26-09-2020 (Important News Clippings)

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26 Sep 2020
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Date:26-09-20

Code debate

Far­reaching in effect, the new labour codesrequire greater deliberation

Editorial

Some laws are far too important and have far too much impact on the people to be passed in haste or without sufficient deliberation. The three codes aimed at consolidating diverse labour laws and ushering in reforms fall in this category. The codes were passed in both Houses after a limited debate and in the absence of the Opposition. The Industrial Relations Code, the Social Security Code and the Occupational Safety, Health and Working Conditions Code, 2020, are an updated version of the respective Codes of 2019, which were scrutinised by a Standing Committee. Therefore, there is considerable merit in the argument that the fresh drafts, introduced a few days before their passage, ought to have been sent back to the panel for an assessment. It is significant that the most contentious feature — the increase in the threshold for an establishment to seek government permission before closure, lay­off or retrenchment from units that employ 100 workers to 300 — was not found in the 2019 draft, but has been introduced now. This gives establishments greater freedom in their termination and exit decisions. No one disagrees with the basic objective of amalgamating, simplifying and rationalising labour laws. However, the very fact that it involves a voluminous body of legislation should have meant that the final version was widely discussed with the stakeholders, and given suffi­cient time and opportunity to give their views.

The root of the idea of consolidated labour codes goes back to the June 2002 report of the Second National Commission on Labour. The broad vision has been to give an impetus to economic activity without adversely affecting the interests of workers. Whether this is adequately reflected in the new provisions will be tested by the experience of administering the Codes. A positive feature is that the Social Security Code promises the establishment of social security funds for unorganised workers, as well as gig and platform workers, and also says their welfare would be addressed by the National Social Security Board. A contentious section allows the appropriate government to exempt any new factory from all provisions of the Code on occupational health, safety and working conditions. The threshold for considering any premises as a factory has also been raised from 10 to 20 workers without the use of power, and from 20 to 40 with power. It is significant that almost all major trade unions are opposing the new codes. This reflects a genuine fear that expansive powers of exemption have been conferred on the respective governments and there has been excessive delegation of rulemaking powers. The threshold for lay­offs, as well as for various social security schemes can be raised by executive order; safety standards can be changed. There is much reason to fear that conferring wide discretion to the central and State governments may not be conducive to the interests of workers.


Date:26-09-20

पीछे छूटते पुलिस सुधार

प्रकाश सिंह, ( लेखक उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे हैं )

यह 22 सितंबर पुलिस सुधार दिवस के रूप में याद किया गया, क्योंकि 2006 में इसी तिथि को सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार संबंधी अपना ऐतिहासिक फैसला दिया था। 14 वर्ष बीत गए, लेकिन उक्त फैसले में दिए गए निर्देशों के अनुपालन का संघर्ष अभी भी चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने उक्त फैसले में लिखा था कि उसके निर्देश तभी तक लागू रहेंगे, जब तक केंद्र सरकार और राज्य सरकारें इन निर्देशों के अनुरूप अपने-अपने अधिनियम नहीं बना लेतीं। राज्य सरकारों ने इस बिंदु का लाभ उठाते हुए जल्दी-जल्दी अधिनियम बना लिए। अभी तक 18 राज्यों ने अपने-अपने पुलिस अधिनियम बना लिए हैं। कायदे से इन अधिनियमों का उद्देश्य यह होना चाहिए था कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का अनुपालन हो, परंतु वास्तव में इन अधिनियमों द्वारा वर्तमान व्यवस्था को ही कानूनी जामा पहना दिया गया। दरअसल राज्य सरकारें यह चाहती थीं कि वे सुप्रीम कोर्ट के पर्यवेक्षण से बाहर हो जाएं। इसी नीयत से उन्होंने मनचाहे तरीके से अपने कानून बना लिए। यह दूसरी बात है कि इन कानूनों की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में देश के जाने-माने वकील हरीश साल्वे ने चुनौती दी है। बाकी राज्यों ने पुलिस सुधार के लिए शासनादेश जारी किए। वास्तविकता यह है कि सभी अधिनियम और शासनादेश सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का जहां-तहां उल्लंघन करते हैं। जस्टिस थॉमस कमेटी ने 2010 में अपनी रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से लिखा भी था कि किसी भी राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ईमानदारी से अनुपालन नहीं किया।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुलिस सुधारों की मॉनिटरिंग जारी है इसलिए इस संबंध में बीते दिनों देश के कई विशिष्ट नागरिकों ने एक अपील जारी की। अपील में इस बात पर खेद प्रकट किया गया कि देश की किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी ने पुलिस सुधार में दिलचस्पी नहीं ली। ऐसा प्रतीत होता है कि सभी दल पुलिस को अपने राजनीतिक एजेंडे की र्पूित का साधन समझते हैं। यह भी कहा गया कि पुलिस सुधार के बिना देश की प्रगति नहीं हो सकती और चेतावनी दी गई कि अगर पुलिस सुधार नहीं हुए तो देश के लोकतांत्रिक ढांचे के लिए एक दिन गंभीर खतरा खड़ा हो सकता है। अपील में यह भी उल्लेख किया गया कि देश की आर्थिक प्रगति के लिए पुलिस सुधार आवश्यक हैं, क्योंकि बिना बेहतर शांति-व्यवस्था के निवेशक आर्किषत नहीं होंगे। इस अपील पर हस्ताक्षर करने वालों में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरसी लाहोटी और जाने-माने वकील फली नरीमन समेत कई पूर्व पुलिस एवं प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे। इसको कॉमन कॉज, कॉमनवेल्थ ह्यमुन राइट्स, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स, फाउंडेशन फॉर रेस्टोरेशन ऑफ नेशनल वैल्यूज, सिटीजंस फोरम इंडिया आदि ने भी अपना समर्थन दिया।

सुप्रीम कोर्ट में पुलिस सुधार की लड़ाई तो चलती रहेगी, लेकिन पुलिस सुधार का एक आंतरिक पहलू भी है, जिस पर अभी तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। वास्तव में यह पहलू पुलिस अधिकारियों के कार्य क्षेत्र में आता है। खास बात यह है कि इन सुधारों के लिए न तो अतिरिक्त धनराशि की आवश्यकता होगी, न ही राज्य सरकार को अधिनियम बनाने होंगे और न ही इन सुधारों का राजनीतिक या किसी अन्य स्तर पर विरोध होगा। पुलिस को सिर्फ अपनी आंतरिक व्यवस्था ठीक करनी होगी। सबसे पहले तो थाने का माहौल बदलना होगा। आज की तारीख में कोई भी शिकायतकर्ता थाने में जाता है तो उसके मन में अनेक प्रकार की शंकाएं होती हैं। रिपोर्ट लिखी जाएगी या नहीं, रिपोर्ट लिखने में कहीं पैसा तो नहीं मांगा जाएगा, कितने घंटे थाने बैठना पड़ेगा, शिकायत पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं? यदि शिकायतकर्ता कोई महिला हुई तो उसके मन में यह सवाल भी उमड़ता है कि मेरे साथ सही व्यवहार होगा या नहीं? क्या यह संभव नहीं कि शिकायतकर्ता थाने में इस विश्वास के साथ जाए कि न केवल उसकी तकलीफ सुनी जाएगी, बल्कि उस पर आवश्यक कार्रवाई भी होगी। कोई व्यक्ति जब अस्पताल जाता है तो इसी आशा के साथ जाता है कि उसे कुछ दवा दी जाएगी और उससे उसे लाभ होगा। आखिर इसी आशा के साथ आम आदमी थाने क्यों नहीं जा सकता? जनता के प्रति पुलिसकर्मियों की सोच और व्यवहार में परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए कोई कानून नहीं बनाया जा सकता। परिवर्तन अंदर से आना है। अधिकारियों को इसे सुनिश्चित करना होगा।

रिपोर्ट दर्ज होने में बहुत सुधार की गुंजाइश है। यदि ज्यादा एफआइआर दर्ज होती हैं तो सरकार के संज्ञान में तथ्य लाकर अतिरिक्त बल की मांग की जा सकती है। गरीब जनता और खासकर जनजातियों के प्रति दृष्टिकोण में भी परिवर्तन की आवश्यकता है। आज ऐसा माहौल है कि जिस आदमी का राजनीतिक या आर्थिक प्रभाव है, उसकी बात तो सुनी जाती है, परंतु बाकियों का दुखदर्द अमूमन नहीं सुना जाता। हाल में देश में कई ऐसे प्रकरण हुए, जिन्हें देखकर लगता है कि पुलिस विभाग में बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है। उत्तर प्रदेश में तो प्रयागराज के एसएसपी और महोबा के एसपी को गंभीर आरोपों के कारण निलंबित भी किया गया। इसी तरह हाल में ही सीबीआइ ने उन्नाव में दुष्कर्म की घटना के संदर्भ में जिलाधिकारी और तीन पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध उचित कार्रवाई की संस्तुति की। सतर्कता निदेशक ने एक आइपीएस अधिकारी की शिकायत पर दो अन्य आइपीएस अधिकारियों के विरुद्ध एफआइआर दर्ज कराने की सिफारिश की है। ऐसे उदाहरण हर राज्य में देखने को मिल रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि नीचे के स्तर के अधिकारी भारी संख्या में भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। इसके लिए मुख्य रूप से वरिष्ठ अधिकारी जिम्मेदार हैं। यदि वे स्वयं स्वच्छ हों और उनका रुख कड़ा हो तो नीचे के स्तर पर भ्रष्टाचार एवं अनियमितताएं स्वत: कम हो जाती हैं। ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों से निपटने का एक ही उपाय है कि उनके विरुद्ध अनुशासनिक कार्रवाई के पश्चात उन्हें नौकरी से निकाला जाए। कुछ अधिकारियों को अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त किया जा सकता है। जिनके विरुद्ध संज्ञेय अपराध हों, उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करके कार्रवाई की जानी चाहिए। आंतरिक स्वच्छता एवं परिवर्तन के बिना वाह्य सुधारों में विलंब होता रहेगा।


Date:26-09-20

समस्या बन रहा अधिक अन्न उत्पादन

पुष्पेंद्र सिंह, (लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)

संसद से कृषि क्षेत्र में सुधार हेतु तीन विधेयक पारित होने के बाद उनके कानून का रूप लेने का इंतजार है। इस इंतजार के बीच इन प्रस्तावित कानूनों का विरोध भी जारी है। यह विरोध सरकार के इस आश्वासन के बाद भी हो रहा है कि इन कानूनों से कृषि क्षेत्र तमाम बंधनों से मुक्त हो जाएगा और फसल उत्पादन, विपणन, भंडारण, प्रसंस्करण क्षेत्रों में निवेश बढ़ेगा, जिससे किसानों को अपनी उपज के अच्छे दाम भी मिलेंगे। किसानों को आशंका है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य और मंडी व्यवस्था को समाप्त करने की ओर अग्रसर है। हालांकि प्रस्तावित कानूनों में ऐसा कुछ नहीं कहा गया है, पर आशंकाओं से ग्रसित कुछ किसान उनके विरोध में खड़े हो गए हैं। सरकार ने आश्वासन भी दिया है कि इन सुधारों से मंडी और एमएसपी व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और यह व्यवस्था पहले की तरह ही चलती रहेगी। बेहतर हो कि किसानों की आशंकाओं को दूर करने के लिए यह सुनिश्चित किया जाए कि एमएसपी पर फसलों की सरकारी क्रय की व्यवस्था इन सुधारों के कारण कमजोर न हो। इसके लिए एमएसपी की व्यवस्था को वैधानिक मान्यता दे देनी चाहिए। एमएसपी से नीचे फसलों की खरीद वर्जित हो और उसके उल्लघंन पर दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान हो।

इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही में लॉकडाउन के कारण देश की विकास दर में भारी गिरावट आई, पर कृषि क्षेत्र में विकास दर 3.4 प्रतिशत रही। कोविड महामारी के बावजूद कृषि की यह विकास दर काफी उत्साहवर्धक है। अब कृषि क्षेत्र आवश्यकता से अधिक उत्पादन कर रहा है। 2019-20 में खाद्यान्नों का 29.50 करोड़ टन रिकॉर्ड उत्पादन हुआ। 18.50 करोड़ टन दुग्ध उत्पादन के साथ हम विश्व में प्रथम स्थान पर हैं। बागवानी-फल, सब्जियों का उत्पादन भी 32 करोड़ टन वार्षिक हो रहा है। 2018-19 में 332 लाख टन चीनी उत्पादन कर हम विश्व में प्रथम स्थान पर रहे। केवल खाद्य तेलों या तिलहन को छोड़कर शेष लगभग सभी कृषि एवं खाद्य पदार्थों का आवश्यकता से अधिक उत्पादन हो रहा है। अधिक उत्पादन का अर्थ किसानों की अधिक आय होना नहीं है, क्योंकि खाद्य भंडारण और प्रसंस्करण में आधारभूत ढांचे के अभाव के कारण हर साल 16 प्रतिशत फल और सब्जियां, 10 प्रतिशत खाद्यान्न, दालें एवं तिलहन खराब हो जाते हैं। उचित भंडारण क्षमता न होने के कारण किसान अक्सर फसल को औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर होते हैं। फिर उसी फसल को कुछ माह बाद उपभोक्ता महंगे दामों पर खरीदने को मजबूर होते हैं। कृषि उत्पादों की भंडारण संरचना में निवेश बढ़ने से फसलों की आवक के वक्त ही किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे तो दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को भी साल भर उचित मूल्यों पर कृषि उत्पाद उपलब्ध होंगे।

कृषि आधारभूत संरचना को विकसित करने के लिए एक लाख करोड़ रुपये के जिस कोष की घोषणा की गई है उसके माध्यम से कृषि उपज के भंडारण हेतु गोदाम, शीतगृह बनाने, प्रसंस्करण उद्योग आदि लगाने की बात कही गई है। सरकार ने मछली पालन क्षेत्र में निवेश हेतु 20,050 करोड़ रुपये और दुग्ध उत्पादन, डेयरी और पशुपालन क्षेत्र में निवेश बढ़ाने हेतु 15,000 करोड़ रुपये के एक अलग कोष की घोषणा की थी। सरकार ने गेहूं, चावल आदि अनाज क्रय और भंडारण की अच्छी क्षमता विकसित की है, लेकिन खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत अनाज वितरण व्यवस्था में भी सुधार की आवश्यकता है। इस साल एक जून को लगभग 9.73 करोड़ टन का अनाज का भंडार था, जो एक रिकॉर्ड है। कोरोना संकट में मुफ्त अनाज वितरण के बाद भी एक जुलाई को हमारे गोदामों में 9.44 करोड़ टन अनाज था, जो इस तिथि को अनाज के बफर मानक भंडार से भी पांच करोड़ टन अधिक था। सरकार ने 2019-20 में लगभग 3.90 करोड़ टन गेहूं और 7.60 करोड़ टन धान का क्रय किया है। यदि उचित भंडारण क्षमत न होती तो न तो एमएसपी पर गेहूं एवं धान की खरीद हो सकती थी और न ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से कोरोना संकट में सभी को पर्याप्त अनाज उपलब्ध कराया जा सकता था, लेकिन यह भी सच है कि अतिरिक्त अनाज भंडार और बढ़ती खाद्य सब्सिडी भी बहुत बड़ी समस्या बन गए हैं।

2020-21 में एफसीआइ द्वारा एमएसपी पर खरीद, परिवहन, भंडारण, रखरखाव, ब्याज आदि की लागत जोड़कर सरकार को गेहूं का आर्थिक मूल्य 28,838 रुपये प्रति टन और चावल का 37,267 रुपये प्रति टन पड़ रहा है। इस वर्ष बजट में खाद्य सब्सिडी के लिए 1,15,570 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। खाद्य सब्सिडी के मद में बजटीय प्रावधान से इतर एफसीआइ द्वारा राष्ट्रीय अल्प बचत कोष से भी बड़ी धनराशि उधार ली जा रही है। 31 मार्च, 2020 को यह राशि 2,54,600 करोड़ रुपये थी। इसे उपरोक्त बजटीय राशि में जोड़ दें तो वास्तविक खाद्य सब्सिडी 3,70,170 करोड़ रुपये बन रही है। बफर मानकों के ऊपर 5 करोड़ टन अतिरिक्त अनाज रखने पर सरकार डेढ़ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का आर्थिक बोझ वहन कर रही है। बेकाबू होती खाद्य सब्सिडी को देखते हुए इस व्यवस्था में तत्काल सुधार करने होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत अनाज का वितरण मूल्य एमएसपी का 50 प्रतिशत तो होना ही चाहिए। अभी मोटे अनाज एक रुपये, गेहूं दो रुपये, चावल तीन रुपये प्रति किलो के मूल्य पर लाभार्थियों को वितरित किए जा रहे हैं। इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार भी चल रहा है। 2013 में अधिनियम लागू होने के तीन साल बाद वितरण मूल्य बढ़ाने का प्रावधान होने के बावजूद राजनीतिक कारणों से इन मूल्यों में एक भी बार बढ़ोतरी नहीं की गई है। खाद्य सब्सिडी की समस्या का हल करना ही होगा, वरना स्थिति बेकाबू हो जाएगी और वास्तविक राजकोषीय घाटा काफी बढ़ जाएगा।


Date:26-09-20

आसान नहीं राह

टी. एन. नाइनन

किसानों की आय बढ़ाने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है उत्पादकता में इजाफा और दूसरा कीमतों में इजाफा। उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाए बिना कीमतें बढ़ाने का एकमात्र तरीका है खुदरा कीमतों में किसानों की हिस्सेदारी बढ़ाना। इसके तीन तरीके हैं: सरकार न्यूनतम मूल्य गारंटी (खाद्यान्न की तरह) और मूल्य सब्सिडी भी दे, या एक न्यूनतम कीमत (गन्ने की तरह) तय करे जो उपभोक्ताओं (चीनी मिलों) को चुकानी पड़े। तीसरा विकल्प यह कि किसान संगठित होकर सहकारिता अपनाएं, बिचौलियों को दूर करें और कच्चे माल का प्रसंस्करण कर अधिक मूल्य प्राप्त करें। दूध की सहकारिता इसका उदाहरण है। सहकारिता के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर सफल उदाहरण तलाशें तो कैलिफोर्निया के ब्लू डायमंड बादाम और नॉर्वे की सामन मछली का कारोबार हमारे सामने है।

खाद्यान्न सब्सिडी के कारण किसान को वह कीमत मिलनी तय होती है जो खुदरा बाजार मूल्य के लगभग बराबर होता है। गन्ने और दूध के मामले में किसान को करीब 75 फीसदी मूल्य मिलता है। इसकी तुलना में टमाटर, प्याज और आलू उगाने वाले किसान तथा बागवानी करने वाले किसानों को औसतन खुदरा कीमत का 30 प्रतिशत ही मिलता है। इसके बावजूद इनका संयुक्त उपज भार खाद्यान्न से अधिक होता है। इन तीनों उपज में 30 फीसदी के अलावा बाकी हिस्सा बिचौलियों को चला जाता है। यदि प्रत्यक्ष विपणन की व्यवस्था कायम हो जाए तो किसान की हिस्सेदारी बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो सकती है। ऐसी फसलें भी हैं जिनके उत्पादकों को खुदरा मूल्य का बमुश्किल 10 प्रतिशत मिलता है। लैटिन अमेरिका में कॉफी और केला इसके उदाहरण हैं। ओ हेनरी ने ‘बनाना रिपब्लिक’ का जुमला वहां के हालात को देखकर ही दिया था।

किसानों को मिलने वाले मूल्य के इस अंतर के कारण उनका झुकाव उन फसलों की ओर हो गया जहां उन्हें अधिक मूल्य मिलता है। गन्ना और धान में मुनाफा होने के कारण पानी की कमी वाले इलाकों में भी किसान इन फसलों की खेती करते हैं। भारत में इन दोनों उपजों और साथ में दूध का भी अधिशेष उत्पादन होता है। फसल के समझदारी भरे चयन के लिए यह जरूरी है कि अन्य फसलों में भी उत्पादक की हिस्सेदारी में सुधार हो। क्या बिना सरकारी सब्सिडी या कीमतों में हस्तक्षेप किए ऐसा किया जा सकता है? हां, यह हो सकता है। भले ही कीमतें दूध या गन्ने के बराबर न हों लेकिन प्रत्यक्ष विपणन से काफी लाभ संभावित है। ऐसे में बहस को राजनेताओं से दूर ले जाना होगा जो या तो नए कृषि विधेयकों की आलोचना करते हैं या उन्हें लग रहा है कि यह सन 1991 के उद्योगों को लाइसेंसमुक्त करने जैसा क्रांतिकारी कदम है। मामला इतना एकतरफा नहीं है।

विनियमित बाजारों का इतिहास ऐसे में ज्ञानवद्र्धक हो सकता है। ऐसा पहला बाजार सन 1897 में कपास के लिए बना ताकि मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों को भारत से शुद्ध कॉटन मिल सके। तब से एक सदी बाद तक विनियमित बाजार बढ़कर 8,000 हो गए क्योंकि उनमें मानक वजन, उपज की ग्रेडिंग, पारदर्शी कीमत आदि की व्यवस्था थी। खराब प्रबंधन ने उनकी स्थिति खराब की। इसके अलावा वे निहित स्वार्थ के अधीन हो गए, कीमतों से छेड़छाड़, अतिशय शुल्क और कर तथा छोटे किसानों का शोषण प्रमुख भी होने लगा।

दक्षिण भारत के छोटे कॉफी उत्पादकों को उस समय बेहतर कीमत मिलनी शुरू हुई जब उन्होंने सन 1980 के दशक में कॉफी बोर्ड के शोषण आधारित नियमों के खिलाफ बगावत की। परंतु चाय के केंद्रों की नीलामी की इजाजत समाप्त करने का उल्टा नतीजा निकला। यहां नोबेल विजेता एलिनॉर नॉस्ट्रॉम (जो साझा संसाधनों पर सरकार के बजाय जनता के सामूहिक प्रभार के हिमायती थे) की बात से सबक लिया जा सकता है कि संसाधन व्यवस्था यदि व्यवहार में कारगर है तो सैद्धांतिक रूप से भी कारगर होगी।

सरकार ने सिद्धांत को अपनाया जिसके मुताबिक किसान अपनी उपज को जिसे, जब और जहां चाहे बेच सकता है। परंतु बड़ी खाद्य प्रसंस्करण या खुदरा शृंखलाओं की थोक खरीद के समक्ष छोटा किसान क्या कर सकता है? आजादी का आनंद उनको है जिनके पास बाजार की ताकत है। परंतु क्या आलू किसानों ने कभी पेप्सी की शिकायत की? संतरा उत्पादक संघों ने महामारी के दौरान बिक्री के लिए सफल शृंखला की मदद मांगी। सच तो यह है कि अलग-अलग इलाकों और समय पर फसलें अलग नतीजे देती हैं। ऐसे में कुछ राज्यों में कुछ फसलों के किसान ही विरोध कर रहे हैं अन्य नहीं।

सरकार द्वारा कृषि उत्पादक संघों को प्रेरित करना असल बात है। ताकि वे सही तरीके से और उचित पैमाने पर काम कर सकें। इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। उत्पादकता का प्रश्न तो है ही जिस पर कोई बात नहीं कर रहा।


Date:26-09-20

किसान और उसकी उपज

शंभूनाथ शुक्ल

किसान आजकल आंदोलित हैं। उन्हें लगता है उनके साथ छल किया गया है। कृषि मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को धीरे–धीरे समाप्त किया जा रहा है। इससे होगा यह कि किसान की उपज औने–पौने दामों पर बड़े व्यापारी खरीद लेंगे और वे उसके लिए ग्लोबल बाजार तलाश लेंगे। सरकारी अंकुश हटने से ऐसा होने की पूरी आशंका है। यह भी हो सकता है कि व्यापारी बाद में भुगतान भी न करे। सरकारी खरीद केंद्रों में भ्रष्टाचार भले होता रहा हो किंतु जिंस के भुगतान की गारंटी पूरी थी॥। अब व्यापारी खरीद के बाद जिंस को खारिज कर सकता है। ऐसे में किसान न घर के रहेंगे‚ न घाट के। इसका सीधे–सीधे अर्थ है‚ सरकार ने नये कृषि विधेयकों में किसान की एकदम अनदेखी की है। इन विधेयकों के जरिए बाजार में एक पक्ष की अवहेलना की गई है। व्यापारी को किसान की उपज को कहीं से भी खरीद कर कहीं भी ले जा कर बेचने की छूट है‚ तो किसान को भी अपनी उपज का पूरा दाम वसूलने की। पर खुले बाजार में किसान का पक्ष कमजोर है। उसके पास न पैसा है‚ न यह जानने का कोई स्त्रोत कि अमुक इलाके में उसकी जिंस का ऊँचे से ऊँचा भाव क्या हैॽ परिवहन की भी सुविधा नहीं है। ऐसे में किसान उपज को उस कीमत पर बेचने को मजबूर हो जाएगा जो कीमत व्यापारी लगाएगा। जाहिर है‚ इस नीति की सबसे अधिक मार किसान पर पड़ेगी। छोटा और सीमांत किसान तो मारा ही जाएगा।

दरअसल‚ खुले बाजार की नीति ने न केवल किसान‚ बल्कि उन सबको हाशिए पर धकेल दिया है‚ जो सक्षम नहीं हैं अथवा जिनके पास ‘बारगेन’ करने की क्षमता नहीं है। इसमें मारा जाता है‚ किसान क्योंकि अकुशल श्रम शक्ति सबसे अधिक कृषि क्षेत्र में ही लगी है। संभव है‚ बड़ी जोतों वाले किसानों को नुकसान न हो किंतु छोटे और सीमांत किसान ई–नाम (राष्ट्रीय कृषि बाजार पोर्टल) का लाभ नहीं उठा पाएंगे। सरकारी नीति का लाभ इन किसानों को नहीं मिला तो यह कैसी किसान कल्याणकारी योजनाॽ इसी कृषि नीति का विरोध करने के लिए किसानों ने 25 सितम्बर को भारत बंद का नारा दिया था। किसानों ने हाईवे जाम किए और ट्रेनों का परिचालन बाधित किया। उनका असंतोष थमता नहीं दिख रहा। शायद पहली बार सरकार को इतने संगठित विरोध का सामना करना पड़ा है। यहां तक कि सत्तारूढ़ एनडीए के सबसे पुराने और भरोसेमंद घटक अकाली दल में भी इस नीति को लेकर भारी विरोध है। इस दल की प्रतिनिधि हरसिमरत कौर ने तो केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा भी दे दिया है। अन्य दलों में भी इस नीति को लेकर असंतोष है क्योंकि हमारे देश में अधिकांश राजनीतिक दलों का आधार किसान हैं। उनके असंतोष की अनदेखी उनके लिए भारी पड़ सकती है।

सच बात तो यह है कि हम कृषि उपजों और उनकी उपयोगिता को भूल गए हैं। पूरे विश्व में भारत अकेला देश है जिसकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि है। एक अनुमान के मुताबिक आज भी देश में ग्यारह करोड़ किसान हैं। इसका मतलब है कि लगभग 70 करोड़ लोग सीधे–सीधे किसानी पर निर्भर हैं। इसके अतिरिक्त‚बीस करोड़ लोग ऐसे होंगे जो कृषि मजदूरी‚ कृषि उपकरणों की बिक्री या खरीद अथवा उनकी मरम्मत से जुड़े होंगे। ध्यान रखें‚ भारत में गांव सदैव स्वतंत्र इकाई रहे हैं। एक गांव में न सिर्फ किसान‚ बल्कि नाई‚ पुरोहित‚ महाजन‚ बढ़ई–लोहार‚ सुनार‚ पंसारी‚ वैद्य‚ माली‚ दूध–दही का काम करने वाले अहीर‚ चरवाहा से लेकर मृत पशुओं का चमड़ा निकालने वाले कुशल कारीगर भी रहे हैं। इसके अलावा‚ लगान वसूलने वाले लोग भी हैं और इन सबके जीवन निर्वाह के लिए कृषि उपज ही अकेला सहारा थी। किंतु ईस्ट इंडिया कंपनी के आने के बाद से भारत के ग्रामीण जीवन में राज्य का प्रवेश हुआ। कभी भूमि सुधार के नाम पर तो कभी लगान के नकदीकरण के नाम पर अंग्रेज सरकार गांवों में घुसी और किसानों को अपना मुखापेक्षी बना दिया। यही नहीं‚ यूरोप के उद्योगपतियों की जरूरत के अनुसार फसल बोने का दबाव उन पर डाला गया। नील की खेती करने अथवा कपास का रकबा बढ़ाने पर जोर दिया गया। इसके साथ ही अंग्रेज कांट्रैक्ट खेती कराने लगे। इससे किसान की स्थिति दयनीय होती चली गई। किसान अपनी जरूरत के अनुसार नहीं‚ सरकार की जरूरत के हिसाब से फसलें उगाने लगा। इससे वह चेन टूट गई‚ जिसकी वजह से किसान स्वतंत्र था। इसके अलावा‚ जमीन के अनुरूप बीज न बोने से फसलें बर्बाद होने लगीं और हर दूसरे वर्ष अकाल पड़ जाता‚ किंतु अंग्रेज सरकार लगान न माफ करती‚ न कम करती। नतीजा हुआ कि किसान बर्बाद होता गया। पहले कृषि उपज के अनुरूप लोगों का आहार था। यह आज विचित्र लग सकता है कि 1942 में जब बंगाल में अकाल पड़ा‚ तब जितने लोग भूख से मारे‚ उससे अधिक लोग पंजाब से पहुंचाए गए गेहूं को खा कर मर गए क्योंकि गेहूं तब बंगाल में रहने वालों के आहार में शामिल नहीं था जबकि पंजाब में वह खूब पैदा होता था। पंजाब के लोगों ने अपनी चैरिटी भावना में गेहूं भेजा था।

किंतु आजादी के बाद सरकार ने कृषि नीति वही अंग्रेजों वालों रखी। न तो लगान माफी की कोई योजना बनी‚ न कृषि भूमि पर लगने वालों करों के लिए कोई स्पष्ट नीति बनाई गई। ऊपर से आबपाशी के नाम पर नहरों या नलकूप के पानी पर और कर–भार बढ़ा। पानी को लेकर मारपीट होने लगी। तब किसानों की उपज बढ़ाने पर जोर दिया गया। रकबा बढ़ाए बगैर उपज कैसे बढ़ सकती थीॽ इसके लिए उन्नत खाद पर जोर दिया गया। संकर बीज बाजार में आए। मोटे अनाज–ज्वार‚ बाजरा‚ मक्का‚ चना‚ जौ आदि की बजाय किसान गेहूं बोने लगा। फसलों की विविधता समाप्त कर दी गई। हरित क्रांति के नाम पर सिर्फ गेहूं और सरसों तथा अरहर एवं बासमती चावल पर जोर हुआ क्योंकि ये नकदी फसलें थीं। इन फसलों का दुनिया भर में बाजार था‚ इसलिए मल्टीनेशनल कंपनियां और बड़े–बड़े कॉरपोरेट घराने ग्रोसरी का बिजनेस करने लगे। किसान का जिंस सस्ते में खरीद कर विश्व बाजार में मनचाही कीमत पर बेचना। इसीलिए सरकार ने एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य को निर्धारित करने का कानून बनाया था किंतु एमएसपी से बाहर आने के प्रवेश लगातार होते रहे। अंततः इस मानसून सत्र में सरकार ने किसानों के जिंस को एमएसपी से बाहर कर दिया। यह एमएसपी 22 किस्म की उपजों के लिए था। अब किसानों को इसीलिए लगता है‚ कि उन्हें छला गया है। वे आज आंदोलित हैं। पूरा विपक्ष उनके साथ है परंतु यह सरकार कितना झुकेगी‚ यह देखना है।


 

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