05-03-2020 (Important News Clippings)

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05 Mar 2020
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Date:05-03-20

बदला जाना चाहिए सरकारी मदद का तरीका

देश में सब्सिडी पर जितना धन खर्च होता है, उससे तो कोई भी गरीब नहीं रहना चाहिए !

एन के सिंह

सरकार देश के हर गरीब को मुफ्त या बेहद कम दाम पर राशन देती है, क्योंकि वह पेट भरने के लिए अनाज नहीं खरीद सकता। सालों से चल रही इस स्कीम के बावजूद भुखमरी सूचकांक में भारत और फिसलते हुए 107 देशों में 102वें स्थान पर है। किसानों को रासायनिक खाद पर सब्सिडी दी जाती है कि वह महंगी खाद नहीं खरीद सकेगा, लिहाज़ा कृषि उत्पादन कम होगा। अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए ही बिजली-पानी पर सब्सिडी दी जाती है। फिर इतना सब कुछ करने के बाद सरकार किसानों की फसल बाजार मूल्य से ज्यादा पर खरीदती है, क्योंकि बिक्री मूल्य के मुकाबले किसान की लागत ज्यादा आती है और आढ़तिये बाजार भाव कम रखते हैं। इकोनॉमिक सर्वे बताता है कि इस अनाज पर रखरखाव और माल ढुलाई का खर्च भी लगभग गेहूं की कीमत के बराबर ही होता है। यानी गेहूं 18 रुपए किलो से बढ़कर 35.50 रुपए का हो जाता है। इसके बाद यह गरीबों को दो से तीन रुपए किलो की दर से दिया जाता है।लब्बोलुआब यह है कि अनाज उगाने में सब्सिडी, खरीदने में सब्सिडी और खरीदने के बाद गरीब को फिर सब्सिडी पर अनाज, लेकिन इसके बावजूद भारत का कृषि उत्पाद विश्व बाजार में खड़ा होने की स्थिति में इसलिए नहीं है, क्योंकि वह महंगा है। एक किलो गेहूं पर किसान की लागत करीब 15-18 रुपए आती है, जबकि ऑस्ट्रेलिया इससे सस्ता गेहूं भारत पहुंचाने को तैयार है और न्यूजीलैंड दूध। क्या 70 सालों में सरकारों ने सोचा है कि इतना सब कुछ करने के बाद (कुल सब्सिडी और कर्ज माफी जोड़ी जाए तो हर साल करीब साढ़े तीन लाख करोड़ रुपए का खर्च आता है) भी पिछले 29 सालों में हर 37 मिनट पर एक किसान आत्महत्या कर रहा है। हर रोज 2055 किसान खेती छोड़कर मजदूर बन जाते हैं ?

इसका कारण समझने के लिए आइंस्टीन का दिमाग नहीं चाहिए। भारत में पिछले कई दशकों से आर्थिक असमानता इतनी भयंकर रूप से बढ़ी है कि घरों में काम करने महिला को एक सीईओ की सालाना आमदनी के बराबर कमाने के लिए वर्तमान औसत आयु के हिसाब से 360 बार दुनिया में जन्म लेना होगा। इस सीईओ की हर सेकंड आय 106 रुपए है। आर्थिक विषमता यानी गरीब-अमीर के बीच खाई नियंत्रण से बाहर होती जा रही है, क्योंकि सरकारों की नीतियां गलत हैं। नीति आयोग ने हाल ही में बताया है कि भारत में पिछले एक साल में लगभग सभी राज्यों में भूख, गरीबी और असमानता की स्थिति 2018 के मुकाबले और खराब हुई है। आयोग ने 62 सूचकांकों का इस्तेमाल करते हुए पाया कि 28 में से 22 राज्यों का परफॉर्मेंस घटा है। समाजशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि यह खाई सामाजिक उपद्रव का एक बड़ा कारण बन सकती है, वह भी तब जब आज शिक्षा और संचार के प्रसार के कारण लोगों में सामूहिक चेतना बढ़ी है।

देश में केवल भोजन से संबंधित सब्सिडी पर कुल खर्च 3.50 लाख करोड़ का है, इससे 12 करोड़ परिवार जुड़े हैं। यानी प्रति परिवार खर्च करीब 30,000 रुपए सालाना या 2500 रुपए प्रतिमाह या 83 रुपए प्रतिदिन। अगर इसमें बच्चों को दिया जाने वाले मध्याह्न भोजन और अन्य योजनाओं पर होने वाला व्यय भी जोड़ दिया जाए तो यह गरीबी सीमा रेखा के लिए 27 रुपए प्रतिदिन प्रति व्यक्ति आय की परिभाषा को पार कर जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में कोई गरीब नहीं है। अगर यह राशि सीधे गरीब परिवार को मिले तो देश में कुपोषण से बच्चों के मरने की स्थिति में भारत बेहद नीचे न होता और न ही हंगर इंडेक्स में हमारा नंबर 102वां होता। हमारी भंडारण क्षमता से अधिक अनाज सड़कों पर या रेलवे साइट पर पड़ा रहता है और उसे चूहे या चूहेनुमा अफसर खाते रहते हैं।

कुछ माह पहले खाद्य मंत्रालय ने विदेश मंत्रालय से गुहार लगाई कि कुछ गरीब देश तलाशो, जिन्हें मानवीयता के आधार पर पुराने अनाज को मुफ्त मदद के रूप में भेजा जा सके। नहीं तो इन्हें फेंकना पड़ेगा, क्योंकि इसके रखरखाव पर खर्च बढ़ता जा रहा है और नई फसल आने वाली है। हंगर इंडेक्स में पाकिस्तान हमसे बेहतर 94वें पायदान पर, बांग्लादेश 88वें, श्रीलंका 66वें और नेपाल 73वें स्थान पर हैं। चीन 25वें स्थान पर जबकि 150 तक औपनिवेशिक शासन और नस्लभेद झेलने के बाद 1994 में गणतंत्र बना दक्षिण अफ्रीका 59वें पायदान पर है। 2015 में भारत 93वें स्थान पर था। क्या आज जरूरत इस बात की नहीं है कि हम आर्थिक नीति और डिलीवरी सिस्टम को पूरी तरह बदलें ?


Date:05-03-20

अनिश्चितता का अंत

संपादकीय

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार को 10 सरकारी बैंकों का चार बैंकों में विलय करने की मंजूरी दे दी। इसके साथ ही इस कवायद से जुड़ी लंबी अनिश्चितता का अंत हो गया है। गत माह मंत्रिमंडल की तीन बैठकों में इसे मंजूरी नहीं मिलने से विलय की तारीख में देरी होने की अटकल लगने लगी थीं। हालांकि वित्त मंत्री ने इस विलय की घोषणा गत वर्ष 30 अगस्त को की थी। इस प्रक्रिया में शामिल बैंकर चिंतित थे क्योंकि अधिसूचना के बाद आमतौर पर प्रक्रिया पूरी करने में 40-45 दिन का समय लगता है। अब इस काम को तेजी से अंजाम देना होगा क्योंकि बैलेंस शीट और शेयरों के एकीकरण के लिए 1 अप्रैल से पहले 30 दिन से भी कम समय बचा है। मंत्रिमंडल की मंजूरी में देरी संभवत: इसलिए हुई क्योंकि बैंक ऑफ बड़ौदा में विजया बैंक और देना बैंक का विलय होने के बाद उसके वित्तीय नतीजे अच्छे नहीं रहे। चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में इस संयुक्त उपक्रम को 1,407 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा। ऐसा मुख्यतौर पर अधिक प्रोविजनिंग की वजह से हुआ। अब बैंक की दिक्कतें और बढ़ गई हैं क्योंकि 10,387 करोड़ रुपये की राशि फंसे कर्ज में तब्दील हो गई है।

वित्त मंत्रालय ने विलय के लिए बैंकों का चयन किस आधार पर किया इसके पीछे कोई दलील मौजूद नहीं है। जाहिर है तीन कमजोर बैंक मिलकर एक मजबूत बैंक नहीं बन सकते। दरअसल सरकार ने घोषणा कर दी थी और अब उसके पास वापसी का रास्ता नहीं था। इन बैंकों के अंशधारकों को भी आगे की राह के लिए कुछ निश्चितता की आवश्यकता थी। अब जबकि निर्णय लिया जा चुका है तो सरकार के लिए अच्छा यही होगा कि वह सरकारी बैंकों के लिए आवश्यक वास्तविक सुधारों पर काम करे। ऐसे समय पर इसकी खास आवश्यकता है जबकि चरणबद्घ जमा में उनकी हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है। हाल के वर्षों में सरकारी बैंकों में अंशधारक की संपत्ति का नुकसान दर्शाता है कि ये बैंक राह भटक गए हैं। उदाहरण के लिए एयू स्मॉल फाइनैंस बैंक जिसे सूचीबद्घ हुए तीन साल से भी कम वक्त हुआ है, वह बाजार पूंजीकरण में पंजाब नैशनल बैंक (पीएनबी) को पीछे छोड़ चुका है। जबकि परिसंपत्ति खाते और कुल जमा के मामले में पीएनबी उससे बहुत आगे है। बैंक ऑफ बड़ौदा का बाजार पूंजीकरण भी कमोबेश उतना ही है जितना कि एयू स्मॉल फाइनैंस बैंक का।

सरकारी बैंकों के सुधार के लिए अभी नहीं या कभी नहीं जैसे हालात बन गए हैं। जिन सुधारों को अंजाम देना जरूरी है उनमें स्वामित्व ढांचा और वरिष्ठ प्रबंधन के वेतन भत्ते शामिल हैं। लक्ष्य यह होना चाहिए कि बैंको को सरकारी स्वामित्व से मुक्त किया जाए। इसमें कम वेतन, राजनीतिक हस्तक्षेप और जांच एजेंसियों के शिकंजे की आशंका शामिल है। सरकार को इन बैंकों के स्वामित्व को एक होल्डिंग कंपनी में विभाजित करना चाहिए जिसके बोर्ड द्वारा अलग-अलग बैंकों के बोर्ड की नियुक्ति करनी चाहिए।

होल्डिंग कंपनी अपनी पूंजी का इस्तेमाल इन बैंकों के पूंजीकरण के लिए कर सकती है। उसे इन बैंकों की निर्णय प्रक्रिया राजनेताओं और नौकरशाहों से बचाना चाहिए। उसे एक ऐसा वेतन ढांचा तैयार करना चाहिए जो बैंकरों को प्रदर्शन के आधार पर पुरस्कृत करे। इसे परिसंपत्ति के प्रदर्शन से जोड़ा जाना चाहिए। पीजे नायक समिति ने आवश्यक सुधारों का क्रम और तरीका सुझाया है। बहरहाल, सरकार ने उक्त अनुशंसाओं की पृष्ठभूमि को समझने का प्रयास किए बिना ही प्रावधानों का इस्तेमाल करना तय किया है।


Date:05-03-20

वैश्विक व्यापार जगत को कितना प्रभावित करेगा कोरोनावायरस

मिहिर शर्मा

क्या भविष्य के आर्थिक इतिहासकार वर्ष 2020 के शुरुआती महीनों पर इस तरह नजर डालेंगे कि यही वह अवधि थी जब वैश्वीकरण की लहर के पिछडऩे की शुरुआत हुई? पिछले एक दशक के दौरान दुनिया भर के लोकप्रिय नेताओं की बातों और इस दौरान आए तकनीकी बदलाव ने निश्चित तौर पर यह बताया कि वैश्वीकरण पहले की तरह कारगर नहीं रहा। हाल के वर्षों में विश्व व्यापार घटा है लेकिन इस संबंध में शोर शराबा हकीकत से ज्यादा हुआ है। कई जगह शुल्क बढ़ाए जाने के बावजूद वैश्विक आपूर्ति शृंखला का पुनर्गठन नहीं हुआ है। कुछ कंपनियों ने चीन से दूरी बनाई है लेकिन मोटे तौर पर सब पहले जैसा है।

प्रश्न यह है कि क्या वुहान से फैला कोरोनावायरस सबकुछ बदल देगा। मनुष्यों पर इसका क्या और कितना असर होगा यह बताना मुश्किल है। सन 2009 के स्वाइन फ्लू की तरह यह दुनिया भर में हजारों लोगों की मौत का कारण भी बन सकता है या फिर हालात इससे खतरनाक भी हो सकते हैं। इससे आधी सदी पहले हॉन्गकॉन्ग फ्लू (हालांकि यह चीन से पनपा था) की तरह बहुत बड़ी तादाद में मौतें भी हो सकती हैं। हालांकि जानकारों के मुताबिक आने वाले समय में यह बीमारी इतनी खतरनाक नहीं रह जाएगी और लोगों में इसके प्रति प्रतिरक्षा तैयार हो जाएगी।

ऐसे में कोरोनावायरस का सबसे बड़ा प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर हो सकता है क्योंकि वह चीन पर बहुत ज्यादा निर्भर है। चीन की अर्थव्यवस्था पर इसका स्पष्ट असर है। आधिकारिक आंकड़ों पर तो हमेशा सवाल उठाया जा सकता है लेकिन नासा और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी द्वारा ली गई तस्वीरें भी चीन के औद्योगिक तथा अन्य प्रमुख इलाकों में पिछले आठ सप्ताह के दौरान नाइट्रोजन ऑक्साइड जैसे प्रदूषक तत्त्वों की मात्रा कम होने की गवाही देती हैं। लगभग इसी अवधि में यह वायरस वुहान से पूरे चीन में फैला। इससे करीब 2,500 लोगों की मौत हो गई।

आठ से 10 सप्ताह का समय बहुत मायने रखता है। चीन की अधिकांश कंपनियों और फैक्टरियों ने 25 जनवरी को आरंभ चीनी नव वर्ष के पहले उत्पादन बंद कर दिया था। उस समय निकले शिपमेंट अब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में पहुंच रहे होंगे। बंदरगाहों पर आवक पहले ही 20-30 फीसदी कम हो चुकी है। कंपनियों के पास आमतौर पर दो सप्ताह से एक महीने तक की इन्वेंटरी रहती है हालांकि चीन में अवकाश को देखते हुए जनवरी में ही भंडार एकत्रित कर लिया गया होगा। बहरहाल, जब तक मालवहन सहज नहीं होता, दुनिया भर की कंपनियों को कच्चे माल की कमी का सामना करना होगा।

कार कंपनियां तो यह असर महसूस भी करने लगी हैं। याद रहे जो कंपनियां प्रत्यक्ष तौर पर चीन से नहीं जुड़ी हैं वे भी प्रभावित हो रही हैं। इसलिए क्योंकि उनके आपूर्तिकर्ता चीन के कच्चे माल पर निर्भर हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में आपूर्ति शृंखलाओं पर क्या असर होगा? कहने का अर्थ यह कि दुनिया के एक विशेष हिस्से में चिकित्सा आपदा के चलते तमाम कंपनियों का काम प्रभावित हो सकता है। सन 2002 में सार्स आपदा के बाद चीन दुनिया की फैक्टरी में तब्दील हो गया। ज्यादातर देशों को अनुमान तक नहीं है कि वे चीन पर किस कदर निर्भर हैं।

यहां तथ्य यह है कि अस्थिरता का ऐसी स्वास्थ्य आपात स्थिति से कोई संंबंध नहीं। अधिनायकवादी शासन व्यवस्था हमेशा भंगुर होती है। राजनीतिक अस्थिरता कभी भी सर उठा सकती है। चीन हाल के वर्षों में पुरानी अधिनायकवादी प्रणाली के शासन वाला रहा है। चीन ने मौजूदा नेतृत्व के पहले सामूहिक और कम अधिनायकवादी शासन का मॉडल क्यों अपनाया था, इसे समझने के लिए हमें चीन के अस्थिरतापूर्ण राजनीतिक इतिहास को ध्यान में रखना होगा। राजनीतिक अस्थिरता के कारण चीन की मुख्यभूमि की आर्थिक गतिविधियों और आपूर्ति में आया धीमापन एक बात है, राजनीतिक कारणों से ऐसा संभव है। उदाहरण के लिए सैन्य तनाव में इजाफा होने की स्थिति में यह कल्पना करना भी असंभव है कि शेष विश्व चीन की फैक्टरियों पर उसी तरह निर्भर रहेगा जैसे अभी है।

सन 2000 से बनी आपूर्ति शृंखला लागत कम करने और किफायत बढ़ाने में कामयाब रही है। इस मामले में दुनिया को जल्दी ही पता चल सकता है कि चीन की मुख्यभूमि के उत्पादन पर निर्भरता उसकी निर्भरता कितनी है और यह भी कि संकट के समय उसके पास बहुत सीमित विकल्प हैं। यही कारण है कि काफी संभव है कि जब तक चीन किसी तरह सुधार नहीं कर लेता है, वैश्वीकरण के इतिहासकार इस मौके को बड़े बदलाव वाले घटनाक्रम के रूप में देखेंगे। हो सकता है मुनाफा कमाने वाली कंपनियों के नजरिये से और स्थानीय स्थिरता सुनिश्चित करने वाले नीति निर्माताओं की दृष्टि से कोई विकल्प न हो। परंतु क्या यह बात वैश्वीकरण के गणित को बदलने की हैसियत रखती है। जबकि उससे अपेक्षा की जाती है कि वह लागत को न्यूनतम करने और किफायत बढ़ाने का प्रयास करे।

सच तो यही है कि कुछ विनिर्माण इकाइयों का चीन से विस्थापन इसलिए लंबित रहा क्योंकि किफायत का अभाव था और काफी राशि गंवाई जा चुकी थी। पर्ल रिवर डेल्टा और अन्य स्थानों पर बुनियादी ढांचे की कमी और ये दिक्कतें इतनी ज्यादा हैं कि क्लाइंट ने लागत में अहम इजाफे को बरदाश्त करना उचित समझा, बजाय कि अपनी आपूर्ति शृंखला को छेड़कर जोखिम पैदा करने के। अब उन्हें यह पता चल चुका है कि ऐसी उथलपुथल जीवन की हकीकत है। बल्कि जब यह उथलपुथल निर्भरता के साथ जुड़ जाए तो इसका प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है। सवाल यह है कि आगे चलकर यह निर्णय प्रक्रिया में किस हद तक बदलाव लाएगा। यदि चीन की फैक्टरियों में जल्दी ही पूरी क्षमता से काम शुरू नहीं हुआ तो काफी संभव है कि हमें अनुमान से बड़ा बदलाव देखने को मिले।


Date:05-03-20

बड़े पैमाने पर परोपकार हो नियमन से मुक्त

भारत को बहुत बड़े पैमाने पर परोपकार की आवश्यकता है। आज देश के अमीर तबके के लोगों के पास ऐसा करने की पूरी गुंजाइश है। इस संबंध में जानकारी प्रदान कर रहे हैं

श्यामल मजूमदार

बताया जाता है कि आय कर विभाग ऐसे प्रावधानों पर जोर दे रहा है जिनके तहत सन 1973 के पहले कंपनियों में हिस्सेदारी रखने वाले परोपकारी संस्थानों को अपना ऐसा निवेश समेटना होगा। यह कदम इसलिए उठाया जा रहा है क्योंकि कई हलकों में मान्यता है कि परोपकारी न्यास को अपने कर छूट के दर्जे का दुरुपयोग कंपनियों को नियंत्रित करने के लिए नहीं करना चाहिए। परंतु यह गलत संदर्भ है। सवाल दरअसल यह होना चाहिए कि क्या अंशधारिता का मसला, इसका दायरा और फर्म के ऊपर नियंत्रण अथवा इन संस्थानों का उद्देश्य और इनका प्रदर्शन ऐसे नियंत्रण को प्रदर्शित करता है?

पूरा ध्यान और विधि निर्माण में इस बात पर दिया जाना चाहिए कि नियंत्रण का किस हद तक इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या यह पूरी तरह स्वामित्व संस्था के लाभ के लिए है या फिर संगठन के समग्र कारोबारी लक्ष्य के लिए तथा समस्त संबद्घ अंशधारकों की समृद्घि के लिए? जरा अंशधारिता के रुझान पर विचार कीजिए। भारत में कई ऐसी कंपनियां हैं जिनकी अंशधारिता का आधार विविधतापूर्ण है। उदाहरण के लिए एलऐंडटी। दूसरी ओर परिवार द्वारा चलाई जाने वाली कंपनियां भी हैं, मसलन टाटा संस। इन कंपनियों में बहुलांश स्वामित्व टाटा न्यास समूह का है और इसकी प्रमुख अंशधारिता वाली कंपनी है टाटा समूह। तीसरा प्रकार विदेशी कंपनी के नियंत्रण वाली अनुषंगी कंपनी का है, मसलन हिंदुस्तान यूनिलीवर। इन कंपनियों का प्रदर्शन और उद्देश्य यह नहीं दर्शाता कि कोई भी एक वर्ग इन संदर्भों में श्रेष्ठ या कमतर है।

इसी तरह कई कंपनियां जिनमें तमाम तरह की अंशधारिता के रुझान रहते हैं, वे अच्छी तरह चल रही हैं। इनमें वे कंपनियां भी शामिल हैं जहां परोपकारी संस्थान अपनी अंशधारिता के प्रभाव से अहम भूमिका रखते हैं। वास्तव में सरकार को समान कार्य परिस्थितियां प्रदान करने के बारे में विचार करना चाहिए। इसके लिए वह सन 1973 से पहले का दर्जा बहाल कर सकती है। उसके अधीन फाउंडेशन आय कर रियायत के साथ हिस्सेदारी रख सकते और अन्य फाउंडेशन भी टाटा और बिड़ला न्यास के समकक्ष हो पाते।

एक के बाद एक सरकारों ने यह इच्छा प्रकट की है कि कंपनियों को सामाजिक विकास योगदान की लागत को आक्रामक तरीके से साझा करना चाहिए। दरअसल कंपनियों द्वारा अपने मुनाफे का दो फीसदी हिस्सा कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व पर व्यय करना वांछित है। भारत को बहुत बड़े पैमाने पर परोपकार की आवश्यकता है। आज देश के अमीर तबके के लोगों के पास ऐसा करने की पूरी गुंजाइश है। उदाहरण के लिए अमेरिका में परोपकारी दान उसके जीडीपी का करीब दो फीसदी है। यदि भारत का कारोबारी जगत इसे अपनाता है तो यह राशि करीब 60 अरब डॉलर तक होगी।

अन्य स्थानों की तरह भारतीय उद्यमी जगत भी अपनी संपत्ति की बहुत बड़ी हिस्सेदारी अन्य कंपनियों के शेयरों में निवेश करता है। प्रवर्तकों को अपनी हिस्सेदारी का बड़ा हिस्सा परोपकार में दान करने की इजाजत देकर और ऐसे परोपकारी संस्थानों को आय कर में रियायत प्रदान करने से सरकार को संपत्ति को सामाजिक कार्यों में स्थानांतरित करने के लक्ष्य को हासिल करने में सहायता मिलेगी। टाटा और बिड़ला की तरह दुनिया के कुछ जानेमाने संगठन मसलन हाइनकेन, आइकिया, रॉबर्ट बॉस्क, काल्र्सबर्ग आदि का स्वामित्व भी फाउंडेशनों के पास है। वालेनबर्ग फाउंडेशन प्रत्यक्ष रूप से या निवेश फर्म के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से एबीबी, ऐस्ट्राजेनेका और एटलस कोपको आदि का स्वामित्व रखता है।

यह विचार कि परोपकारी संस्थान कारोबार नहीं चला सकते, उस आकांक्षा के विपरीत है जिसके तहत कारोबारों को अधिकाधिक परोपकारी बनाने की बात कही जाती है। यह बात हमें भारत में सन 1970 के दशक के विचारों की ओर ले जाती है। आज यह बात पूरी तरह साबित हो चुकी है कि यह एक अतीतगामी कदम था। फाउंडेशनों को बिना आय कर रियायत गंवाए हिस्सेदारी रखने का निर्णय भी ऐसा ही एक निर्णय था। कारोबार में अविश्वास के चलते सरकार ने सन 1969 में एकाधिकार एवं प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम लागू किया और उसके बाद सन 1973 में विदेशी विनिमय नियमन अधिनियम भी। आखिरकार इनके चलते सन 1991 का संकट सामने आया और विनियमन हुआ।

परंतु उस सकल अविश्वास ने कुछ हद तक विश्वास के लिए भी राह तैयार की। यानी अब वक्त आ गया है कि बड़े पैमाने पर होने वाली परोपकारिता को भी तिलांजलि दे दी जाए। सरकार सन 1973 के बाद के समय से भी सबक सीख सकती है। जब आईबीएम और कोक बाहर निकले, यूनीलीवर ने सरकार से इस विषय पर वार्ता शुरू की कि वह 51 फीसदी अंशधारिता को विराम बिंदु बना दे। उसने कहा कि ऐसा इस शर्त पर किया जाएग कि ऐसे बहुराष्ट्रीय निगम पिछड़े इलाकों के विकास के लिए तथा उच्च तकनीक वाले क्षेत्रों में काम करेंगे।

जनता पार्टी सरकार ने शायद इसकी इजाजत भी दे दी होती (स्वर्गीय जॉर्ज फर्नांडिस उस सरकार में उद्योग मंत्री थे) लेकिन वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। आखिरकार उसके बाद सत्ता में आई इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस प्रस्ताव को मंजूरी दी। ‘उदारीकरण’ शब्द का सबसे पहला इस्तेमाल उनकी सरकार के उद्योग मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने किया था। कहने का तात्पर्य यह कि शायद मसला नियंत्रण के स्वरूप का नहीं बल्कि परिणामों की वास्तविकता का है। अगर हम टाटा ट्रस्ट का उदाहरण लें तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि टाटा संस में अपनी भागीदारी की मदद से उन्होंने कई नए कारोबार स्थापित करने में सहायता की। टाटा संस की अंशधारिता में ट्रस्ट की हिस्सेदारी दो तिहाई है। यानी यह संपत्ति सामाजिक उद्देेश्यों के लिए वर्गीकृत परिसंपत्ति समर्थन से एकत्रित हुई। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जो चीज टूटी ही नहीं है, उसे ठीक करने की कोशिश ही क्यों करनी ?


Date:04-03-20

अशांति का समझौता

संपादकीय

कतर की राजधानी दोहा में पिछले शनिवार को जब अमेरिका और तालिबान ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, तब लगा था कि लंबे समय से हिंसा की आग में झुलस रहे इस मुल्क के दिन अब फिरने वाले हैं और लोग अमन-चैन से रह पाएंगे। शांति समझौते के पहले तालिबान ने एक हफ्ते के लिए आंशिक संघर्ष विराम की बात भी कही थी। लेकिन सोमवार को जैसे ही इसकी अवधि खत्म हुई, तालिबान ने असली चेहरा दिखा दिया। पूर्वी अफगानिस्तान के खोस्त प्रांत में एक फुटबॉल मैच के दौरान बम विस्फोट में तीन लोग मारे गए और कई जख्मी हो गए। हालांकि हमले की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली, लेकिन किसने किया होगा, यह भी किसी से छिपा नहीं है। जाहिर है, तालिबान ने अपना रुख साफ कर दिया है। इसलिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि तालिबान के लिए इस शांति समझौते का मतलब क्या रह गया! क्या उसके लिए यह समझौता सिर्फ अफगानिस्तान की सत्ता में भागीदारी के लिए रास्ता बनाने और अमेरिकी सेना की वापसी जैसी शर्तों तक ही सीमित है? जिस तरह के हालात नजर आ रहे हैं, वे इस बात के संकेत हैं कि यह समझौता अफगानिस्तान के लिए नई मुश्किलें खड़ी करने वाला है। समझौते में अमेरिका ने तालिबान को जिस तरह की शर्तों से बांधा है, वे इस करार को समस्या के समाधान की दिशा में कितना ले जा पाएंगी, इसमें अब किसी को संदेह नहीं रह गया है। तालिबान की सबसे बड़ी और पुरानी मांग अमेरिकी फौज और नाटो सेना की वापसी की थी, जो मान ली गई और इसके मुताबिक चौदह महीने में अफगानिस्तान से सभी विदेशी सैनिक लौट जाएंगे। तब मैदान में सिर्फ अफगानिस्तान की सरकारी फौज और तालिबान बचेंगे। अमेरिका ने तालिबान को अलकायदा से संबंध तोड़ने, अफगानिस्तान की जमीन से किसी भी विदेशी आंतकी गुट को उसके खिलाफ काम न करने देने जैसी कड़ी शर्तों से बांधा है। सवाल है कि तालिबान अमेरिका के सामने कितना झुकेगा? तालिबान का इतिहास बताता है कि विचारधारा से लेकर व्यवहार तक में वह कितना कट्टर और हिंसक है। अगर तालिबान सत्ता में आ जाता है तो अफगानिस्तान को फिर से आदिम युग आने में देर नहीं लगेगी। शांति समझौता हुआ तो मुख्य रूप से दो पक्षों अमेरिका और तालिबान के बीच है। लेकिन अफगानिस्तान सरकार की इसमें जो भूमिका होनी चाहिए थी, उसे अमेरिका ने नजरअंदाज कर नए संकट को जन्म दे डाला है। समझौते में अफगानिस्तान की सरकारी जेलों में बंद पांच हजार तालिबान कैदियों की रिहाई बात कही गई है। यह एक ऐसा पेंच है जो शांति समझौते पर सवालिया निशान खड़ा करता है और समझौता खटाई में पड़ने का एकमात्र बड़ा कारण बनेगा। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने साफ शब्दों में न सिर्फ तालिबान कैदियों की रिहाई से साफ मना कर दिया है, बल्कि सवाल उठाया है कि अमेरिका इसका फैसला कैसे कर सकता है, यह उसके क्षेत्राधिकार से बाहर है। दूसरी ओर तालिबान ने भी चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि वह अपनी सैन्य गतिविधियां बंद नहीं करेगा। अफगान राष्ट्रपति का सख्त रुख और तालिबान का रवैया बता रहा है कि आने वाले दिनों में इस तरह का टकराव और बढ़ेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में चेतावनी दी है कि अगर तालिबान ने समझौते का पालन नहीं किया तो अमेरिका अफगानिस्तान में इतनी फौज भेजेगा जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। ऐसी धमकियों और चेतावनियों से क्या यह नहीं लगता कि शांति समझौता अफगानिस्तान को नए संघर्ष में झोंकने का करार है!


Date:04-03-20

Educate and empower

Because when you educate a girl, you educate a nation

Ramesh Pokhriyal Nishank , [The writer is Union minister of Human Resource Development.]

Since times immemorial, women in India have been regarded with the utmost respect and accorded prestige. For a nation to progress, it is essential to empower women. I am glad that India has been blessed with women pioneers who have broken the shackles of gender stereotypes in every field.As Prime Minister Narendra Modi said on the launch of the expanded Beti Bachao Beti Padhao (March 8, 2018): “Daughters are not a burden but the pride of the whole family. We realise the power of our daughters when we see a woman fighter pilot. The country feels proud whenever our daughters bag gold medals, or for that matter any medal, in the Olympics.”As a father of three daughters, I understand the struggle our daughters face in fighting gender stereotypes and biases. But with their determination they are able to sail on the ship of success. I feel proud to cheer my daughters’ triumphs towards equality. Arushi, my eldest daughter, has defied all odds and is now an Indian classical dancer, entrepreneur and film producer. I couldn’t have been more proud when Shreyasi continued the military tradition of Uttarakhand and joined the Army Medical Corps. Vidushi, the youngest of the three, wants to bring a change in society and is a gold medalist in law.Allied to the march towards equality with our sisters and daughters of the country, let us understand the theme of Women’s Day: “I am Generation Equality: Realising Women’s Rights.” The year 2020 has been earmarked as a crucial year by UN Women to assess progress made globally to achieve gender equality and human rights for all women and girls since the adoption of the Beijing Platform for Action.

On this occasion, it is important for me to reflect on how successful the Ministry of Human Resource Development (MHRD) under the leadership of PM Modi has been in providing equal opportunities. It is heartening that due to the Swachh Bharat Mission, 14,67,679 schools now have a functioning girls toilet, an increase of 4.17 percentage points in comparison to 2013-14. The impact of the mission has resulted in an increase in enrolment of girls by 25 percentage points in 2018-19 from 2013 -14.In her budget speech, Finance Minister Nirmala Sitharaman applauded the results of Beti Bachao Beti Padhao: “Gross enrolment ratio of girls across all levels of education is now higher than boys. At the elementary level it is 94.32 per cent as against 89.28 per cent for boys, at the secondary level it is 81.32 per cent as compared to 78 per cent and at the higher secondary level girls have achieved a level of 59.7 per cent compared to only 57.54 per cent.”

To increase equality of access and opportunity for girls, the MHRD has sanctioned 5,930 Kasturba Gandhi Balika Vidyalayas, which are residential schools for girls and have an enrolment of 6.18 lakh girls. An incentive amount of Rs 8.56 crore to the 28,547 beneficiaries has been sanctioned under the National Scheme of Incentives to Girls for Secondary Education. The scheme provides Rs 3,000 which is deposited in the name of eligible unmarried girls below 16 years of age and entitles them to withdraw it along with interest on reaching 18 years of age and after passing Class X.

Apart from an increase in the gross enrollment rate of the girl child in schools, the educational outcomes and achievements have also improved. I must also express my happiness and pride that girls have performed better than boys in the CBSE Class XII examinations in 2018 -19.

To increase the participation of women in STEM education, supernumerary seats have been created in the IITs and NITs. As a result, the number of girls in NITs has grown from 14.11 per cent in 201718 to 17.53 per cent in 2019-20 and in IITs from 8 per cent of the total student body in 2016 to 18 per cent in 2019-20 for B.Tech programmes.

In conjunction with the celebration of progress obtained by India in improving gender equality in the education system, there is a need for a much larger collective effort to achieve the Sustainable Development Goal of eliminating “gender disparities in education and ensure equal access to all levels of education and vocational training for the vulnerable, including persons with disabilities, indigenous peoples and children in vulnerable situations”.It is said when you educate a girl child, you educate an entire family. Let us all work together for the educational empowerment of all our girls and work towards making a New India.


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