07-05-2025 (Important News Clippings)

Afeias
07 May 2025
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Date: 07-05-25

Cheers Mate

First details of India-UK FTA show plenty of upside for both. The trick was both making key concessions

TOI Editorials

After three years of talks, India and UK have finalised terms of a free trade agreement (FTA). When talks started, India-UK bilateral trade was at $17.5bn, now it’s touched a meatier $57bn. That partly explains why Modi called the deal “historic” on X yesterday, and Starmer termed it “landmark”. Both countries-fifth and sixth largest economies, respectively – needed this deal in the current atmosphere of Trump-induced uncertainty, although UK arguably needed it more than India. And while it’s tempting to linger on cheaper Scotch and single malt as a result of reduced Indian tariffs, the impact of the FTA will be far-reaching.

Take tariffs first. A GOI press release said 99% of Indian exports to UK will face zero duty. These include labour-intensive products like textiles, leather, footwear, toys, gems and jewellery, besides white-collar services-IT/ITES, finance, etc. In exchange, India will slash tariffs on 90% of British product categories. So, right from British chocolate and cookies to aeroplane parts Rolls Royce is a major engine supplier to Boeing will get cheaper. More significant is India’s decision to let British- made cars in at just 10% duty – albeit with an import quota. This is a first, and a sign that India’s auto sector will be less protectionist in future. It also bodes well for a deal with US. Tariff on British whisky and gin, meanwhile, has been halved from 150% to 75%. Cheers!

Cheer also the double contribution convention that both sides have agreed on. That means Indian workers in UK-and vice versa- won’t need to make social security contributions there for the first three years. So, bigger remittances, hopefully. India’s press release says the FTA will ease mobility for a range of professionals. That was a sticking point for India for a long time. With this FTA under its belt, it’s time for India to move fast on trade deals with US, EU and Australia, all of whom are wary of China. FTAs enmesh economies and align national interests like nothing else. Trade deals can be everyone’s security guarantee.


Date: 07-05-25

पाकिस्तान को कमजोर करना मुश्किल नहीं होगा

संपादकीय

वर्ष 1965 में यूएन में बोलते हुए भुट्टो ने भारत से हजार साल तक जंग का ऐलान किया था। नीति थी कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों को पूर्वी पाकिस्तान में और भारत-स्थित पंजाब को पश्चिमी पाकिस्तान में शामिल किया जाएगा। हुआ उल्टा। 1971 में भारत के समर्थन से बांग्लादेश अलग हो गया। फिर जिया आए और इस बार भारत को ‘हजारों घाव देने’ की नीति बनी। कश्मीर और पंजाब में घुसपैठ, सैनिक झड़प और आतंकवाद के पैकेज में छद्म युद्ध का सिलसिला शुरू हुआ। पहलगाम उसकी परिणति है। आज उन देशों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो भारत को युद्ध न करने की सीख दे रहे हैं। इधर सरकार ने सेना को सीधे एक्शन की खुली छूट दे दी है। सीधे युद्ध करना तब ज्यादा उचित होगा, जब कोई आतंकवादी पकड़ा या मारा जाए और उसका सीधा और पुख्ता लिंक इस्लामाबाद से मिले। दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे आर्थिक, सामाजिक और नैतिक रूप से ढहते देश को ‘हजारों घाव’ देकर निष्प्राण करना भारत के लिए बेहद आसान है- बांग्लादेश मुक्ति की तरह। पाक जनरल्स भ्रष्टाचार में डूबे हैं और सेना की जमीन बेचने में लगे हैं। आतंकी राजनेताओं को कंट्रोल करते हैं। बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा में घुसने की सेना की हिम्मत नहीं है। इन इलाकों से दो घंटे की दूरी पर कंधार हमारा उप दूतावास है। सिंध और पंजाब और बलूचिस्तान की हर गतिविधि पर भारत की नजर है। विकास के अभाव में पीओके की अवाम सड़कों पर है। पाक को ‘हजारों घाव देना’ मुश्किल नहीं होगा ।


Date: 07-05-25

पर्यावरण को ध्यान में रखकर भी हम विकास कर सकते हैं

सुनीता नारायण, ( पर्यावरणविद् )

भारत को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहिए- जब मैंने विभिन्न यूरोपीय देशों के जलवायु परिवर्तन दूतों के एक समूह से यह बात कही तो उनके चेहरों पर असमंजस के भाव थे। मैंने उन्हें अपने कारण बताए ।

विकास भारत जैसे देश के लिए बड़ी चुनौती है। यह विकास समावेशी और टिकाऊ भी होना चाहिए। अगर हम इसे हासिल करते हैं, तो हम एक बेहतरीन लक्ष्य पर पहुंच जाएंगे – स्थानीय प्रदूषण को कम करने और ग्रीन- आजीविका को बढ़ावा देने के लिए हमारे कदम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को भी कम करेंगे। इस तरह, हमारा राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) पारस्परिक लाभों पर आधारित होगा। दूसरे शब्दों में अगर सही तरीके से विकास किया जाए, तो वह जलवायु परिवर्तन के संकट का भी सामना कर सकता है।

दुनिया के दूसरे तमाम देशों की तरह भारत को भी विकास करना है। इसका मतलब है लाखों लोगों को रोजगार देना, उन्हें स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और आवास प्रदान करना और ऊर्जा आपूर्ति को बढ़ाना। विकास के लिए हमें ऐसी कार्रवाई की आवश्यकता होगी, जो सभी की जरूरतों को पूरा करे। इसके लिए रणनीति में बदलाव की जरूरत है। हम पूंजी और संसाधनों की प्रचुरता वाले मार्ग का जोखिम नहीं उठा सकते, क्योकि वह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है और समाज में भी असमानता को बढ़ाता है। हम पहले प्रदूषण फैलाने और फिर उसकी सफाई करने के पश्चिमी देशों के दृष्टिकोण को नहीं अपना सकते। हमारे पास नुकसान की मरम्मत के लिए वित्तीय साधन भी नहीं हैं। ऐसे में हमें विकास की अपनी अवधारणा को फिर से आविष्कृत करना होगा और भारत में कई नीतियों ने यही किया है। यह भारत जैसे देशों के लिए अनूठा अवसर है कि वह विकास को जलवायु कार्रवाई के खिलाफ खड़ा करने के बजाय उसे विकास के लिए बनाई गई नीतियों के भीतर समाहित कर सके।

उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि हम अपनी मोबिलिटी के तौर-तरीकों को बदले बिना वायु प्रदूषण को ठीक नहीं कर सकते, क्योंकि निजी वाहन वो चाहे जितने भी स्वच्छ क्यों न हों- सड़क की जगह घेरते हैं और प्रदूषण और भीड़भाड़ को बढ़ाते हैं। पश्चिम ने निजी वाहनों को सब्सिडी देने और उनका विद्युतीकरण करने का रास्ता अपनाया है। हमारे पास एक और उपाय है, जो हमारे आवागमन को फिर से परिभाषित करता है। यह है इलेक्ट्रिक बसों और पैराट्रांजिट और दोपहिया वाहनों जैसे किफायती परिवहन में निवेश करना। भारत का एनडीसी लो कार्बन वाले सार्वजनिक परिवहन को बढ़ाने के बारे में होना चाहिए, न कि केवल इलेक्ट्रिक कारों की गिनती करने के बारे में। यह नीति हवा को शुद्ध रखने से प्रेरित है, लेकिन इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने का अतिरिक्त लाभ भी है ।

उद्योग जगत से एक उदाहरण देखें हमारे सीमेंट उद्योग ने फ्लाई ऐश का उपयोग करना शुरू कर दिया है- कार्बन को कम करने के लिए नहीं, बल्कि कचरे को कच्चे माल के रूप में इस्तेमाल करने, चूना पत्थर का विकल्प चुनने और ऊर्जा की लागत कम करने के लिए । लो कार्बन वाले औद्योगीकरण का भविष्य इसी तरह के समाधानों में निहित है, जिनसे सभी को लाभ हो। जैसे कि लौह अयस्क स्लैग से लेकर बायोमास और कचरे से प्राप्त होने वाले ईंधन तक- ये सभी कोयले और अन्य जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने और दक्षता में सुधार के लिए हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें ग्रीन- इकोनॉमी के विचार को फिर से तैयार करना होगा। हम ग्रीन-एम्प्लॉयमेंट की बातें नहीं कर सकते, क्योंकि हम जानते हैं कि रिन्यूएल ऊर्जा या ईवी को अपनाने का मतलब आजीविका के अधिक अवसर नहीं होगा। वास्तव में, हाल ही में आई खबरों से पता चलता है कि इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस को अपनाने के कारण यूके में हजारों नौकरियां चली गई हैं।


Date: 07-05-25

वैश्विक व्यापार और भारतीय किसान

रिपुदमन सिंह

अमेरिका में कृषि का स्वरूप व्यावसायिक है, जबकि भारत में अधिकतर लोगों का जीवन निर्वाह खेती और गहन निर्यात पर निर्भर करता है। यह लाखों छोटे भारतीय किसानों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का सवाल है भारतीय किसान पिछले चार वर्षों से फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी के लिए और बाजारों तथा उनकी जमीन पर कारपोरेट नियंत्रण के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। अमेरिका द्वारा पारस्परिक शुल्क लागू करना हमारी कृषि के लिए एक गंभीर झटका होगा भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह सिर्फ व्यापारिक चुनौती नहीं, बल्कि कृषि क्षेत्र की स्थिरता और किसानों की आजीविका पर सीधा प्रहार है। रिसर्च थिंक टैंक, जीटीआरआइ ( वैश्विक व्यापार अनुसंधान पहल) के अनुसार भारत अमेरिकी शुल्क से गंभीर रूप से प्रभावित होगा। अमेरिका के साथ कृषि व्यापार में अधिशेष के बावजूद, कृषि, परिधान, आटोमोबाइल, गाड़ियों के पुर्जे, आभूषण और अन्य छोटे तथा मध्यम उद्योगों पर अमेरिका की नई व्यापार नीति से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय कृषि व्यापार सिर्फ आठ अरब डालर का है, जिसमें अमेरिका को व्यापार घाटा हो रहा है।

भारत मुख्य रूप से चावल, झींगा, शहद, वनस्पति अर्क, अरंडी का तेल और काली मिर्च निर्यात करता है, जबकि अमेरिका बादाम, अखरोट, पिस्ता, सेब और दाल निर्यात करता है। नए पारस्परिक शुल्क के तहत हमें गेहूं, मक्का, दालें, मांस, दुग्ध उत्पाद और कई अन्य चीजें आयात करनी पड़ेंगी, जो किसानों की आजीविका तथा देश की खाद्य सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक है, मगर अमेरिका का 38.29 फीसद शुल्क लागू होने से 600 रुपए कीमत वाला देसी घी 760 रुपए प्रति लीटर हो जाएगा और यह बढ़ी हुई 160 रुपए कीमत सीधे अमेरिकी कृषि व्यवसायी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास जाएगी। अमेरिका में एक कुंतल गेहूं के उत्पादन की लागत 1700 रुपए है, जबकि भारत सरकार द्वारा एक कुंतल गेहूं का घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य 2425 रुपए है। स्पष्ट है, भारतीय किसान लागत में अमेरिकी किसान का मुकाबला नहीं कर सकता। भारत में किसानों के पास औसतन एक हेक्टेयर से कम जमीन है। अगर गेहूं और धान के घरेलू बाजार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए जाएं तो भारतीय किसान की क्या स्थिति होगी, कहना बहुत मुश्किल है।

व्यापार शुल्क दरअसल, समृद्ध पश्चिमी देशों के पक्ष में मूल्य असंतुलन को दूर करने का हथियार है। व्यापार शुल्क में कोई भी वृद्धि भारतीय निर्यात को अमेरिका में कम प्रतिस्पर्धी बना देगी। डोनाल्ड ट्रंप की पारस्परिक शुल्क नीति से भारतीय कृषि उत्पाद, समुद्री खाद्य और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ अमेरिका में 31 फीसद अधिक महंगे हो जाएंगे। इससे अमेरिकी उपभोक्ता महंगे भारतीय खाद्य पदार्थ के मुकाबले सस्ते वैकल्पिक उत्पादों को वरीयता देंगे। दूसरी तरफ, अमेरिका भारत के साथ अपने 45 अरब डालर के व्यापार घाटे को कम करने के लिए प्रमुख कृषि निर्यात- गेहूं, कपास, मक्का, सोया और मांस को भारत में निर्यात करने की योजना बना रहा है। अमेरिका का भारत को कृषि सबसिडी कम करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म करने और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों, अमेरिकी मक्खन, मांस और दुग्ध उत्पाद के लिए भारतीय बाजार खोलने का सुझाव देना, वैश्विक कृषि में विषमता की अनदेखी करता है।

भारत और अन्य विकासशील देशों को विश्व व्यापार संगठन यानी डब्लूटीओ द्वारा कुछ फसलों में रियायत और सबसिडी दी गई थी, ताकि विकासशील देशों में घरेलू किसानों को विकसित देशों द्वारा फसल आयात की ‘डंपिंग’ से बचाया जा सके। मसलन, भारत कपास की प्रति एकड़ फसल के लिए आठ फीसद ( 8000 रुपए) तक की सबसिडी देता है। यह सिलसिला पिछले तीन दशक से जारी है। मगर ट्रंप की पारस्परिक शुल्क नीति के कारण डब्लूटीओ अप्रसांगिक हो गया है। भारत कपास, दूध, चावल, गन्ना और अन्य कृषि उत्पादों का अव्वल उत्पादक बनकर उभरा है। मगर नए पारस्परिक शुल्कों के कारण हमें कपास, गेहूं, मक्का, डेयरी तथा अन्य उत्पादों को भी अमेरिका से आयात करने के लिए मजबूर होना पड़ेगा । वनस्पति तेल में भी ऐसा ही है।

सन 1990 तक भारत तिलहन में आत्मनिर्भर था, मगर आयात करों में भारी कमी करके हमें अन्य डब्लूटीओ देशों से वनस्पति तेल आयात करने पर मजबूर होना पड़ा। आयातित सस्ते ताड़, सूरजमुखी और अन्य तेलों की ‘डंपिंग’ ने हमारे किसानों के लिए तिलहन की खेती को अलाभकारी बना दिया, और किसानों ने तिलहन की खेती छोड़ दी। इससे वनस्पति तेलों की भारी कमी हो गई और सरकार को वर्तमान में प्रति वर्ष 16 अरब डालर का नुकसान वनस्पति तेल के आयात के कारण हो रहा है। डर है कि मक्का, ज्वार और दालों के मामले में भी यही स्थिति हो सकती है, जो हमारे शुष्क भूमि वाले छोटे किसानों की खेती के लिए जीवन रेखा है। भविष्य में यह स्थिति, अमेरिका से सस्ते चावल, कपास, गेहूं और दुग्ध उत्पाद की ‘डंपिंग’ करने से हो सकती है और उक्त उत्पादों में भारतीय किसान अपनी फसल की लागत भी निकालने में सफल नहीं होंगे। वे बर्बादी के कगार पर पहुंचने लगेंगे, क्योंकि भारत में किसान पहले से कर्ज और फसल की वाजिब कीमत न मिलने से आत्महत्या कर रहे हैं।

इसलिए यह मसला लाखों छोटे भारतीय किसानों की आजीविका बनाम अमेरिकी कृषि व्यवसाय के हितों का है। कई हजार बड़े किसानों के साथ अमेरिकी कृषि व्यावसायिक है, जबकि भारत में 85 फीसद छोटे किसान अपनी आजीविका के लिए टिकाऊ खेती करते हैं। अमेरिकी किसानों को सभी फसलों के लिए सरकार द्वारा भारी सबसिडी दी जाती है, जबकि भारतीय किसान को खेती के खर्च पर आठ फीसद से कम सबसिडी मिलती है। इस विषमता को ध्यान में रखते हुए कृषि व्यापार में भारतीय किसान समान भागीदार नहीं हो सकता। इस तरह भारतीय किसानों पर समान पारस्परिक शुल्क नहीं लागू किया जाना चाहिए।

इस परिस्थिति से निपटने के लिए भारत की रणनीति अत्यंत सूझ- बूझ की होनी चाहिए। हमें अमेरिकी ‘डंपिंग’ से भारतीय किसानों को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजा देने के साथ कम शुल्क की भी बात करनी चाहिए। अमेरिकी शुल्क के विरुद्ध खड़े होने के लिए यूरोपीय संघ और ब्रिक्स देशों के साथ मोर्चा बनाना, द्विपक्षीय व्यापार की पहल करनी चाहिए तथा विश्व बाजार में भारतीय कृषि को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने, उत्पादकता और किसानों की आय बढ़ाने के लिए कृषि अनुसंधान एवं खाद्य प्रसंस्करण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह भी हकीकत है कि कृषि प्रधान देश होने के बावजूद हमारी फसल उत्पादकता दुनिया के अन्य प्रमुख देशों के औसत से काफी पीछे है। ऐसे में अब भारत को न केवल अपने किसानों को वैश्विक प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करना होगा, बल्कि एक ऐसी नीति बनानी होगी, जो व्यापारिक उतार-चढ़ाव के बीच भी उसकी स्थिरता सुनिश्चित कर सके।


Date: 07-05-25

न्यायाधीशों की पहल

संपादकीय

यह संयोग ही है कि दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के आवास पर मिले कथित नोटों की जांच के लिए गठित तीन न्यायाधीशों की समिति ने जिस दिन अपनी रिपोर्ट प्रधान न्यायाधीश को सौंपी, ठीक उसके अगले दिन सर्वोच्च न्यायालय के 21 न्यायमूर्तियों ने अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा भी की। इन तमाम जजों की जायदाद का पूरा ब्योरा अब सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध है। निस्संदेह, यह एक सराहनीय पहल है और न्यायपालिका में व्यापक पारदर्शिता के लिहाज से अनुकरणीय भी सुप्रीम कोर्ट की इस कवायद की अहमियत इसलिए भी अधिक है कि यह हमारी शीर्ष न्यायपालिका की प्रतिबद्धता दर्शाती है। दरअसल, कुछ विसंगतियों के बावजूद भारतीय न्यायपालिका की दुनिया भर में काफी प्रतिष्ठा है और उच्च न्यायपालिका के एकाधिक प्रकरणों से इसकी छवि को कोई चोट न पहुंचे, इसके लिए बहुत जरूरी है कि इसकी कार्य-प्रणाली में अधिकाधिक पारदर्शिता बरती जाए।

हमारे संविधान निर्माताओं ने विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का विभाजन करते हुए जिस दूरदर्शिता का परिचय दिया और उनके बीच जो शानदार संतुलन साधा, भारतीय लोकतंत्र उसका जीवंत प्रमाण है। इसके तीनों अंगों ने पिछले साढ़े सात दशकों में अपनी सांविधानिक शक्ति के दायरे में एक-दूसरे को नियंत्रित और संवर्द्धित किया है। ऐसे कई मौके आए, जब विधायिका व कार्यपालिका के निर्णयों को असांविधानिक बताते हुए न्यायपालिका ने निरस्त किया और शेष दोनों अंगों ने शीर्ष अदालत फैसले के आगे अपना सिर नवा दिया। आखिर न्यायपालिका के पास ही संविधान के संरक्षण की शक्ति है। मगर कोई भी तंत्र या व्यवस्था अपनी शक्तियों के साथ तभी न्याय कर सकती है, जब उसके शीर्ष नेतृत्व की प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। न्याय के आसन पर बैठे लोगों के लिए तो यह और भी आवश्यक है कि उनकी ईमानदारी और आचरण पर किसी किस्म की उंगली न उठे।

भारतीय न्यायपालिका की प्रतिष्ठा का एक बड़ा आधार भी यही रहा है कि जब कभी उच्च न्यायपालिका के किसी जज के आचरण पर सवाल उठे, शीर्ष अदालत ने त्वरित कदम उठाया और संतोषजनक कार्रवाई की। न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा का प्रकरण इसका सबसे ताजा उदाहरण है। 14 मार्च को कथित रूप से उनके सरकारी आवास से नकदी पाए जाने की खबर जैसे ही सामने आई, प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने बगैर वक्त गंवाए न सिर्फ दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से इस संबंध में रिपोर्ट मंगाईं, बल्कि मामले की जांच के लिए तीन हाईकोटों के मुख्य न्यायाधीशों की एक कमेटी गठित की और जांच पूरी होने तक न्यायमूर्ति वर्मा को अदालती कार्यवाही से दूर रहने का आदेश दिया। अब जब रिपोर्ट सौंप दी गई है, तो यकीनन उसके निष्कर्षों के अनुरूप कार्रवाई भी होगी और देश को सच का पता भी चलेगा । दुर्योग से अन्य क्षेत्रों में विरले ही ऐसी तत्परता देखने को मिलती है और शायद यही वजह है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ‘करप्शन परसेप्शन इंडेक्स’ में हमारी स्थिति अच्छी नहीं है। बहरहाल, शीर्ष अदालत के माननीय जजों ने अपनी जायदाद सार्वजनिक करके जो मिसाल कायम की है, उसे न्यायपालिका के निचले स्तर तक ले जाने की जरूरत है, क्योंकि हमारी शीर्ष न्यायपालिका की जो अच्छी छवि है, निचली अदालतों के बारे में ठीक वैसी ही धारणा नहीं है।


Date: 07-05-25

भारतीय न्याय व्यवस्था के साथ न्याय की जरूरत

माजा दारूवाला, ( वरिष्ठ अधिवक्ता )

किसी व्यवस्था को इसलिए खड़ा किया जाता है, ताकि उसके निश्चित परिणाम मिल सकें। यहां एक स्वाभाविक प्रश्न है, क्या भारत की न्यायव्यवस्था को कमतर प्रदर्शन, असमानता व देरी के लिए डिजाइन किया गया है?

सरकार के अपने स्वयं के आंकड़ों के आधार पर, हाल ही में जारी हुई चौथी भारत न्याय रिपोर्ट 2025 अपने पहले की रिपोर्ट की तरह एक बार फिर 18 बड़े और सात छोटे राज्यों की पुलिस, न्यायपालिका, जेलों और न्याय देने की संरचनात्मक क्षमता का आकलन करती है। यह रिपोर्ट न्याय व्यवस्था की असलियत बताती है- धन, बुनियादी ढांचे और जनशक्ति की कमी। न्याय व्यवस्था पर बहुत ज्यादा काम का बोझ है, इसमें लोगों का कम प्रतिनिधित्व है, यह बहुत धीमी है और इन वजहों से बहुत से लोगों के लिए यह उपयोगी सिद्ध नहीं होती है। सच तो यह है कि न्याय में अंतहीन देरी की वित्तीय लागत का अभी भी कोई आकलन नहीं किया गया है।

भारतीय समाज में आज भी मोटे तौर पर न्याय पाना आसान नहीं है। न्याय व्यवस्था के हर चार कर्मचारियों में से एक गायब है । उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 31 प्रतिशत पद खाली हैं। पुलिस में 22 प्रतिशत पद खाली हैं। और तीन में से एक जेल कर्मचारी अनुपस्थित है। खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों को कम से कम कम कानूनी उपायों पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। वैसे, पुलिसकर्मियों की संख्या लगातार बढ़ रही है, लेकिन बड़ी संख्या में उनके पद खाली हैं। राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो पांच में से एक पद रिक्त है। देश में करीब पांच लाख और पुलिसकर्मियों की जरूरत है। पिछले वर्षों में इनकी संख्या में वृद्धि हुई है, पर भारत में दुनिया में सबसे कम पुलिस आबादी अनुपात है।

ऐसे में, जनता का असंतोष अपरिहार्य है। पुलिस अक्सर यह बताती है कि वह संसाधनों की कमी के चलते खराब प्रदर्शन करती है। हालांकि, वह यह नहीं बताती कि ऐसी स्थिति में बुराइयों को बल मिलता है। जल्दी न्याय पाने और सजा से मुक्ति के लिए गलत कामों को बल मिलता है। ऐसे में, करीब पांच करोड़ लंबित मामलों की चौंकाने वाली संख्या सर्वविदित है। प्रति 10 लाख की आबादी पर केवल 15 न्यायाधीश हैं। उच्च न्यायालय के हर न्यायाधीश को 7,000 से अधिक मुकदमों का सामना करना पड़ता है और प्रत्येक निचली अदालत के न्यायाधीश को 2,200 मुकदमों का। एक थकी हुई न्याय व्यवस्था के साथ, जो सभी नए मामलों और लंबित मुकदमों को निपटा नहीं सकती, जल्द ही मुकदमों की संख्या छह करोड़ को पार कर जाने का अनुमान है। इसका नतीजा यह है कि जेलों में भीड़भाड़ हो गई है। जल्द न्याय के तमाम प्रयासों के बावजूद केवल 10 वर्षों में कैदियों की भीड़ 18 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई है। देश की 1,330 जेलों में से 90 में अब जितने कैदियों को रखा जाना चाहिए, उससे दोगुने कैदी हैं । उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद जैसी कुछ जेलों में चार गुना से भी ज्यादा कैदी हैं। सुप्रीम कोर्ट को दी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लगभग 40 प्रतिशत कैदियों के पास सोने के लिए जगह नहीं है। ध्यान रहे इन गरीब दयनीय लोगों या कैदियों में से केवल एक तिहाई ही दोषी हैं। बाकी 76 प्रतिशत विचाराधीन कैदी हैं। हर बीतते साल के साथ उनके जेल में रहने की अवधि बढ़ती जा रही है।

कैदियों में ज्यादातर वंचित और हाशिये पर पड़े समुदायों से आते हैं। यहां असली अपराध गरीबी है। फिर भी, इस निराशाजनक कैनवास पर कुछ रंग उभर रहे हैं। बजट को बढ़ाया गया है। फोरेंसिक लैब का कायापलट किया जा रहा है। तकनीक आगे बढ़ रही है।

व्यवस्था में महिलाओं की संख्या भी बढ़ाई जा रही है। बिहार के पुलिस बल में अब 24 प्रतिशत महिलाएं हैं। अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों में 38 प्रतिशत महिलाएं हैं और उच्च न्यायालयों में केवल 14 प्रतिशत हैं। ध्यान रहे, जहां इच्छाशक्ति होती है, वहां रास्ता निकल ही आता है। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और ओडिशा जैसे राज्यों ने काफी सुधार करके दिखाया है। अगर हमें कानून के शासन वाला लोकतंत्र बने रहना है, तो हमें संविधान की रोशनी में न्याय व्यवस्था को सुधारना होगा। सुधार के लिए रोज काम करना पड़ेगा, क्योंकि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो कुछ भी नहीं होगा।