07-11-2025 (Important News Clippings)
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Date: 07-11-25
Courting Citizens
People are the most important part of governance & justice delivery. Official buildings must reflect that
TOI Editorials
To CJI Gavai’s credit, he said something people in establishment top jobs rarely articulate in India – don’t intimidate citizens, make them feel welcome. Talking about the new Bombay high court complex that will be built in Bandra, CJI’s central point was, it must be built with restraint. Why, many will ask, used as they are to the in-your-face grandeur that defines seats of power, many of them built by British imperialists who wanted to show natives their place in the scheme of things. CJI comes to this question from the opposite end – a court’s architecture must speak to those who seek justice. It should make citizens feel they belong there, not that they are crossing into forbidden territory where they don’t matter much. Court buildings should reflect human scale, they should have open access, visible public spaces, and, most important, convey approachability.
The idea that court buildings, as well as all buildings that house various ‘high offices of the state’ (this is, btw, another term that’s encoded with the idea that power is too grand for mere citizens to fully comprehend), must be imposing goes back to times when kings ruled over subjects. Most modern democratic states, despite the rhetoric of citizenship and democracy, fully embraced the idea that official buildings must look forbidding. Power acts as a narcotic, even for those who believe in fairness, accountability and free elections. But if govts exist to serve people, then why should govts work out of buildings that scare people?
The US Supreme Court building may convey permanence and order but its imposing stairs and high porticos likely hinder the everyday litigant’s sense of belonging. Contrast with Australia’s high court. Its modern brutalist architecture expresses inclusion rather than exclusion. New Zealand’s Supreme Court goes further, embedding local culture in its design. This is architecture that says: our justice grows from our soil, our culture. Across Scandinavian countries, court building architecture is simple and inviting. Closer home, Chandigarh’s high court reflects a modern democracy through its design. India needs many more such official buildings – functional style, comfortable waiting spaces for citizens, the architecture clearly telling visitors that people are Very Important Persons. Yes, we are a long way from getting there. Most members of our governing classes would find this idea risible. But no less a person than CJI has made this point – and if Bandra’s Bombay HC building is built the way he recommended, it would mark a good start.
Let Not Airports Turn Into UDAN Khatolas
ET Editorial
If air connectivity is meant to drive regional development, UDAN is struggling for a lift-off. Launched in 2016 to make flying affordable and link smaller towns, GoI’s Ude Desh ka Aam Naagrik programme reportedly now has 11 airports developed under it grounded — seven in UP, and the rest in Gujarat, Punjab, MP and Sikkim. Some never saw a single commercial flight.
While airports must come first, then airlines, and finally passengers, UDAN’s troubles stem from a mismatch between policy ambition and poor understanding of actual demand. Big airlines have little incentive to join a system weighed down by fare caps and low passenger volumes. Smaller operators lack the financial resilience to survive even a week’s disruption. In many regions, expanding rail networks and improved roads offer faster (given the time taken in airport security and clearances), cheaper and more reliable travel, making air routes redundant before they even begin. The irony deepens in places like Kargil, where there is genuine demand for an airport. Residents remain cut off for months in winter, but repeated GoI assurances have been stuck in bureaucratic holding patterns. India’s private aviation culture, long dormant, is only now taking off, but it will take time to reach smaller regional airports.
In this year’s budget, GoI announced a modified UDAN — promising 120 new destinations and 4 cr additional passengers over the next decade. But announcements alone don’t make airports fly. Without a fundamental rethink, UDAN 2.0 risks creating more grounded runways, turning airports into white elephants, diverting crucial funds from other essential infrastructure.
दुनिया में सत्ता की जनता से दूरी बढ़ना चिंताजनक
संपादकीय
भारतीय मूल के जोहरान ममदानी की जीत पर आशंका है कि ट्रम्प अपनी चुनाव- पूर्व धमकी पर अमल करके न्यूयॉर्क सिटी की फंडिंग रोक देंगे। ट्रम्प भूल गए कि वे भी सत्ता में उन्हीं वोटों से हैं, जिनसे ममदानी जीते हैं। उधर यूके में एक नया बिल आ रहा है, जिससे जन- प्रतिनिधियों के घरों के सामने जनता का प्रदर्शन गैर-कानूनी होगा। तीसरी घटना भारत की है। दिल्ली पुलिस ने 2020 के दिल्ली दंगों के आरोप में पांच साल से यूएपीए के तहत जेल में बंद उमर खालिद, शरजील इमाम और तीन अन्य की जमानत याचिका के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामे में कहा कि आरोपी सरकार बदलना चाहते थे। जबकि सरकार बदलने का उपक्रम किसी भी प्रजातंत्र की मजबूती का संकेत है। इसी उद्देश्य से संसद और विधायिकाएं बनाई गई हैं ताकि उनमें सत्ता पक्ष के फैसलों पर विपक्ष सवाल करे और सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करे। शून्य-काल, प्रश्न-काल, कार्यस्थगन प्रस्ताव, अविश्वास प्रस्ताव जैसी संसदीय प्रक्रियाएं इसी आशय से बनाई गई हैं। दिल्ली पुलिस के अनुसार तो अविश्वास प्रस्ताव लाने वाली पार्टी या सांसद भी इसी आरोप के दायरे में आने चाहिए। याद रहे कि भारत का प्रजातंत्र एडवर्सेरियल डेमोक्रेसी (द्वंद्वात्मक या प्रतिस्पर्धी प्रजातंत्र ) के सिद्धांत पर आधारित है, जिसमें लगातार जनमत तैयार कराने के लिए विचार सम्प्रेषण होता है।
नतीजों का संदेश
संपादकीय
अमेरिका में राज्य स्तरीय चुनावों के नतीजों से एक स्पष्ट आहट सुनी जा सकती है। यह एक ओर प्रवासियों के पक्ष में जनादेश है, तो दूसरी ओर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की विवादित नीतियों के खिलाफ संदेश भी । न्यूयार्क के महापौर से लेकर कई राज्यों के गवर्नरों और स्थानीय चुनावों के आए परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि अमेरिकी समाज विविधता एवं समरसता की संस्कृति को ही पसंद करता है और उसे किसी की मनमानी पसंद नहीं। इस लिहाज से देखें, तो प्रवासियों को मुद्दा बना कर अपने फैसले पर अड़े दिख रहे ट्रंप के लिए ये चुनावी नतीजे एक झटके की तरह हैं। उनकी तमाम तल्खियों और धमकियों के बावजूद न्यूयार्क में जोहरन ममदानी मेयर का चुनाव जीत गए। न्यूयार्क में बीते पचास वर्षों में सबसे अधिक मतदान हुआ। यह एक बड़ा घटनाक्रम है । इससे प्रतीत होता है कि तमाम बाधाओं और उतार-चढ़ाव के बावजूद समुदाय विशेष की राजनीति से ऊपर उठ कर अमेरिका आगे बढ़ने के लिए तैयार है। न्यूयार्क से लेकर वर्जीनिया, मिसिसिपी, केंटकी और ओहायो के सिनसिनाटी शहर में हुए चुनाव में जहां डेमोक्रेटिक पार्टी का दबदबा दिखा, वहीं भारतवंशियों का भी खूब बोलबाला रहा।
खास बात यह है कि इन नतीजों के बाद अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर फिर से उत्साह लौट आया है। और खुद हिलेरी क्लिंटन ने नतीजों को लोकतंत्र की जीत बताया है। इसी के साथ यह भी स्पष्ट हो गया है कि देश वास्तव में क्या चाहता है। दरअसल, न्यूयार्क एक प्रवासी के नेतृत्व वाला शहर बन गया है। जोहरन ममदानी ने जीत के बाद कहा भी कि यह शहर प्रवासियों का ही था । गौरतलब है कि इस भारतवंशी नेता को हराने ने लिए राष्ट्रपति ट्रंप ने पूरी ताकत झोंक दी थी। बावजूद इसके उनका जीतना यह साबित करता है कि न्यूयार्क के मतदाता मौजूदा सत्ता से किस कदर नाखुश हैं और वे मानते हैं कि अमेरिका प्रवासियों का भी देश है । यह उनके इस भरोसे और उम्मीद की भी जीत है, जो यह मानता है कि देश निरंकुशता से नहीं चलता । समझा जा सकता है कि राष्ट्रपति ट्रंप के लिए आगे का रास्ता निर्बाध नहीं होने जा रहा है। इन चुनावी नतीजों को रिपब्लिकन पार्टी के लिए एक सबक की तरह भी देखा जा रहा है।
Date: 07-11-25
भीड़ प्रबंधन की अनदेखी से बढ़ते हादसे
योगेंद्र माथुर
आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में बीते दिनों भगदड़ में दस श्रद्धालुओं की मृत्यु हो गई और कई लोग घायल हो गए। जैसा कि अब तक होता आया है, सभी बड़े नेताओं और राजनीतिक दलों ने दुर्घटना पर शोक संवेदना जताते हुए इस घटना की जांच कराने की मांग की।
उधर, स्थानीय पुलिस और प्रशासन दुर्घटना की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए दिखाई देते रहे। प्रशासन ने मंदिर प्रबंधन द्वारा दर्शन व्यवस्था की पूर्व सूचना न देने से सुरक्षा व्यवस्था न हो पाने की बात कही। मुख्य रूप से दर्शनार्थियों की अनुमान से अधिक भीड़ जुटने, मंदिर का प्रवेश-निकास द्वार एक ही होने और व्यवस्था के लिए लगे अवरोधक गिरने से भगदड़ मचने की बात कही गई। वहीं प्रवेश और निकास द्वार संकरा बताया गया। बहरहाल, यह पहला अवसर नहीं है जब किसी धार्मिक स्थल पर भगदड़ मची हो और श्रद्धालुओं की जान गई हो। ऐसी दुर्घटनाओं का सिलसिला बरसों से जारी है।
हाल के वर्षों में कई दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें सैकड़ों श्रद्धालुओं की मौत हो गई। इसी वर्ष उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्यप्रदेश के विभिन्न शहरों में हुए आयोजनों में ऐसी लगभग एक दर्जन दुर्घटनाएं हो चुकी हैं। अकेले आंध्रप्रदेश में ही धार्मिक स्थलों पर भगदड़ की इस वर्ष यह तीसरी दुर्घटना है। मगर इन दुर्घटनाओं से कोई सबक लिया गया हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता।
आए दिन पर्व-त्योहारों पर श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। इसी के साथ कई छोटे-बड़े धार्मिक आयोजन यथा मेले, कथा-सत्संग और प्रवचन कहीं न कहीं होते रहते हैं, जिनमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु उमड़ते हैं। धार्मिक आयोजनों से इतर कई सामाजिक, सांस्कृतिक और संगीत आयोजनों के साथ राजनीतिक सभाएं-रैलियां भी होती हैं, जिनमें खासी भीड़ जुटती है। इन अवसरों पर भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन, स्थानीय प्रशासन एवं सरकारों के लिए बड़ी चुनौती होती है।
आयोजन सफलतापूर्वक संपन्न हो जाए तो ठीक, नहीं तो किसी भी प्रकार की दुर्घटना होने पर लीपापोती करने में स्थानीय प्रशासन की पूरी मशीनरी जुट जाती हैं। राजनीतिक पार्टियां दुर्घटना पर शोक व्यक्त कर और सरकारें जांच कमेटी या आयोग का गठन कर अथवा मुआवजे का मरहम लगा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। बाद में समय के साथ जख्म भरते जाते हैं। दुर्घटना को लगभग भुला दिया जाता है, जब तक कि कोई नई दुर्घटना न हो जाए। इन दुर्घटनाओं से कोई सबक नहीं लेता।
प्राय: देखा जाता है कि समुचित सुरक्षा-व्यवस्था न होने अथवा कुप्रबंधन के कारण भगदड़ मचती है। कई बार आयोजनों से जुड़े प्रबंधन और प्रशासन की घोर लापरवाही या अनदेखी भी इसके लिए जिम्मेदार होती है। अधिकांश बड़े आयोजनों या राजनीतिक रैलियों के दौरान यह देखने में आता है कि आयोजकों का पूरा ध्यान अपनी शक्ति, सामर्थ्य अथवा लोकप्रियता के प्रदर्शन पर रहता है। व्यवस्था और जन सुरक्षा को हाशिये पर डाल दिया जाता है।
दुर्घटना से बचने के कोई प्रबंध नहीं किए जाते। ऐसे अवसरों पर किसी भी प्रकार की दुर्घटना से बचने के लिए नियम और कानून के तहत आयोजकों की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। किसी भी आयोजन की अनुमति तभी दी जानी चाहिए, जब आयोजक सुरक्षा-व्यवस्था की संतोषजनक कार्ययोजना प्रस्तुत करें। आयोजकों के प्रबंधन कौशल का भी आकलन किया जाना चाहिए।
वैसे भारत में भीड़ नियंत्रण और प्रबंधन को लेकर ठोस नीति या कार्ययोजना का सदैव अभाव रहा है। यही कारण है कि अत्यधिक भीड़ जब-तब भगदड़ या अन्य प्रकार की दुर्घटनाओं की वजह बनती है। अनुमान से अधिक आई भीड़ को प्राय: दुर्घटना का कारण बताया जाता है, लेकिन वर्तमान तकनीकी दौर में संभावित भीड़ का अनुमान लगाना कोई बहुत मुश्किल नहीं रह गया है। सीसीटीवी कैमरों और ड्रोन की सहायता से भीड़ पर आसानी से नजर रखी जा सकती है।
आयोजन स्थल पर अत्यधिक भीड़ होने पर पर उपग्रहों से जन सघनता की जांच करने वाले ‘ट्रेकिंग साफ्टवेयर’ को जोड़ कर और निगरानी कर ऐसी दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। हर भीड़ अव्यवस्था या भगदड़ जैसी दुर्घटनाओं में बदल सकती है। लिहाजा यह मान कर ही किसी भी भीड़ वाले आयोजन को ध्यान में रखते हुए सुरक्षा-व्यवस्था तय की जानी चाहिए। किसी भी आयोजन स्थल पर अत्यधिक भीड़ बढ़ने की संभावना पर उसके सीधे प्रसारण का कई स्थानों पर प्रबंध कर भीड़ को एक ही जगह जमा होने से रोका जा सकता है। यह सबसे सुरक्षित तरीका है।
पर्व-त्योहारों पर आम तौर पर दर्शन-पूजा के लिए भीड़ उमड़ती है। इन अवसरों पर कथा-सत्संग और प्रवचनों के छोटे-बड़े आयोजन भी होते रहते हैं। इस तरह के अवसरों पर श्रद्धालुओं में पहले दर्शन और प्रसाद पाने की होड़ अथवा आगे बढ़ने या बैठने की आपाधापी सामान्य बात होती है। ऐसी स्थिति में दुर्घटना से बचाव के लिए सुरक्षा-व्यवस्था की पहले से कार्ययोजना तैयार की जाना चाहिए और आयोजन स्थल पर पर्याप्त अवरोधक लगाने के साथ पुलिस बल के अलावा मंदिर प्रबंधन या आयोजन से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी सुरक्षा-व्यवस्था में तैनात किया जाना चाहिए।
फिसलन भरी जगह या संकरे मार्ग भी दुर्घटना की वजह बनते हैं। प्राय: ऐसा भी देखा जाता है कि आयोजन स्थलों पर विद्युत व्यवस्था के तार बेतरतीब तरीके से लगे होते हैं या लटके होते हैं। ऐसे में वहां करंट लगने या फैलने का खतरा बन जाता है। ऐसे में भगदड़ की स्थिति बन जाती है और श्रद्धालु अपनी जान गंवा देते हैं। तेज हवा या बारिश के समय ऐसी दुर्घटनाएं अधिक होती हैं।
सुरक्षा-व्यवस्था की समीक्षा करते समय ऐसी त्रासदी रोकने की तरफ भी विशेष ध्यान होना चाहिए। अत्यधिक भीड़ की स्थिति में आयोजन स्थलों पर प्रवेश व निर्गम द्वार की व्यवस्था अनिवार्य हो। वहां पेयजल, चिकित्सा व जनसुविधा परिसर की व्यवस्था भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए। इन स्थानों पर आग की स्थिति से निपटने के लिए दमकल सेवाओं के साथ एंबुलेंस की व्यवस्था भी महत्त्वपूर्ण होती है।
ऐसे में कोई दुर्घटना होने पर बड़ी जनहानि से बचा जा सकता है। कई बार छोटी-मोटी घटनाएं भी अफवाहों या भ्रामक सूचनाओं के फैलने से बड़ी दुर्घटना में बदल जाती हैं। कहीं आग लगने या करंट फैलने की अफवाहों के कारण भी बड़ी दुर्घटनाएं हुई हैं। अधिक भीड़ जुटने वाले अवसरों और इन स्थलों पर नियंत्रण के लिए सूचना तंत्र या नियंत्रण कक्ष की व्यवस्था अवश्य होनी चाहिए, ताकि समय रहते लोगों को सचेत किया जा सके।
अफवाहों पर नियंत्रण कर बड़ी दुर्घटनाओं रोका जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि किसी स्थल या आयोजन में जुटने वाली भीड़ की संख्या का पूर्वानुमान या आकलन सदैव सही साबित हो। भीड़ अनुमान से अधिक भी हो सकती है। मगर सबसे जरूरी है लोगों में अनुशासन, सावधानी और सचेतनता। ऐसा हो, तो भगदड़ पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। मगर आखिर में यही सवाल है कि हम इन हादसों से कब सबक लेंगे?
आधार विजन 2032 डिजिटल पहचान का नया अध्याय
संपादकीय

यू आईडीएआई द्वारा हाल ही में घोषित आधार विजन 2032 सरकार की एक अत्यंत महत्वाकांक्षी और दूरदर्शी पहल है। यह संकेत है कि भारत अब अपनी डिजिटल पहचान प्रणाली को आने वाले दशक के लिए अधिक मजबूत, सुरक्षित और समावेशी बनाने की दिशा में अग्रसर है। यह केवल तकनीकी उन्नयन का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक रणनीतिक दृष्टि-पत्र है, जो कृत्रिम बद्धिमत्ता, ब्लॉकचेन और क्वांटम एन्क्रिप्शन जैसी आधुनिक तकनीकों से आधार की संरचना को भावी चुनौतियों के अनुरूप ढालने की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। इसी उद्देश्य से केंद्र सरकार ने एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समिति गठित कर इस विज्ञान का प्रारूप तैयार करने का निर्णय लिया है। यह सत्य है कि आधार ने करोड़ों नागरिकों के लिए जनसेवाओं की पहुँच आसान बनाई, लेकिन इसके साथ ही डेटा सुरक्षा, बायोमेट्रिक सत्यापन की सीमाएँ, और ग्रामीण क्षेत्रों में डिजिटल अस्वीकृति जैसी चुनौतियाँ भी सामने आईं। इन समस्याओं ने प्रणाली की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाए प्रतिदिन करोड़ों प्रमाणित लेन-देन और बढ़ते साइबर खतरों ने सरकार को इस प्रणाली में सुधार और पुनर्गठन की आवश्यकता का एहसास कराया। अतः विज्ञान 2032 का उद्देश्य केवल तकनीकी बदलाव नहीं, बल्कि डिजिटल सेवाओं को मानव सुविधाओं के केंद्रित बनाना भी है जहाँ सुरक्षा, सरलता और समावेशन तीनों को समान महत्व मिले और जन आकांक्षाएं ।
आसानी से पूरी हो सके। नई तकनीकों जैसे क्वांटम एन्क्रिप्शन और ब्लॉकचेन से डेटा की गोपनीयता में सुधार काफी हद तक संभव है, परंतु इन्हें लागू करने का मार्ग केवल तकनीकी नहीं, बल्कि कानूनी, संस्थागत और वित्तीय आधारों पर भी सुदृढ़ होना चाहिए अन्यथा, तकनीक के आधुनिकीकरण के बावजूद ग्रामीण क्षेत्रों और वंचित वर्गों तक इसका लाभ नहीं पहुँच सकेगा। इसी प्रकार, विकलांग और वृद्ध नागरिकों के लिए वैकल्पिक बायोमेट्रिक विकल्पों तथा ऑफ़लाइन डिजिटल टोकन जैसी व्यवस्थाओं का परीक्षण और प्रसार भी आवश्यक है। सरकार को चाहिए कि वह इस उपयोगी व्यवस्था को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए बिना किसी संकोच के कड़े, राष्ट्रहितकारी निर्णय ले यदि यह महत्वाकांक्षी योजना सफलतापूर्वक लागू होती है, तो इसका चौमुखी प्रभाव देश की शासन प्रणाली पर सबसे अधिक होगा। आधार केवल पहचान का माध्यम न रहकर सरकारी योजनाओं के निष्पादन, बैंकिंग समावेशन, स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा के साथ-साथ सरकारी योजनाओं की जनसाधारण में वितरण का सशक्त माध्यम बन सकता है। इससे न केवल योजनाओं की पारदर्शिता और गति बढ़ेगी, बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियाँ भी दूर होंगी। विज़न 2032 की सफलता का अर्थ केवल तकनीक का विस्तार नहीं, बल्कि सामाजिक नीतियों और संसाधनों के पुनर्गठन से नागरिकों तक लाभ पहुँचाने की सरकार की प्रतिबद्धता है। लोकतांत्रिक जवाबदेही और समावेशन के मानदंडों को अक्षुण्ण रखना सरकार की सर्वोपरि जिम्मेदारी होती है। यदि विजन 2032 के सिद्धांतों पर नीति- निर्माता, तकनीकी संस्थान और नागरिक समाज एकजुट होकर कार्य करें, तो भारत न केवल डिजिटल पहचान के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनेगा, बल्कि वैश्विक स्तर पर विश्वसनीयता, पारदर्शिता और नैतिक शासन का उदाहरण भी स्थापित करेगा। यदि सरकार की यह महत्वाकांक्षी योजना सफल होती है, तो भारत का डिजिटल भविष्य ही नहीं लोकतांत्रिक मूल्यों की भी रक्षा होगी।
डेढ़ सौ साल से हमें जगाता वंदे मातरम्
योगी आदित्यनाथ, ( मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश )

वंदे मातरम्… यह केवल उच्चरित शब्द नहीं है, यह भारतीय आत्मा का वह शाश्वत निनाद है, जो डेढ़ शताब्दी से अनवरत गुंजित हो रहा है। यह मात्र गीत नहीं, राष्ट्र जागरण का वह दिव्य महामंत्र है, जिसने पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े भारत को आत्मबोध का प्रकाश दिया, निराशा के घोर तमस में अस्मिता की ज्योति प्रज्वलित की, संघर्ष को संबल और स्वाधीनता को स्वरूप प्रदान किया ।
इस गीत में न तो सत्ता का मोह है, न किसी जाति, संप्रदाय या प्रांत का आग्रह यह गीत संपूर्ण भारत की सामूहिक चेतना का प्रतीक है। वह चेतना, जो हजारों वर्षों की सभ्यता, संस्कृति और अध्यात्म से निर्मित हुई। है । इस गीत ने हमें यह सिखाया कि राष्ट्र केवल एक भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि एक जीवंत, संवेदनशील, मातृस्वरूपा सत्ता है, जिसके प्रति हमारी निष्ठा, श्रद्धा और समर्पण ही हमारी असली पहचान है। यह गीत भारतीय जीवन-दर्शन का प्रतीक है, जहां राष्ट्रभक्ति केवल राजनीतिक विचार नहीं, बल्कि भक्ति, साधना और सेवा का रूप ले लेती है।
वंदे मातरम् की रचना अपने आप में एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण था। जब ब्रिटिश शासन भारत की धार्मिक-सांस्कृतिक चेतना को कुचलने का प्रयास कर रहा था, तब बंकिमचंद्र ने अपने उपन्यास आनंद मठमें इस गीत को स्थान दिया। आनंद मठ के संन्यासी यह गीत गाते थे। यह ‘संन्यासी विद्रोह’ की प्रेरणा बना, जिसने ब्रिटिश सत्ता के सामने भारतीय आत्मबल का पहला प्रतिरोध खड़ा किया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने सन् 1875 में जब इस गीत की रचना की, तब उन्होंने केवल काव्य नहीं लिखा, उन्होंने राष्ट्र की सोई हुई आत्मा को जगाने का संकल्प किया। सुजलाम् सुफलाम् मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलाम् मातरम् की पंक्ति ने भारतीय मानस में चेतना का संचार किया। इस एक पंक्ति में भारत की समृद्धि, सौंदर्य और शक्ति एक साथ मूर्तिमान हो उठे।
सन् 1905 के बंग-भंग आंदोलन के समय वंदे मातरम् एक गीत नहीं रहा। इसकी गूंज विद्यालयों, सभाओं, जुलूसों और हर उस मार्ग पर सुनाई देती थी, जहां स्वतंत्रता का स्वप्न जीवित था। फांसी के तख्ते पर चढ़ते क्रांतिकारियों के होंठों पर अंतिम उच्चारण भी ‘वंदे मातरम्’ ही था। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जब इसे अपने स्वर में गाया, तो यह केवल गीत नहीं रहा, यह एक आध्यात्मिक अनुभूति बन गया। वंदे मातरम् ने धर्म और देशप्रेम को एक सूत्र में बांधा, जिससे भक्ति और देशभक्ति एक ही धारा बनकर बहने लगीं। इसी भावधारा ने लाखों भारतीयों को उस स्वाधीनता यज्ञ में आहुति बन जाने की प्रेरणा दी, जिसकी लौ से भारत ने स्वतंत्रता का सवेरा देखा।
स्वतंत्र भारत के निर्माताओं ने भी इस गीत को राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक माना। यही कारण है कि वंदे मातरम् आज भी प्रत्येक भारतीय के लिए श्रद्धा और गर्व का विषय है। यह गीत कालातीत है, क्योंकि इसमें न तो किसी युग का बंधन है, न किसी प्रदेश की सीमा।
इसमें उस भारतमाता की दिव्यता झलकती है, जो केवल भूभाग नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति व सनातन चेतना का जीवंत रूप है। आज जब हम वंदे मातरम् की रचना के 150 वर्ष पूर्ण होने का पावन अवसर मना रहे हैं, यह केवल स्मरण का नहीं, बल्कि आत्मावलोकन का क्षण भी है। क्या हम उस भाव को जी पा रहे हैं, जिसके लिए असंख्य देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुति दी ? क्या हम अपने जीवन में वही समर्पण, वही अनुशासन और वही मातृभूमि भक्ति स्थापित कर पाए हैं?
दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी वंदे मातरम् पर प्रश्नचिह्न लगाने का साहस करते हैं। कभी इसे सांप्रदायिक कहकर सीमित करने का प्रयास किया जाता है, तो कभी इसे किसी संप्रदाय विशेष से जोड़कर उसकी सार्वभौमिकता को संकुचित किया जाता है। यह प्रवृत्ति न केवल अज्ञान और ऐतिहासिक विस्मृति की उपज है, बल्कि राष्ट्रभावना व सांस्कृतिक एकता के प्रति गहरे अनादर का प्रतीक भी है।
वस्तुतः वंदे मातरम् किसी मत, पंथ या संप्रदाय का गीत नहीं, यह संपूर्ण भारत की आत्मा का स्वर है। इसमें उस मातृभूमि की वंदना है, जिसकी कृपा से हम सब अस्तित्व पाते हैं। यही कारण है कि 24 जनवरी, 1950 को भारत की संविधान सभा ने सर्वसम्मति से वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी। वह निर्णय केवल एक औपचारिक घोषणा नहीं था, इस सत्य का प्रतिपादन भी था कि वंदे मातरम् भारतीय राष्ट्र की एकात्म चेतना, श्रद्धा व स्वाभिमान का अमर प्रतीक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्दों में, ‘वंदे मातरम् के गान में करोड़ों देशवासियों ने हमेशा राष्ट्रप्रेम के अपार उफान को महसूस किया है। हमारी पीढ़ियों ने वंदे मातरम् में भारत के एक जीवंत और भव्य स्वरूप के दर्शन किए हैं।’
आज भारत आत्मनिर्भरता और विकास की नई यात्रा पर अग्रसर है। इस यात्रा की मूल प्रेरणा वही है, जो डेढ शताब्दी पूर्व बंकिमचंद्र ने दी थी, मातृभूमि पर गर्व करने की भावना और कर्म को सेवा में बदलने की भावना। प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में जब देश ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के मंत्र के साथ आगे बढ़ रहा है, तब वंदे मातरम् उस एकता की भावना को और गहराई देता है। यह गीत हमें स्मरण कराता है कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में है, उसके लोक-जीवन, भाषाओं और संस्कृतियों के समन्वय में है ।
वंदे मातरम् का अर्थ केवल मातृभूमि को प्रणाम करना नहीं, बल्कि यह वचन देना है कि हम उसकी रक्षा करेंगे, उसे समृद्ध और गौरवान्वित बनाएंगे। जब कोई किसान अपनी भूमि को उपजाऊ बनाता है, सैनिक सीमा पर डटा रहता है, शिक्षक अपने विद्यार्थियों में संस्कार बोता है और युवा नवाचार से देश का नाम रोशन करता है, तब ‘वंदे मातरम्’ अपने सार्थक रूप में जीवित रहता है। आज की युवा पीढ़ी को इस गीत के मूल भाव को अपने जीवन का हिस्सा बनाना होगा । तकनीकी युग की तेज रफ्तार में भी यदि उसके हृदय में मातृभूमि के प्रति प्रेम और कर्तव्य का संकल्प बना रहे, तभी यह गीत अमर रहेगा।
आज जब हम इस गीत की 150 वर्षों की यात्रा को नमन करते हैं, तो यह केवल एक साहित्यिक उपलब्धि का सम्मान नहीं, बल्कि उस राष्ट्र चेतना के स्रोत का अभिनंदन है, जिसने भारत को भारत बनाया। यह गीत हमें सिखाता है कि राष्ट्रप्रेम कोई उत्सव नहीं, यह नित्य आराधना है।