09-01-2020 (Important News Clippings)
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The Reforms We Need
These Budget and other moves will bring the economy back on track
Arvind Panagariya
First and foremost, there have been calls from many quarters that in view of the slowdown in growth, India should allow fiscal deficit to rise 1 percentage point or more. This is imprudent advice. Fiscal consolidation has been a major accomplishment of the present government. Moreover, it is not as if we have a surplus or even balanced budget currently.
Quite the contrary, once we add up fiscal deficits of the Centre and states and off budget borrowing, public sector deficit turns out to be as high as 8% of GDP. This figure comes close to financial savings of households. Raising fiscal deficit further will not only undo a major accomplishment of the Modi government, it will also end up dipping into corporate savings depriving the economy of sufficient private investment. So my first recommendation is that the FM must hold the line on fiscal deficit.
Next, it is time to re-examine the inflation target. For a fast-growing economy, the target of 4% plus-minus 2%, which the Monetary Policy Committee (MPC) views as 4% or less, leaves too little room for relative prices to adjust in view of greater rigidity of nominal prices in the downward rather than upward direction. Even during 2003-04 to 2011-12, when the economy grew the fastest, inflation was 2 to 3 percentage points higher than during the first five years of the Modi government. A 2% higher inflation than currently will also help boost tax revenues on the one hand and lower the real lending rates on the other.
The FM has already taken the bold step of cutting the corporate profit tax rate (excluding cess and surcharges) to 15% for new manufacturing companies and 22% for all other companies provided the companies forego all exemptions available. A similar reform must also be delivered now for personal income tax. Budget 2020-21 must commit to cutting the top personal income tax rate to 22% (excluding surcharges and cess) within three years for those opting to forgo all exemptions. It should deliver a 3% cut upfront while committing to 2.5% cuts in each of the following two years. Approximately similar rollback should also be applied to the middle tax bracket.
Ending the exemption raj will go a long way towards improving efficiency of the tax system and attacking corruption in tax collection. In the long run, any revenue loss due to cuts in the tax rates will be made up by reduced evasion and improved growth outcomes. In the short run, the losses will be made up through other measures recommended in this article.
Now that the implementation process for privatisation of public sector enterprises is in place and more than two dozen PSEs have the approval of the Cabinet, the government must launch a major privatisation programme in the year 2020-21. There is simply no rationale for the government to operate commercial enterprises that serve no public purpose. The government must also monetise on a larger scale assets such as roads, airports, seaports and transmission grids through the instrumentality of toll-operate-transfer or TOT model. Both privatisation and asset monetisation will enhance efficiency while also bringing the government much needed revenues.
The government can no longer continue business as usual as far as public sector banks (PSBs) are concerned. As we come out of the NPA crisis, we must address the issue of their governance head on. Though numerous committee reports exist, this discussion requires urgent renewal through the appointment of an expert committee that must report back within three months. The terms of reference of this committee should include consideration of privatisation of at least a subset of PSBs as a solution to the governance of PSBs.
To address jobs and growth concerns directly, the budget speech must carry a special section on measures relating to labour intensive sectors such as apparel, footwear, furniture, kitchenware and numerous other light manufactures. There should be a clear commitment to reimbursing all indirect taxes paid along the value chain by exporters in these sectors, as permitted by the World Trade Organization rules. Unnecessary permissions exporters require from different ministries must be ended. Movement of goods into and out of India at ports must be speeded up.
Labour and land laws remain major bottlenecks. I have argued in the past that without the emergence of many more medium and large firms in labour intensive sectors, which requires land and labour law reforms, we cannot address the problem of creating good jobs for those with limited or no skills. And without such job creation, we cannot provide a pathway to a good life to the vast majority of 44% of our workforce employed in agriculture and another 42% in enterprises of less than 20 workers.
While politics holds back genuine countrywide reforms, the government may at least begin experimenting with liberal land and labour law regimes within two or three Special Employment Zones. The cost of such an experiment is minimal and should it succeed, potential benefits would be plentiful.
सवाल युद्ध के भय का नहीं मानव सोच के पतन का है
संपादकीय
1973 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने कहा था, ‘मैं अपने कार्यालय जाकर केवल एक फोन उठाऊंगा और अगले 25 मिनट में सात करोड़ लोग मर चुके होंगे।’ करीब 47 साल बाद वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने ट्वीट किया है, ‘अमेरिका ने हाल ही में दो ट्रिलियन डॉलर (भारत के आठ साल के बजट के बराबर) खर्च कर दुनिया के बेहतरीन हथियार लिए हैं और अगर ईरान कोई दुस्साहस करता है तो कुछ ब्रांड न्यू और खूबसूरत हथियार बिना किसी हिचक के भेज देंगे।’
आज कोई एक ट्रम्प विश्व-शांति को खतरे में डालने जा रहा है। भारत में डर से सेंसेक्स एक दिन में करीब 800 पॉइंट गिर जाता है। हजारों साल पहले हम जंगल से निकले, मैदान में खेती की, जानवर की सवारी से सुपरसोनिक जहाज तक आए, शिक्षा ली, नैतिक मूल्यों और धर्म की स्थापना की, समाज-व्यवस्था के लिए कानून और राज्य बनाया। ऐसा लगा कि समय के साथ केवल मानव ही एक ऐसा प्राणी है, जो दुनिया का वर्तमान ही नहीं, भविष्य भी बेहतर बनाता है।
समाजशास्त्र मानता है कि इसी योग्यता के कारण हम वापस आदिम सभ्यता की ओर नहीं जाएंगे, क्योंकि हमने बेंजामिन फ्रेंक्लिन पैदा किया, जिन्होंने बिजली का आविष्कार किया और हमने गांधी पैदा किया, जिन्होंने विश्व शांति में अहिंसा की एक नई सीख दी।
लेकिन, 25 वर्ष के ही अंतराल के बाद हम दो विश्व युद्धों में कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगे और फिर एक संयुक्त राष्ट्र संघ बनाया जो दो देशों या देश समूहों के बीच विवाद सुलझता है, दुनिया में विकास करता है और मानव ही नहीं जीवमात्र के कल्याण के लिए काम करता है।
लेकिन, अब यह संस्था भी बांझ दिखाई दे रही है। आज दुनिया जिस स्थिति में है, उससे लगता है कि उत्तरोत्तर बेहतरी की सोच के साथ मनुष्य बर्बादी के तत्व भी बोता जाता है। यानी या तो जिसे हम बेहतरी कह रहे हैं, वह गलत है या फिर हमने उसके साथ अपरिहार्य रूप से विद्यमान बर्बादी के बीज को निकालने के प्रभावी संस्थागत इंतजाम नहीं किए हैं।
वरना कोई निक्सन 25 मिनट में करोड़ लोगों को मारने का अहंकार कैसे पालता या कोई ट्रम्प आज किसी देश में नरसंहार के लिए ब्रांड न्यू बर्बादी के खिलौने भेजने का घटिया ट्वीट करने की हिमाकत कैसे करता? आज मानव विकास की परिभाषा बदलनी होगी, ताकि कोई एक व्यक्ति 700 करोड़ की दुनिया के लिए खतरा न बने।
Date:09-01-20
पूरे देश में लागू नहीं हो पाएगी एनआरसी
कपिल सिब्बल , (मशहूर वकील और वरिष्ठ कांग्रेस नेता)
2014 में सत्ता में आने के बाद से ही भाजपा ने देश की प्रकृति को बदलने की कोशिश की है। 2019 की मजबूत जीत से इस प्रक्रिया ने गति पकड़ ली है। लोकसभा में स्पष्ट बहुमत और राज्यसभा में संख्या बल को अपने पक्ष में करने की क्षमता से उसे लग रहा है कि अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे ले जाने का यह उसके पास ऐतिहासिक मौका है। भाजपा ने 2014 से देश को ध्रुवीकृत कर अच्छी चुनावी सफलताएं हासिल की हैं।उसको लगता है कि उसका विभाजनकारी एजेंडा उसके चुनावी उद्देश्यों को पूरा करता रहेगा। असम में एनआरसी को सुप्रीम कोर्ट ने शुरू कराया था, लेकिन उसे सरकार की ओर से पूरा व उत्साहजनक समर्थन मिला था। उसको लगता था कि इससे वह 25 मार्च, 1975 (असम समझौते के मुताबिक तय कटऑफ तिथि) के बाद भारत आए मुस्लिम बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान कर सकेगी।यद्यपि, भाजपा कई सालों से कहती थी कि बांग्लादेश से आए करोड़ों मुस्लिम घुसपैठियों की वजह से देश की सुरक्षा खतरे में पड़ गई है, लेकिन एनआरसी के बाद ऐसे लोगों की संख्या सिर्फ 19 लाख ही निकली। इनमें भी कई लाख हिंदू हैं।
नागरिकता संशोधन बिल, 2019 (सीएए) ऐसे ही गैर-मुस्लिम अवैध अप्रवासियों को, इस आधार पर कि वे भारत में सिर्फ इसलिए दाखिल हुए, क्योंकि उन्हें वहां धार्मिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा था, नागरिकता देकर उन्हें वैधनिकता का चोला पहनाने के उद्देश्य से लाया गया है। हालांकि, सीमा पार करके आने वाले मुस्लिमों पर अवैध का ठप्पा लगा रहेगा।अगर सीसीए को बाकी देश में भी लागू किया गया तो, यह मुस्लिमों और ऐसे सभी लोगों को बाहर कर देगा, जिनके पास प्रासंगिक दस्तावेज नहीं हैं, जैसा कि असम में हिंदुओं के साथ हुआ। इसने आम लोगों, विशेषकर मुस्लिमों के मन में डर भर दिया, क्योंकि एक नागरिक के रूप में उनका अस्तित्व खतरे में पड़ सकता था।असुरक्षा की आम भावना की वजह से देश में ऐसा विरोध हुआ, जैसा हाल के कई वर्षों में नहीं देखा गया था। जिस तरह से सत्ता पक्ष की ओर से विद्यार्थियों को निशाना बनाया गया, उसने विरोध को और गति दे दी। जब तक सरकार सीएए वापस नहीं लेती, प्रदर्शन जारी रह सकते हैं। पूरे देश में एनआरसी, किसी भी हालत में लागू होती नहीं दिख रही है।भाजपा के सहयोगी और राज्यों में सत्तासीन उनके राजनीतिक विरोधी सार्वजनिक रूप से इस कदम का विरोध कर चुके हैं। देश के मूड को भांपते हुए खुद प्रधानमंत्री भी इस कदम से दूरी बना रहे हैं। भाजपा द्वारा इसे आगे बढ़ाने की कोई भी कोशिश 2020 में एक विवादास्पद राष्ट्रीय मुद्दा बन सकता है।मैं केवल उम्मीद कर सकता हूं कि नए साल में कश्मीर से हमें कोई चिंताजनक समाचार न मिले। सुरक्षा बलों की भारी मौजूदगी और सूचना के स्वतंत्र प्रवाह पर लगी रोक की वजह से घाटी में भीतर ही भीतर सुलग रही नाराजगी का अभी तक प्रकटीकरण नहीं हुआ है। कश्मीर के नेता अब भी सरकारी हिरासत में हैं।इस पर न्यायालय में सवाल भी उठाए जा सकते हैं। इससे वे मुद्दे भी जिंदा हो सकते हैं जो अभी तक अनेक कारणों से निष्क्रिय पड़े हैं। कोर्ट के आदेश पर या किसी और वजह से इन नेताओं की रिहाई पर ही कश्मीर में भविष्य की घटनाओं का दारोमदार होगा। इन हालात में अभी इस बात की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि 2020 में कश्मीर में असल में क्या हो सकता है?
एक देश, एक धर्म, एक भाषा का हिंदुत्ववादी एजेंडा भारत जैसे सांस्कृतिक और भाषायी आधार पर विविधता वाले देश में लागू करना कठिन है। भारत को तो उसकी विविधता को ही स्वीकार करने की मानसिकता की जरूरत है। मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान ऐसे लोगों पर अपनी विचारधारा को थोपना चाहता है, जिनके अपने अस्तित्व से जुड़े मुद्दों के प्रति अधिक चिंता महत्वपूर्ण है।विचारधारा से न तो उनका पेट ही भरने जा रहा है और न ही इससे उनकी प्यास बुझने वाली है। विचारधाराएं पत्थरों में ढाली जाती हैं, चाहे वे किसी भी किस्म की क्यों न हों, ये हमेशा ही पीछे ले जाने वाली होती हैं। इनमें नियंत्रण करने व दबाव डालने की प्रवृत्ति होती है।
चिंता इस बात की है कि सरकार के नुमाइंदों के इशारों पर हो रही हिंसा अगर नियंत्रण से बाहर हो गई तो यह हमारे गणतंत्र की नींव को कमजोर कर देगी। जामिया के बाद रविवार रात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि सरकार के खिलाफ किसी भी तरह के विरोध का प्रदर्शन करने वालों का मुंह बंद करने व उनमें डर पैदा करने की कोशिश हो रही है।इस हिंसा का सबसे खराब पहलू यह है कि जिन लोगों पर शांति कायम करने की जिम्मेदारी है, वे या तो इसे बिगाड़ने में सक्रिय रूप से शामिल हैं या फिर हिंसा को मूकदर्शक बनकर देख रहे हैं। बहुत ही कम लोकतंत्रों में विरोध के अपने अधिकार का इस्तेमाल कर रहे लोगों पर पुलिस को गोली चलाने की छूट होती है।जब विद्यार्थियों और शिक्षकों पर हमले का इरादा लेकर नकाब पहने लोगों को यूनिवर्सिटी परिसर में घुसने की अनुमति मिल जाती है और कुलपति इस पर आंख मूंदे रहते हैं, पुलिस इसमें दखल नहीं देती, तब यह सभी लोकतांत्रिक मूल्यों के पतन के गवाह होते हैं। जब पुलिस पर झूठी मुठभेड़ का आरोप लगता है और सरकार पीड़ित को ही दबाती है तो यह एक दुष्क्रियाशील सरकार का प्रमाण है।यह तभी हो सकता है जब पुलिस सरकार से मिलकर उसकी विचारधारा के मुताबिक परिणाम लाना चाहती है। कानून व्यवस्था को कायम किए बिना कोई भी देश फल-फूल नहीं सकता। नागरिकों की सुरक्षा किसी भी सरकार की प्रमुख जिम्मेदारी है।जब कोई सरकार हिंसा के द्वारा खुद ही अपने नागरिकों की सुरक्षा को खतरे में डालती है तो सरकार के मूल विचार पर ही सवाल खड़ा हो जाता है। उम्मीद है कि 2020 में आने वाला समय इससे मुक्त होगा और शांति को आगे ले जाने वाला रहेगा, जिसकी 2019 में बहुत कमी रही।
जेएनयू की समस्या
संपादकीय
जेएनयू में हिंसा को लेकर तर्क-कुतर्क भरी बहस के बीच कुलपति एम जगदीश कुमार विश्वविद्यालय का माहौल सामान्य बनाने के लिए कदम उठा रहे हैं। ये कदम उठाने के साथ ही उन्होंने आंदोलनकारी छात्रों के समर्थन में सामने आए लोगों से यह सवाल भी पूछा है कि क्या वे उन छात्रों और शिक्षकों के साथ भी खड़े होने को तैयार हैं, जो पठन-पाठन से वंचित हैं? इस सवाल पर जवाब की अपेक्षा उनसे कतई नहीं की जा सकती, जिन्होंने आंदोलनकारी छात्रों के उपद्रव पर मौन रहना उचित समझा। शायद इसी कारण आंदोलनकारी छात्रों का दुस्साहस इस हद तक बढ़ा कि उन्होंने नए छात्रों के रजिस्ट्रेशन को तो बलपूर्वक रोका ही, सर्वर रूम को भी क्षतिग्रस्त किया। आखिर कोई सभ्य-समझदार व्यक्ति या संगठन ऐसे छात्रों के साथ कैसे खड़ा हो सकता है जो बाहुबल का सहारा लेकर शिक्षकों को उनकी कक्षाओं में प्रवेश ही न करने दें? दुर्भाग्य से सरकार और साथ ही कुलपति से चिढ़े विपक्षी दलों और साथ ही वामपंथी बुद्धिजीवियों ने ऐसा ही किया। वामपंथी दलों और बुद्धिजीवियों को जगदीश कुमार तभी से खटक रहे हैं, जबसे वह जेएनयू के कुलपति बने हैं। उन्हें लगता है कि इस विश्वविद्यालय में कुलपति हों या शिक्षक अथवा छात्र, वे सब उनकी विचारधारा के ध्वजवाहक ही होने चाहिए। यह आकांक्षा किस तरह एक सनक और नफरत में तब्दील हो चुकी है, इसका प्रमाण छात्र संघ की अध्यक्ष की ओर से उन शिक्षकों को सार्वजनिक रूप से संघी प्रोफेसर बताया जाना है, जो पठन-पाठन के लिए सक्रिय थे।
जेएनयू की समस्या केवल यह नहीं कि वहां वामपंथी विचारधारा वाले शिक्षकों और छात्रों का वर्चस्व है, बल्कि यह भी है कि उन्हें अन्य किसी विचारधारा वाले स्वीकार्य नहीं। यह अतिवाद के अलावा और कुछ नहीं कि किसी शैक्षिक परिसर में भिन्न् विचारधारा वालों को अपने से हीन और यहां तक कि शत्रु समान समझा जाए। जेएनयू जब तक ऐसी असहिष्णु विचारधारा से जकड़ा रहेगा, तब तक वहां पठन-पाठन के लिए उपयुक्त माहौल कायम हो पाना मुश्किल ही है। बेहतर होगा कि कुलपति और साथ ही मानव संसाधन विकास मंत्रालय जेएनयू की इस मूल समस्या की तह तक जाए। इसी के साथ दिल्ली पुलिस को भी यह देखना होगा कि वह अपना काम सही तरह से क्यों नहीं कर सकी? आखिर उसने गुहार लगाए जाने के बाद भी उसी समय हस्तक्षेप क्यों नहीं किया जब रजिस्ट्रेशन कराने गए छात्रों को पीटने के साथ-साथ वहां के तकनीकी सिस्टम को ध्वस्त किया जा रहा था? नि:संदेह सवाल यह भी है कि वह उन नकाबधारियों को बेनकाब क्यों नहीं कर पा रही, जिन्होंने विश्वविद्यालय परिसर में जाकर उत्पात मचाया? इन सवालों के जवाब जरूरी हैं।
अंतिम फैसला
संपादकीय
जिरह खत्म, अब 22 जनवरी को सुबह सात बजे दिल्ली की तिहाड़ जेल में निर्भया के बलात्कारियों और हत्यारों को फांसी दे दी जाएगी। मंगलवार को दिल्ली की पटियाला हाउस अदालत से चारों दोषियों के लिए डेथ वारंट जारी होते ही वह मामला अपने अंजाम तक पहुंचता दिखने लगा, जो पिछले सात साल से भी ज्यादा समय से समाज के सीने पर पड़ा हुआ था। यह एक खराब उदाहरण बन गया था। जब भी देश में बलात्कार या महिलाओं से अत्याचार की कोई घटना घटती थी, तब यही कहा जाता था कि इस तरह की घटनाएं कैसे रुक सकती हैं, जब इतने समय बाद भी हम निर्भया के हत्यारों को सजा तक नहीं दे सके।
हालांकि सभी लोग भले ही इससे सहमत न हों, पर आम धारणा यही है कि कड़ी सजा किसी भी अपराध को रोकने का सबसे अच्छा तरीका होती है। अपराधी तत्व किसी महिला के खिलाफ किस हद तक बर्बर हो सकते हैं, निर्भया कांड इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है। इसीलिए यह माना जाता रहा है कि अगर हम निर्भया के हत्यारों को शीघ्र सजा नहीं दे सके, तो यही धारणा बनेगी कि बहुत जघन्य अपराध करके भी बचा जा सकता है या फिर सजा को लंबे समय तक के लिए टाला जा सकता है। इसलिए यह भी कहा जाता है कि निर्भया जैसे कांड के दोषियों को दी जाने वाली सजा भी अपने आप में एक मिसाल बननी चाहिए। इस मामले में छह आरोपी थे। एक अवयस्क था, जिसे बाल सुधार गृह भेज दिया गया था। एक अन्य आरोपी राम सिंह ने जेल में ही आत्महत्या कर ली थी। अगर कोई और बाधा नहीं आती है, तो बाकी चार के लिए अब दो सप्ताह का ही जीवन शेष है।
दोषी पक्ष समाज की इस बेसब्री को समझ रहा था, इसलिए उसकी कोशिशें यही थीं कि सजा को जितना हो सके, टाला जा सके। जब सुप्रीम कोर्ट ने भी मृत्युदंड पर मुहर लगा दी, तब भी उसे टालने की कोशिशें चलती रहीं। यह सच है कि भारत की न्याय-व्यवस्था अंतिम समय तक मृत्युदंड पाए दोषी को अपना बचाव करने के विकल्प देती है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसी सजा को अनंत काल तक टाला जा सके। हालांकि कोशिशें कुछ इसी तरह की हो रही थीं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर पिछले कुछ समय से सख्ती दिखानी शुरू कर दी थी। पिछले दिनों जब एक दोषी के अवयस्क होने के मुद्दे को फिर से अदालत में लाया गया, तो सुप्रीम कोर्ट ने मामला तो खारिज किया ही, याचिका दायर करने वाले वकील पर ही जुर्माना लगा दिया।
जाहिर है, यह सजा अगर दी जाती है, तो एक उदाहरण तो बनेगा ही। हालांकि यह अभी दावे से नहीं कहा जा सकता कि इससे बलात्कार की वारदात खत्म या कम हो जाएंगी। निर्भया मामले के बाद देश में बलात्कार से संबंधित कानूनों में कई बड़े बदलाव किए गए। बलात्कारियों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान भी किया गया। इन सबके पीछे सोच यही थी कि दंड का भय सिरफिरे लोगों को अपराधी बनने से रोकेगा। लेकिन अभी पिछले महीने ही जिस तरह की घटनाएं देश में हुईं, उन्होंने बताया कि इस दिशा में अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कानूनी बदलावों का संदेश जितना आगे नहीं गया था, उतना इस सजा का जाएगा। इसके आगे की जरूरत महिलाओं के प्रति समाज की सोच बदलने की है।
Date:08-01-20
हिंसा के बरक्स
संपादकीय
रविवार को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में जिस तरह का हमला हुआ, वह किसी भी संवेदनशील और देश की फिक्र करने वाले इंसान को झकझोर कर रख देने वाली घटना है। इसलिए अगर समूचे देश और दुनिया के कई हिस्सों से इसके खिलाफ व्यापक प्रतिक्रिया की खबरें आ रही हैं, तो यह स्वाभाविक ही है। देश के कई राज्यों में अलग-अलग विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों से लेकर जागरूक समाज ने इस मसले पर तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की, जेएनयू के विद्यार्थियों से अपनी एकजुटता जताने के अलावा सरकार और पुलिस के रवैये के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन किया। इसके अलावा, विश्व के मुख्य समाचार माध्यमों में इस घटना की गंभीरता को दर्ज किया गया है। निश्चित तौर पर यह देश के लिए एक अफसोसजनक स्थिति है कि जिस जेएनयू को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उसकी उपलब्धियों और अहमियत के लिए जाना जाता है, आज दुनिया भर में उसकी चर्चा एक दुखद हालात के लिए हो रही है। यह सही है कि कई मसलों पर परिसर के विद्यार्थी आंदोलन कर रहे थे। लेकिन इन सब गतिविधियों के आलोक में रविवार को नकाबपोश हमलावरों के गिरोह की बर्बरता की आशंका किसी को नहीं थी।
यह जगजाहिर तथ्य है कि शैक्षिक और शोध जगत में जेएनयू की गुणवत्ता की ख्याति देश और विदेशों तक है। देश के सभी हिस्सों से और दूसरे देशों के विद्यार्थी भी यहां पढ़ाई और शोध करने आते हैं। शिक्षण, शोध और सुविधाओं के लिहाज से इसके ढांचे की वजह से समाज के कमजोर तबकों तक के परिवारों के बच्चों को भी यहां पढ़ाई करने का मौका मिलता रहा है। लेकिन पिछले दिनों छात्रावास के शुल्क सहित कुछ अन्य मदों में फीस की बढ़ोतरी कर दी गई थी, जिसको लेकर विद्यार्थियों के बीच तीखा विरोध उभरा। इसी मसले पर उनका आंदोलन लगातार चल रहा था कि अगर शिक्षा के खर्च को बेलगाम किया गया और उसका व्यवसायीकरण होने दिया गया तो यह देश के बहुत बड़े तबके को पढ़ाई-लिखाई के दायरे से बाहर कर देगा। लेकिन इस मुद्दे पर अभी भी विश्वविद्यालय प्रशासन और जेएनयू विद्यार्थी संगठन के बीच रस्साकशी चल रही है। इस बीच उन्होंने देश में नए बने नागरिकता संशोधन कानून पर भी विरोध दर्ज किया। यों देश-दुनिया के जन-सरोकार से जुड़े तमाम मुद्दों पर जेएनयू के विद्यार्थी हस्तक्षेप और प्रदर्शन करते रहे हैं।
जाहिर है, ये मुद्दे सभी विद्यार्थियों के लिहाज से व्यापक महत्त्व के रहे हैं और इससे किसी खास विद्यार्थी या संगठन के स्वार्थ नहीं जुड़े हुए हैं। मगर यह समझना मुश्किल है कि इन सबसे किस समूह को कैसी दिक्कत हो सकती है कि वह जेएनयू के परिसर में अवैध तरीके से घुसपैठ करके छात्र-छात्राओं और प्रोफेसरों तक पर जानलेवा हमला कर दे और सामानों को तहस-नहस कर दे! इस तरह की सरेआम की गई गुंडागर्दी के मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ-साथ दिल्ली पुलिस का जैसा रवैया सामने आया, वह बेहद शर्मनाक है।
किसी परोक्ष वजह से पुलिस ने नकाबपोश गिरोह के हमले के समय तो मूकदर्शक की भूमिका चुनी ही, हमलावरों के वीडियो और तस्वीरें सामने आने के बाद भी अपराधियों की पहचान और उसके खिलाफ कार्रवाई करने को लेकर उदासीन रही। यह पुलिस की संवेदनशीलता और फैसला लेने की क्षमता पर भी सवालिया निशान है और इससे न केवल विश्वविद्यालय की साख, बल्कि देश की छवि पर भी चोट पहुंची है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस समूचे मसले को गंभीरता से ले और विद्यार्थियों के साथ-साथ जेएनयू का हित सुनिश्चित करे। वैश्विक छवि के किसी भी संस्थान के बनने में लंबा वक्त लगता है, लेकिन किसी भी वजह से उसे पहुंचने वाले नुकसान का असर व्यापक होता है
Retrieving ideas of democracy and nation
The substantive versions of these ideas have been evoked in the popular upsurge across the country today
Valerian Rodrigues was a Professor at Mangalore University and Jawaharlal Nehru University
Within much of modern Indian thought, the idea of India as a nation implied the assumption that it would invariably be a democracy — i.e., India realising itself or constituting itself as a nation will necessarily do so as a democracy. The relationship between the two was not problematised.
There were some exceptions though: the Gandhians laid stress on Swaraj but this idea, while not being not opposed to democracy, did not directly connote self-rule of the citizen-community. The socialists and communists who were interested in the idea of democracy, and uncoupling it from the idea of nation, tended to lay stress on the economic prerequisites and redistribution of power to realise the former. There were some thinkers such as V.D. Savarkar who argued that the idea of nation took shape in India in the epochal past, but they dwelt little on democracy. Some Islamic scholars such as Maulana Maududi introduced concepts such as “theo-democracy”, i.e., the mode of self-rule where believers ordain their common affairs; but apart from the hierarchisation and exclusion such a conception threw up, it was hardly linked to the idea of nation as a bond or fellowship that marks it off from every other kindred entity. There were those who thought through the lens of caste, examples being E.V. Ramaswami Naicker, K.M. Panikkar and B.R. Ambedkar and also Adivasi leaders such as Jaipal Singh, who argued that the idea of nation has to be profoundly rethought in India and that such rethinking was needed to foreground democracy in an anticipatory mode.
While posing the relation between the ideas of the nation and democracy before the emerging public in India in this fashion is a gross simplification, and the arguments that people made and the positions they took were far more complex, this debate came to an abrupt end, or merely became the ideological fixtures of political parties, once India embraced constitutional democracy and held periodic elections under universal adult franchise. Interestingly, certain measures that the current government has embraced in the name of constitutional rectitude have reopened new fissures within the Indian body polity. It has made it imperative that we reopen the relation between the nation and democracy in India afresh even to sustain meaningful versions of constitutional democracy and periodic elections.
Trajectory of democracy
There were complex questions that had to be explored in the wake of Independence, and particularly following Partition. One was if India is a nation, what kind of a nation is it? If democracy is the mode of political association of this nation, what kind of democracy is conducive to it? However, giving short shrift to these questions, an amazing constitutional architecture came to be put in place. Amid a setting of bewildering social diversity and inequalities, India stepped into holding periodic elections on the basis of universal adult franchise.
The elite who were at the helm of operationalising constitutional democracy and periodic franchise made some place for diversity and preferential considerations to the disadvantaged in the Indian public. Some were aware of the course such a complex constitutional and institutional ship was to set sail in and were apprehensive of its future course. Others wished it bon voyage for a variety of reasons including utility calculations. Whichever way one looked at it through a phalanx of institutions dovetailed to constitutional democracy and periodic elections, the elite thought the future of India lay in operationalising a set course of action rather than rethinking its foundations.
The course of action that India took came to be theorised by the likes of the late Rajni Kothari who argued that democracy is alive and kicking by accommodating diversity within the policy-making process through a distinct type of party system, that he termed one-party dominance. There was much claptrap that came from elsewhere too.
Comparativists such as Atul Kohli argued that India demonstrated “a delicate balance” between “forces of centralization and decentralization” and “the interests of the powerful” have been pursued “without fully excluding the weaker groups”. Consociationalists such as Arend Lijphart thought that the Indian case demonstrated that democracy is viable — in spite of diversity and inequality — if it accommodates them in the governing institutions of a polity. These arguments came to be profoundly qualified by their proponents later, in the context of the failure or inadequacy of these institutions, and the rise of powerful dissent movements from below. However, their emphasis remained on rectification of the course and the institutions and policy measures arising therefrom, rather than envisaging the future of India beyond these confines.
A notion of the nation
The rise of the ruling party has placed a particular notion of the nation on the political agenda, and it has sought to refract constitutional democracy and elections through it. It has confined constitutional democracy to the bare letter of the law and periodic elections to merely subserve a majority in the House. In the process it has shorn them off from even residual considerations of democracy as the self-rule of the citizen community and the nation as the outcome of this process.
One of the most ominous expressions of the Bharatiya Janata Party’s version of the nation is found in the Citizenship (Amendment) Act, 2019, or the CAA, 2019 and the National Register of Citizens, allegedly on the anvil but officially denied in the face of widespread resistance. Several commentators have already pointed out that the CAA calls into question the foundations of citizenship in India, the role and place of the majority in a political democracy and minority rights and reorders them to suit the notion of the nation the current ruling dispensation cherishes.
How do we go about retrieving ideas of democracy and nation authentic to our context? One route leading to the same is subjecting the demands that the popular upsurge has voiced after the dilution of Article 370 of the Indian Constitution, and particularly following the enactment of the CAA, to reflective consideration. There are many angularities to the popular upsurge of the scale that we are witnessing in India today. But certain issues stand out if we read the kind of slogans that have been voiced, the songs that reverberate, paintings and plays that hold the crowds in rapt attention, and the extent and intensity of participation, and connect them to the popular demands that have been voiced by the very same people overtime.
In the Northeast, there is a widespread feeling that the CAA has watered down the autonomy that they sought for their culture, language, and land rights and very forcefully voiced before the Bordoloi Committee of the Constituent Assembly. The large-scale participation of Muslims in this upsurge demonstrates that they do not want to be kept out but be treated as equal citizens. There is universal outrage about the communication blockade in the Kashmir Valley.
But what is more is the participation of the rest, especially students in this movement. They seem to be saying: We do not want you to shove down our throat your pet notions of the nation and rules. Stop befuddling us with your doubletalk. There are matters of much more profound concern and urgency that we need to put upfront, and since they can be pursued only together, we need to reopen a conversation across our divides. The nation can only be that big and small that such a conversation affords.
While this popular upsurge does not give us a full-blown ideal of democracy that we wish to be and the image of the nation it recasts, the indicators are all there to see. There is a surplus in the ideas of nation and democracy that formal rules of law and modes of representation can never exhaust, and you cannot trump the former by invoking the latter.
Whose police?
JNU violence has raised questions about the conduct of Delhi Police. The onus is on the force to restore its credibility.
Editorial
Delhi Police is a strange beast — it does not report to the elected government of the state where it functions. However, the fact that it comes under the Union Ministry of Home Affairs (MHA) has never been so stark as it is now. Police action in Jamia Millia Islamia during protests against the new citizenship law and the inaction in JNU on Sunday allowing hooligans to go on a rampage in the campus have cast a shadow over the force. In these instances, Delhi Police is perceived to have acted in a partisan manner with the intent to protect its master’s preferences at the cost of its mandate to enforce law and order without prejudice. Such conduct has had repercussions, in and beyond the capital. The crackdown in Jamia ignited student protests in campuses across India, which is continuing. That’s why how Delhi Police handles the JNU probe will be keenly watched. It is now up to the force to restore its credibility as a free and fearless enforcer of the law or be derided as a mere security wing of the MHA.
The JNU probe, however, has started on the wrong note. The first FIR, filed on Tuesday, was against the JNU Students Union President Aishe Ghosh, who was beaten up by the goons, allegedly affiliated to the RSS students-wing ABVP. This seems to be aimed at firming up the narrative that the violence in JNU was merely a “clash” between rival student groups over the semester registration process. Sunday’s incident was much more than the scaled-up version of campus violence. Police reportedly did not respond to calls for help from the campus. Visuals of armed thugs leaving the campus after thrashing students and teachers under the watch of police personnel remain fresh in public memory. That not one of them was apprehended by the policemen waiting outside the JNU gates speaks poorly about the competence of the force.
Failure on the part of Delhi Police to clarify these questions will stain its record. The AAP government, as part of its larger campaign for statehood, has often accused Delhi Police of working like an “armed wing of the BJP”. Evidence of the last few days reinforces this. Delhi Police brass has a task in hand: It must remove apprehensions about its neutrality and reclaim its credibility. It could begin by earning the trust of the JNU campus community.
Date:08-01-20
Friendship and progress
Divisions, tensions and violence between groups and sects that political separatists promote not only damage our social lives, but also work as barriers to intellectual progress within as well as across nations.
Amartya Sen
While a beautiful thing in itself, knowledge generates many different types of rewards, from productive use of inventions to the creation of new bonds among people. The 17th century French writer Rabutin, Comte de Bussy, famously remarked, “Love comes from blindness, friendship from knowledge”. Love may well result from the inability to see what one is getting into. However, it has certainly enriched the world in many different ways — particularly through the creation of great literature, such as Romeo and Juliet, Abhijnana Shakuntala, and Layla and Majnun. But what does friendship produce — whether or not knowledge generates it (as Bussy-Rabutin claimed)?
I want to concentrate particularly on the opposite direction of influence emphasised by Bussy-Rabutin — not on how knowledge produces friendship, but on how friendship generates knowledge. The understanding that friendship helps the creation of knowledge is particularly important in the philosophy and history of science. Nationalist sentiments may make a country claim a secluded flowering of science and mathematics, detached from the rest of the world (unrelated to what we can learn from others — from our friends), but that is not the way science and mathematics — and ultimately culture, too — proceed. For example, the view of ancient India as an island, making its discoveries and inventions in splendid isolation — detached from the rest of the world — is pleasing to intellectual nationalists in India, but it is fundamentally mistaken.
We learn from each other and our intellectual horizons are expanded by being in touch with what others know. Once acquired, our newly learned knowledge expands under its own dynamics and we can give to the outside world much more than we received from it.
Consider the golden age of Indian mathematics. This was not the Vedic period, contrary to what is often claimed (exaggerated claims about Vedic mathematics have tended to generate a world of fantasy in parts of university education in India today). The golden age of mathematics in India was, rather, the classical period in the first millennium, quite close in time to the flowering of the great literature of Kalidasa, Sudraka and other writers. The great mathematical revolution in India was led particularly by Aryabhata, born in 476 AD, and developed by Varahamihira, Brahmagupta, Bhaskara and others. Aryabhata’s departures had sophistication and extraordinary reach that were quite uncommon in the mathematics of his time. There is much evidence that while deeply original, Aryabhata’s mathematics was substantially influenced by mathematical developments in Greece, Babylon and Rome. There was outside influence, and yet in Aryabhata’s hands, mathematics in India — and astronomy too — took gigantic leaps that were pioneering contributions for the whole world. India learned something but gave to the world enormously more than what it had learned from outside.
And as new understandings were born in India, they spread abroad, not only to Greece and Rome, but particularly to China, where they played a central role in the extraordinary progress in Chinese astronomical work (even the head of the official Chinese Board of Astronomy in the critically important 8th century was an Indian mathematician, Gautama), and to the Arab-speaking world which would become the most important vehicle of mathematical progress in the 8th to the 11th centuries. What began with India learning something from others soon became India teaching a lot to others, and these others, in turn, made huge contributions to the world of mathematics. Friendship, in the broadest sense (including the ability to learn from each other), played a central role in this interactive process, each step reinforcing the next, across national boundaries.
Emerging in a primitive form in Sumeria and Babylon, trigonometric ideas received the attention of Euclid and Archimedes in Greek mathematics in the 3rd century BC and Hipparchus in Asia Minor a century later. In the first century BC, Surya Siddhanta in India aired trigonometric constructions with further sophistication. The Greek influence was clearly present in Indian mathematics, but Surya Siddhanta had more developed trigonometry, particularly applied to astronomy, than what Alexander and the Greek settlers brought to India. To consider one example, when, towards the end of the 5th century AD, Aryabhata produced his comprehensive account of advances in mathematics, the concept of the sine, which is still perhaps the most widely used trigonometric notion, found its definitive exploration.
But how did this Aryabhatian concept come to be called “sine”, which is not a word in Sanskrit or any other Indian language? This bit of linguistic history, which I have discussed in The Argumentative Indian, is worth recollecting. Aryabhata called the sine by the Sanskrit name “jya-ardha” — half-chord — making use of the geometric basis of trigonometry, and often referred to it as “jya” for short. When the Arab mathematicians translated this concept into Arabic, they called it “jiba” — a corruption of jya. Arabic is written only with consonants, omitting the vowels, and so Aryabhata’s jya was represented as “j, b” — the two consonants in jiba. The sound jiba has no meaning in Arabic, but the same representation “j, b” can also be pronounced as “jaib”, which is a fine Arabic word, meaning a cove or bay.
When the Arab texts on sophisticated trigonometry, on the lines derived from Aryabhata, were ultimately translated into Latin (Gherardo of Cremona, an Italian working in Toledo, did the translation in 1150 AD), the word jaib, meaning a cove or a bay, was translated into the corresponding Latin word “sinus”, which is Latin for a cove or bay. And from there — from the word sinus — comes the modern trigonometric term “sine”. The much-used mathematical term sine carries within it the memory of Aryabhata’s Sanskrit term jya, and its sequential Arabic and Latin translations. What came to India from Europe in a somewhat simple form, went back to the world as a more developed tool of mathematics and astronomy.
The separatist outlook in the development of science, mathematics and culture is seriously misleading. Indeed, the role of friendship applies not only across national borders, but also within borders. Divisions, tensions and violence between groups and sects that political separatists like promoting (even within a nation), not only damage our social lives, but also work as barriers to intellectual progress within as well as across nations.
Indeed, the isolationist view of the progress of knowledge is fundamentally defective — no matter how appealing it may be to the nationalist and the sectarian. Friendship is important for our intellectual pursuits. Of course, it has many other rewards as well, but the advancement of science and mathematics — and of knowledge in general — is an important part of the beautiful impact of friendship.
Date:08-01-20
Children of lesser gods
The deaths in Kota bare the light on a healthcare system founded on apathy towards the poor
Shah Alam Khan
Nearly 200 children have died in the past two months at the J K Lon Government Hospital in Kota, Rajasthan. This comes barely six months after the death of more than 150 children in an alleged encephalitis epidemic in Muzaffarpur, Bihar. In 2017, more than 1,000 children died in the state-run Baba Raghav Das (BRD) Medical College in Gorakhpur, Uttar Pradesh.
In Slaughterhouse-Five, Kurt Vonnegut uses a phrase a number of times — “so it goes”. The phrase conveys death. Vonnegut’s use of the phrase in a novel on war conveys the message that life just went on even though men, women and children were dying — no one cared for the losses. With our conscience not pricking us despite the regular deaths of so many children across the country, the phrase should haunt us.
According to the UNICEF’s report, ‘State of World’s Children 2019’, India reported the maximum number of deaths of children under five in the world in 2018. Eight lakh eighty two thousand children under five died that year. That means around 2,416 deaths per day — or seven jumbo jets full of children crashing every day without anyone taking notice.
The death of children due to largely-preventable illnesses is a matter of serious concern and calls for urgent introspection. Unfortunately, we have failed to learn from past experiences. In fact, after the Kota tragedy, the narrative has degenerated into a blame game with the leaders of the BJP and the Congress engaged in mud-slinging over which is the greater tragedy — the deaths in Gorakhpur or those in Kota. Nothing could be more shameful. To indulge in a game of one-upmanship over the deaths of children is like medieval rulers boasting their hunting trophies. Actually, it is not about the BJP or the Congress. The death of young children should draw our attention to something more important and pressing.
The matter is also not merely about the non-availability of healthcare services or deficits in other realms of preventive medicine. The deaths in Kota, Muzaffarpur and Gorakhpur should draw our attention to a conglomeration of factors that govern child health in India. Most of the children who died in Gorakhpur, Muzaffarpur and Kota belong to the lowest strata of the society. It won’t, therefore, be wrong to conclude that they were victims of structural violence. In India, this structural violence is unleashed through a multitude of social, political and economic factors — apathy of healthcare professionals, poor health services/infrastructure in rural hinterlands, low rates of female literacy, economic inequality, the rigid caste system, social apartheid, lack of political will and patriarchy.
Kota happened because we slept after Muzaffarpur and the tragedy in Bihar happened because we were complacent after Gorakhpur. As a society, we have stopped looking at the deaths of our citizens through the prism of compassion and concern. Such apathy is unfortunately all pervasive — complicit in it are a range of people from political leaders to doctors practising in a rural primary health centre to the village headman.
In his landmark paper, ‘Anthropology of Structural Violence’, Paul Farmer of the Department of Social Medicine of the Harvard Medical School uses his experiences among the poor of Haiti to describe structural violence. The idea that some lives matter less is the root of all that is wrong with the world, Farmer contends. Structural violence, he points out, influences the nature and distribution of extreme suffering. The hypothesis holds true in the Indian context.
So what is the solution? Even before the smoke from the pyres in Kota has settled, a Niti Aayog document shows that the government is considering the takeover of 750 district hospitals by private medical colleges through a public private partnership (PPP) model. This, despite ample evidence about the failure of the model in the country’s healthcare system. In his seminal paper, ‘Uncertainty and Welfare Economics of Medical Care’, Nobel laureate Kenneth Arrow demonstrated that profit and private involvement in healthcare leads to an erosion of trust. Arrow pointed out that because an individual’s demand for medical services is irregular and unpredictable, the involvement of a private market model for such services (in any form) can be disastrous. This understanding from 1963 holds true even today. Medical factors are much more unpredictable in India today than in Arrow’s America. The country’s experiences in the PPP model in healthcare have shone a light on the deficits in transparency and highlighted the lack of care of vulnerable groups. They have raised ethical questions about a market-driven healthcare model.
What is urgently required is not the involvement of private players but a sincere engagement by the state in matters concerning peoples’ health. Reports have shown that most of the babies in Kota died due to suffocation at birth; low birth-weight and infections were the other significant causes of death. These are highly-preventable reasons. The role of the state in delivering health to its people cannot be overemphasised. We need to question the government’s priorities in a country where nearly a million children die every year.