जनसभाओं व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की अनुमति अब सीधे पुलिस देगी। इसके लिए मजिस्ट्रेट के आदेश की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। पब्लिक को भी एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय भटकना नहीं पड़ेगा तथा अब व्यवस्था सुगम कर दी गई है। मजिस्ट्रेट अब अपना कार्य समय से संपन्न कर सकेंगे। राजस्व विवादों/भूमि विवादों का निस्तारण उनकी प्राथमिकता होगा तथा इसका लाभ भी पुलिस को कानून–व्यवस्था बनाए रखने में मिलेगा। थाना दिवस‚ तहसील दिवस में अधिकांशतः प्रकरण भूमि विवाद के ही आते हैं‚ जिनसे फौजदारी मामले दर्ज होते हैं। मजिस्ट्रेट अब तहसीलों के कार्य में रुûचि ले सकेंगे‚ जिससे जनता को सीधा लाभ मिलेगा व अब उनकी उपलब्धता अपने कार्यालयों/न्यायालयों में बढ़ जाएगी।

वर्तमान व्यवस्था में दोनों नगरों में बड़ी संख्या में आईपीएस अधिकारी अपनी सेवा देंगे‚ जबकि पूर्व व्यवस्था में मात्र वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ही आईपीएस होते थे। पब्लिक सिविल पुलिस से ही पहचान करती है व नई प्रणाली के तहत करीब दर्जन भर अधिकारी एक–एक महानगर को देखेंगे। इसके लिए प्रदेश की राजधानी लखनऊ व आÌथक राजधानी नोएड़ा का चयन सर्वथा उपयुक्त है। यह एक संदेश दे रहा है। बड़ी संख्या में अधिकारी जो विभिन्न शाखाओं में कार्य के अभाव में कुंठित रहते थे‚ अब अपराध नियंत्रण में अपना योगदान देंगे व उनकी सेवाओं का लाभ लोगोें को मिल सकेगा। महिला अपराधों की रोकथाम की दिशा में भी बहुत ही सकारात्मक पहल की गई है तथा डीसीपी स्तर की महिला अधिकारी व एडिशनल डीसीपी स्तर की भी अधिकारी इससे निपटेंगी। यह समय की मांग थी। निर्भया फंड का सदुपयोग कर सीसीटीवी लगेंगे‚ जो महिलाओं/बच्चियों को सुरक्षित रखने में कारगर होंगे। दोनों महानगरों में आÌथक निवेश को बल मिलेगा तथा पुलिस कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ाई जाएगी। नोएडा में बड़ी संख्या में उद्यमी आकर निवेश करना चाहते हैं। पुलिस आयुक्त प्रणाली लागू होने से वहां इसके लिए उचित वातावरण बनेगा‚ आमजन में सुरक्षा की भावना सृदृढ़ होगी और भारी निवेश होगा।

कमिश्नर प्रणाली के रिव्यू के बाद यह उम्मीद की जाती है कि इसे प्रदेश के बाकी बड़े महानगरों में लागू किया जाएगा ताकि राज्य की बड़ी संख्या में लोग स्मार्ट पुलिसिंग की परिधि में आएं और उनको पुलिस द्वारा प्रदत्त सेवाएं तत्काल एवं समयानुसार उपलब्ध हों। उत्तर प्रदेश में निवेशकों की संख्या में इजाफा हो और रोजगार के रास्ते भी खुलें। जाहिर है‚ उत्तर प्रदेश पुलिस के सामने अब इन दो महानगरों में बड़ी चुनौती होगी। अपराध नियंत्रण की दिशा में ईमानदारी व नेकनीयत के साथ कठोर कदम उठाने होंगे। इसमें सफलता मिलती है तो शीघ्र ही कमिश्नर प्रणाली वाराणसी‚ आगरा‚ गाजियाबाद‚ कानपुर और गोरखपुर में भी लागू की जाएगी।


Date:21-01-20

Guaranteeing healthcare, the Brazilian way

Its success in getting universal coverage has lessons for India

Miguel Lago & Arthur Aguillar , [ Miguel Lago is an executive director at the Brazil-based Institute for Health Policy Studies, where Arthur Aguillar works as a public sector specialist ]

As Brazilian President Jair Bolsonaro visits New Delhi this Republic Day, one interesting field of cooperation to explore in the strategic partnership is healthcare. Achieving universal health coverage is a very complex task, especially for developing countries. Here, the example of Brazil, the only country where more than 100 million inhabitants have a universal health system, is worth studying. It can also provide lessons for Ayushman Bharat, currently the world’s largest and most ambitious government health programme.

Following the end of military rule, the Brazilian society decided to achieve universal coverage by establishing a government-funded system. The Unified Health System (SUS), which guaranteed free health coverage that included pharmaceutical services, was written into the new Constitution in 1988.

Progress over 30 years

In the last 30 years, Brazilians have experienced a drastic increase in health coverage as well as outcomes: life expectancy has increased from 64 years to almost 76 years, while Infant Mortality Rate has declined from 53 to 14 per 1,000 live births. In terms of service provision, polio vaccination has reached 98% of the population. A 2015 report said that 95% of those that seek care in the SUS are able to receive treatment. Every year, the SUS covers more than two million births, 10 million hospital admissions, and nearly one billion ambulatory procedures. This has been made possible even amidst a scenario of tightening budget allocation. While universal health systems tend to consume around 8% of the GDP — the NHS, for instance, takes up 7.9% of Britain’s GDP — Brazil spends only 3.8% of its GDP on the SUS, serving a population three times larger than that of the U.K. The cost of the universal health system in Brazil averages around $600 per person, while in the U.K., this number reaches $3.428.

A study conducted by the Brazil-based Institute for Health Policy Studies (IEPS) forecasts that public health spending in Brazil will need to increase by nearly 1.6 percentage points of the GDP by 2060 in order to cover the healthcare needs of a fast-ageing society.

Achieving universal coverage in India, a country with a population of 1.3 billion, is a challenge of epic proportions. Hence, the advances in this field should be seen not in binaries but judged by its steady growth and improvement. For instance, India must record details of improvement in terms of access, production and population health on a year-by-year basis. A starting point for this daunting task is funding. Public health expenditure is still very low in India, at around 1.3% of GDP in the 2017-2018 fiscal year.

Establishing wellness centres

The Brazilian experience can also inform the design of the expansion of primary care that underlies Ayushman Bharat, that is, the creation of 1,50,000 wellness centre by 2022. The Family Health Programme (Programa Saúde da Família), which relies on a community-based healthcare network, is the backbone of the rapid expansion of coverage in Brazil. The strategy is based on an extensive work of community health agents who perform monthly visits to every family enrolled in the programme.

These agents carry out a variety of tasks. They conduct health promotion and prevention activities, oversee whether family members are complying with any treatment they might be receiving, and effectively manage the relationship between citizens and the healthcare system. The strategy works: a large body of research shows that the programme has drastically reduced IMR and increased adult labour supply. Equally impressive has been its expansion, from 4% of coverage in 2000 to up to 64% of the overall population in 2015; it was able to reach even the rural areas and the poorest States of the country.

Both Brazil and India are composed of large States with a reasonable degree of administrative autonomy. This fact implies great challenges and opportunities. The major challenge is that a one-size-fits-all approach for such heterogeneous regional realities is inconceivable: Tamil Nadu, Sikkim, and Bihar differ in so many ways and this diversity must be met by an intricate combination of standardised programmes and autonomy to adopt policies according to their characteristics. Moreover, regional disparities in terms of resources and institutional capabilities must be addressed. This diversity, nevertheless, can be a powerful source of policy innovation and creativity.


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