05-07-2025 (Important News Clippings)

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05 Jul 2025
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Date: 05-07-25

Model community

Tibetans in India need better state support

TOI Editorials

By backing Dalai Lama’s position on succession, Union minister Kiren Rijiju has rightly countered China’s position that only Beijing can approve the choice of the next Tibetan spiritual leader. Dalai Lama, and thousands of Tibetans, chose India as their refuge when China captured Tibet in 1950s. Since then, Tibetans in India have lived as a model community. Spread across 39 formal settlements and dozens of informal colonies throughout India, Tibetans have added richness to our social milieu with their cuisine, medicine, culture and spirituality.

A lot of this is because of Dalai Lama himself. He has repeatedly expressed his gratitude to India for providing shelter to Tibetans. Contrast this with China where Tibetan culture is being slowly Sinicised, and Tibetan Buddhism is practised under strict supervision of Chinese Communist Party minders. It is in India that Tibetans have been able to freely practise their religion.

India has a great track record in sheltering refugees – taking in millions during Bangladesh’s 1971 Liberation War – and successive Indian govts have done a lot for Tibetan refugees. But several everyday issues remain. Tibetans face restrictions in terms of travel, can’t buy property in India, most can’t access bank credit, and have very limited access to higher education and healthcare. Their stateless status can be ameliorated through practical provisions on the ground. Seventy years of their peaceful existence in India shows migrants can add value to society. Tibetans deserve our continued support.


Date: 05-07-25

​Settled semantics

Nothing of worth will be gained by removing two words from the Preamble

Editorial

The call for the removal of the words “secular” and “socialist” from the Preamble to the Constitution of India is no longer a fringe fantasy. With someone as senior and influential as the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS) General Secretary Dattatreya Hosabale making a public statement in support of the idea, it has now acquired a new urgency and prominence in national politics. The words “secular” and “socialist” were introduced through the 42nd Amendment to the Constitution, during the Emergency under Prime Minister Indira Gandhi in 1976. And the Janata Party government, which included RSS-affiliated leaders, that replaced Indira Gandhi and reversed a lot of the changes made in the Constitution during the Emergency let these words stay. These concepts were so central to the Constitution of the new Republic that its original authors did not think it was even necessary to use these words in the Preamble. When a conflict over India’s national identity began to emerge during the 1970s, Indira Gandhi thought it would be appropriate and also politically rewarding to make these amendments. The Hindutva camp never really opposed these concepts historically. Gandhian Socialism was a part of the core tenets of the Jan Sangh, the earlier avatar of the Bharatiya Janata Party (BJP). Hindutva proponents accused their rivals of following ‘pseudo secularism,’ and by implication, claimed to be genuine secularists.

The words “secular” and “socialist” have attained meanings specific to the Indian context over the years. Secularism is not a rejection of Indian civilisational heritage or any religion, but a commitment to equal treatment of all faiths by the state. Indira Gandhi had been viewed as someone pandering to Hindu sentiments. Socialism is not about hostility to private property or enterprise, but a pragmatic appreciation of the fact that the state must take proactive measures to tackle poverty and expand opportunities for the deprived sections of society. The words ‘secularism’ and ‘socialism’ reflect a broad consensus in Indian politics that has held for decades. There is nothing to be achieved by raking up a meaningless debate on these words. Perhaps the debate itself is the objective: to push a divisive agenda without providing any ideological, legal or practical reasoning for this demand. India’s challenge is not about these two words, but its continuing struggle to tackle discrimination, poverty and underdevelopment, which are often influenced by the caste and religious origins of its citizens. The Sangh Parivar, and the BJP, could serve the country better by focusing on these challenges rather than wasting energy on divisive debates on settled semantics.


Date: 05-07-25

हमारी कृषि की विस्तार- नीति पर प्रश्नचिह्न लगे हैं

संपादकीय

सांख्यिकी मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट से पता चला कि वर्ष 2011-12 के मुकाबले 2023-24 में जहां दूध या अनाज का कुल प्राइमरी सेक्टर (कृषि और संलग्न क्षेत्र) में योगदान घट गया है, वहीं पशुधन, खासकर मांस और मछली का डेढ़ गुना बढ़ गया है। सरकारी प्रयासों की तारीफ के आशय से रिपोर्ट में एक शीर्षक है, पिछले एक दशक में पशुधन में जबरदस्त बूम देखा गया। रिपोर्ट के अनुसार कांस्टेंट प्राइस पर वर्ष 2011-12 में इस क्षेत्र का कुल योगदान 19.08 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 12 वर्षों में 29.49 लाख करोड़ (54.6 प्रतिशत वृद्धि) हो गया, जबकि चालू दरों पर यह अंतर तीन गुना से ज्यादा रहा। बहरहाल कृषि क्षेत्र में आज भी 55% आबादी है। दूध और खेती का योगदान कम होना किसानों की आय पर असर करता है। यह कृषि की विस्तार – नीति और श्वेत क्रांति पर प्रश्नचिह्न भी है। सरकार अपनी कमजोरी छिपाने के लिए यह कहती है कि दरअसल कृषि और संलग्न क्षेत्र डाइवर्सिफाई (विविधता आना) हो रहा है। दूध और खाद्यान्न का योगदान घटना और पशु-मांस का बढ़ना भारत की सामाजिक-आर्थि संरचना देखते हुए चिंताजनक है। देश के मात्र पांच राज्यों, जिनका क्षेत्रफल में कुल हिस्सा 22% है (यूपी, एमपी, पंजाब, हरियाणा और तेलंगाना) से कुल खाद्यान्न उत्पादन का 53% आना कृषि में क्षेत्रीय असंतुलन भी बताता है।


Date: 05-07-25

खाद्य शुल्कों में कटौती जोखिम भरा दांव

अजय श्रीवास्तव, ( लेखक ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनीशिएटिव के संस्थापक हैं )

नीति आयोग द्वारा हाल ही में पेश एक प्रपत्र में अमेरिका से होने वाले कृषि आयात में शुल्क कटौती की अनुशंसा की गई है। इन उत्पादों में चावल, डेरी, पोल्ट्री, मक्का, सेब, बादाम और जीन संवर्द्धित सोया तक शामिल हैं। यह कटौती भारत-अमेरिका मुक्त व्यापार समझौते के तहत करने करने का प्रस्ताव है।

ये प्रस्ताव ‘प्रमोटिंग इंडिया-यूएस एग्रीकल्चर ट्रेड अंडर द न्यू यूएस ट्रेड रिजीम (अमेरिका की नई व्यापार व्यवस्था के अधीन भारत- अमेरिका कृषि व्यापार को बढ़ावा ) नामक प्रपत्र में दिए गए हैं जो मई में प्रकाशित हुआ था। हम इसकी अहम अनुशंसाओं पर विचार करेंगे और यह भी कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए इनका क्या अर्थ होगा ? शुरुआत करते हैं चावल से जो देश का एक प्रमुख खाद्यान्न है।

चावल: प्रपत्र अमेरिकी चावल पर आयात शुल्क समाप्त करने की बात कहता है। भारत पहले ही बहुत बड़ी मात्रा में चावल निर्यात करता है और इसलिए आयात से उसे कोई जोखिम नहीं यह दलील तार्किक नजर आती है लेकिन यह अतीत की एक बड़ी गलती की अनदेखी कर देती है।

1960 और 1970 के दशक के आरंभ में भारत को खाद्यान्न की कमी का सामना करना पड़ा और अमेरिकी कानून पीएल 480 के तहत अमेरिका से खाद्यान्न आयात करना पड़ा। इस कानून के तहत अमेरिका का अतिरिक्त अन्न भारत जैसे देशों को बेचा या दान दिया जाता है। वैश्विक व्यापार वार्ताओं के अधीन भारत जो उस समय एक बड़ा खाद्यान्न आयातक था, अमेरिका के इस प्रस्ताव पर सहमत हो गया था कि वह चावल, गेहूं और दूध पाउडर पर शुल्क समाप्त कर देगा। यानी भारत ने भविष्य में इन वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाने का अधिकार त्याग दिया।

बाद में हरित क्रांति ने देश के कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय इजाफा किया और 1990 के आरंभ में देश चावल और गेहूं के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। भारतीय किसानों को अब सस्ते सब्सिडी वाले आयात से शुल्क संरक्षण चाहिए था लेकिन पुरानी गैट प्रतिबद्धता के कारण भारत शुल्क बढ़ाने में सक्षम नहीं था। इकलौता कानूनी विकल्प था गैट के अनुच्छेद 28 के तहत दोबारा बातचीत करना, जो भारत ने 1990 के दशक में किया।

बहरहाल, दोबारा वार्ता महंगी पड़ी भारत को अन्य वस्तुओं मसलन मक्खन, चीज, सेब, खट्टे फलों और ऑलिव ऑयल पर शुल्क दर कम करनी पड़ी ताकि अमेरिका और यूरोपीय संघ सहित कारोबारी साझेदारों को राहत दिया जा सके। इसके बाद ऐसे उत्पादों से भारतीय बाजार पट गए और स्थानीय किसानों को इसका नुकसान हुआ। सबक यह है कि एक बार अगर कोई देश कम या शून्य शुल्क को कानूनी रूप से मान लेता है तो दोबारा लचीलापन हासिल करना मुश्किल होता है। नीति आयोग का प्रपत्र इसी बात की अनदेखी करता है।

वैश्विक अन्न कीमतों में उतार-चढ़ाव नीति आयोग का प्रपत्र वैश्विक अन्न कीमतों में उतार-चढ़ाव के जोखिम की भी अनदेखी करता है। उदाहरण के लिए 2014 से 2016 के बीच वैश्विक अन्न कीमतों में भारी गिरावट आई। गेहूं 160 डॉलर प्रति टन से नीचे आ गया और बहुत से अफ्रीकी किसानों को इसके कारोबार से बाहर होना पड़ा। अगर भारत शुल्क समाप्त कर देता है तो सब्सिडी वाला सस्ता अमेरिकी अनाज बाजार में भर जाएगा और भारतीय उपज बिकेगी ही नहीं। इससे किसान अगली फसल बोने के पहले सौ बार सोचेंगे। इससे हम आयात पर निर्भर हो जाएंगे।

अगर बाद में वैश्विक कीमतें बढ़ीं तो भारत को महंगा आयात करना होगा ठीक वैसे ही जैसे घाना और नाइजीरिया को 2005-08 और 2010-11 के दौरान करना पड़ा था जब गेहूं और मक्के की कीमत क्रमशः 130 फीसदी और 70 फीसदी बढ़ गई थी। ऐसे उतार-चढ़ाव ने कई अफ्रीकी देशों की खाद्य सुरक्षा नष्ट कर दी है। भारत को इससे बचना चाहिए। 10 करोड़ से अधिक छोटे किसानों के साथ हमें गेहूं और चावल की कीमतों पर शुल्क लागू रखना चाहिए ताकि किसान सुरक्षित रह सकें और खाद्य आपूर्ति स्थिर रहे।

चावल पर से टैरिफ हटाने से उन समूहों को लाभ होगा जो देश की खाद्य नीतियों पर हमलावर हैं। अमेरिकी चावल फेडरेशन ने भारत को डब्ल्यूटीओ में बार-बार चुनौती दी है और आरोप लगाया है कि उसने सब्सिडी के नियम तोड़े और अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यक्रम और सरकारी खरीद कार्यक्रम के तहत कारोबार को बाधित किया है। अमेरिका के साथ शुल्क कम करने से भारत की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित होगी जो किसानों और उपभोक्ताओं दोनों का संरक्षण करती है। खाद्य सुरक्षा को भूराजनीति, जलवायु परिवर्तन और बाजार आकार दे रहे हैं, ऐसे में भारत को सावधान रहना चाहिए।

डेरी और पोल्ट्री: नीति आयोग का प्रपत्र कहता है कि भारत को अमेरिकी डेरी और पोल्ट्री उत्पादों पर शुल्क कम करना चाहिए और आयात को एसपीएस यानी सैनटरी ऐंड फाइटोसैनिटरी मानकों से विनियमित करना चाहिए। ये मानक खाद्य सुरक्षा और मानव, पशु और पादप स्वास्थ्य संरक्षण के लिहाज से डिजाइन किए गए हैं। अगर ऐसा किया गया तो एसपीएस के कमजोर उपायों से आयात को बल मिलेगा क्योंकि शुल्क की जगह एसपीएस को आसानी से चुनौती दी जा सकती है। अमेरिका लंबे समय से भारत के इस नियम का विरोध कर रहा है। कि यहां आने वाला दूध ऐसे जानवरों का नहीं होना चाहिए जिन्हें मांस या रक्त आधारित भोजन दिया जाता है। इसके अलावा देश का एसपीएस प्रवर्तन मजबूत तकनीकी समर्थन पर आधारित नहीं है। ऐसे में डेरी और पोल्ट्री पर शुल्क समाप्त करना गलत होगा।

जीएम कॉर्न, सोया सीडः नीति आयोग का कहना है कि एथेनॉल मिश्रण के लिए अमेरिकी मक्के का आयात किया जाए।
अभी भारत में यह प्रतिबंधित है। तर्क है कि ऐसा करने से देश की घरेलू खाद्य और चारा आपूर्ति में जीएम उत्पादों का प्रवेश रोका जा सकेगा। प्रपत्र में यह अनुशंसा भी की गई है कि जीएम सोयाबीन के बीजों को एक नियंत्रित मॉडल के अधीन आयात किया जाए जहां तटीय इलाकों में पिराई के बाद तेल को स्थानीय स्तर पर इस्तेमाल किया जाए और जीएम प्रभाव वाले सोयामील को निर्यात कर दिया जाए ताकि देश में फसलों या बीजों पर इसका कोई असर न हो ।

बहरहाल, देश की बिखरी हुई आपूर्ति श्रृंखला और कमजोर एसपीएस प्रवर्तन ऐसे नियंत्रण को हकीकत से परे बनाता है। एक बार जीएम उत्पादों के देश में आने के बाद उनके स्थानीय कृषि में शामिल होने की आशंका रहेगी। इससे खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, पर्यावरण को क्षति पहुंच सकती है और देश का निर्यात प्रभावित हो सकता है क्योंकि कई देश जीएम दूषण से बचते हैं। अनुशंसाएं: भारत को अमेरिका के साथ चल रही वार्ता में कृषि शुल्क कम करने के पहले सावधानी बरतनी चाहिए। एक बार शुल्क कम करने के बाद उन्हें दोबारा बढ़ाना मुश्किल होगा। भले ही वैश्विक कीमतें गिरें या भारतीय किसानों को नुकसान ‘हो। इससे भारत जोखिम में पड़ जाएगा। खासकर इसलिए क्योंकि अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने किसानों को भारी रियायत देते हैं।

शुल्क दरों को लचीला बनाए रखना पुराना संरक्षणवाद नहीं है। यह खाद्य सुरक्षा बचाए रखने, ग्रामीण आय में सुधार और बाजार झटकों से प्रबंधन के लिए जरूरी है। बढ़ती खाद्य असुरक्षा, जलवायु जोखिम और अनिश्चित व्यापारिक गतिविधियों के बीच भारत को अपने किसानों और उपभोक्ताओं के बचाव की व्यवस्था करनी चाहिए।

भारत को राज्य सरकारों, किसान संगठनों और विशेषज्ञों के साथ खुली और पारदर्शी चर्चा जारी रखनी चाहिए। उसके बाद ही मुक्त व्यापार समझौते में ऐसे निर्णय पर पहुंचना चाहिए। देश की करीब 70 करोड़ आबादी आज भी खेती पर निर्भर है। यह केवल आजीविका नहीं है बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था और देश की खाद्य व्यवस्था की रीढ़ भी है।


Date: 05-07-25

जन्मभूमि पर सावधान

संपादकीय

श्रीकृष्ण जन्मभूमि- शाही ईदगाह भूमि विवाद में एक नवा रुख महत्वपूर्ण और विचारणीय है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को जन्मभूमि पक्ष के एक आवेदन को खारिज कर दिया है। आवेदन में गुहार लगाई गई थी कि मामले में सुनवाई के दौरान ‘शाही ईदगाह मस्जिद’ शब्द की जगह ‘विवादित ढांचा’ शब्द का इस्तेमाल किया जाए। अगर यह शाब्दिक बदलाव किया जाता, तो एक तरह से यह इस विवाद पर निर्णायक फैसले जैसा होता । सुनवाई पूरी होने से पहले ही फैसले की एक दशा-दिशा तय हो जाती। विस्तार से समझे, तो आवेदन करने वाले अधिवक्ता द्वारा दायर हलफनामे में यह अनुरोध किया गया था कि अदालत अपने स्टेनोग्राफर और कर्मचारियों को औरंगजेब-युग की मस्जिद का नाम लेने के बजाय विवादित ढांचा शब्द का उपयोग करने के निर्देश जारी करे। नए नामकरण की यह कोशिश उच्च न्यायालय में अगर नाकाम हुई है, तो कोई अचरज नहीं। यह नामकरण पूरे मुकदमे को प्रभावित करता, अतः अदालत ने सही फैसला किया है। श्रीकृष्ण जन्मभूमि- शाही ईदगाह भूमि विवाद पर जो भी फैसला अंतिम रूप से आएगा, वह बहुत प्रभावी होगा, अतः ऐसे किसी पुख्ता फैसले तक पहुंचते हुए पूरी सावधानी से आगे बढ़ना चाहिए।

नामकरण या नाम परिवर्तन की ऐसी कोशिश पर पहले भी उचित आपत्ति जताई गई थी। अब जब अदालत ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है, तब जन्मभूमि पक्ष को छोटे-छोटे फैसले कराने की कोशिश करने के बजाय बड़े फैसले तक पहुंचने की जल्दी दिखानी चाहिए। यह विवाद जितनी जल्दी सुलझ जाए, उतना अच्छा है। बताया जाता है कि इस विवाद में पर्याप्त दस्तावेज या सुबूत मौजूद हैं, जिनका अदालत में परीक्षण होना है। निस्संदेह, पूरे परीक्षण और विचार के बाद ही कोई फैसला आएगा। जन्मभूमि पक्ष के याचिकाकर्ताओं का यह दावा है कि शाही ईदगाह मस्जिद भगवान कृष्ण के जन्मस्थान पर स्थित है, अतः जन्मभूमि पक्ष को भूमि पर कब्जा दिया जाए। मस्जिद के ढांचे को हटाया जाए, मूल मंदिर का निर्माण हो, वहाँ मुस्लिम मजहबी गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। यह याद रखने योग्य बात है कि जन्मभूमि पक्ष की ओर से करीब 18 मुकदमे दायर हैं। इनकी सुनवाई यथावत जारी रहेगी। नामकरण संबंधी आवेदन के खारिज होने का कोई असर मूल मुकदमों पर नहीं पड़ेगा। अब दोनों ही पक्षों को पूरे संगम का परिचय देना चाहिए। अदालत का ताजा रखन किसी के लिए बड़ी हार है और न किसी के लिए बड़ी जीत ।

महत्वपूर्ण बात यह है कि जन्मभूमि के पक्ष में दायर याचिकाओं को अदालत ने सुनने लायक माना है। पहले इन याचिकाओं को ईदगाह पक्ष ने चुनौती दी थी, पर अदालत ने चुनौतियों को खारिज कर दिया था। पिछले वर्ष 1 अगस्त को उच्च न्यायालय ने वक्फ अधिनियम, पूजा स्थल अधिनियम, 1991 और अन्य कानूनों के आधार पर ईदगाह पक्ष की आपत्तियों को खारिज करते हुए जन्मभूमि पक्ष द्वारा दायर याचिकाओं को सुनवाई योग्य माना था। अब जब सुनवाई आगे बढ़ गई है, तब ऐसी सावधानी के साथ आगे बढ़ना चाहिए कि कोई अनावश्यक विवाद या अड़चन न पैदा होने पाएं। एक बड़ी चिंता इस विवाद में राजनीति को लेकर है। अगर राजनीति होगी, तो अंतिम फैसले में अनावश्यक रूप से समय लगेगा। साथ ही, अशांति की आशंका भी बढ़ेगी। सुनवाई कर रही अदालत को यह सुनिश्चित करते हुए आगे बढ़ना चाहिए कि कोई भी पक्ष कानून से परे कोई कदम न उठाए।