03-09-2025 (Important News Clippings)
To Download Click Here.
INDIAI , Global Collaborative Agent
Why Xi’s call for proliferation makes sense
ET Editorials

Xi Jinping, not quite India’s new Donald Trump, urged SCO members on Monday to strengthen AI cooperation, while jettisoning a ‘Cold War mentality’. India should make the most out of this call-out. It’s tempting to cast the development of AI as an ‘arms race’ with a strong binary quotient where the Soviet Union has been replaced by the People’s Republic. But the parallels with nuclear proliferation can be deceptive. AI holds a far greater transformative potential, and the nature of its dispersion is completely different. China has already demonstrated its ability to take a big leap in GenAI at a fraction of the cost of development in the US with DeepSeek. This should encourage other nations like India to get cracking on foundation models and put AI on a broader evolutionary tree.
A non-proliferation regime based on access to semiconductors doesn’t seem promising because countries are already in a race to build their own chips — India’s first indigenous 32-bit processor chip was unveiled on Tuesday. The world is also pivoting towards RE, which should democratise AI use that needs a lot of power to crunch data. The critical input for ML is data created by humans, and that can only be served through proliferation. China is eminently suited to suggest a multipolar approach to AI, having acquired requisite capability. It has moved ahead with commercialisation of the tech, while the US is yet to make it profitable.
The US sees India playing a role in AI dispersion by bringing down development costs. Gaining access to Chinese innovation should help in this endeavour. It shouldn’t be difficult if both the US and China see India as a collaborative AI agent. Approaches to regulating AI (still) differ significantly in the two countries. India can gain by incorporating elements from either. This should also sit well with India’s position on the ethical development of AI. Closer engagement with China in hi-tech also helps India to reset its lopsided trade relations with it. The call for multipolar AI must be heeded by India.
Date: 03-09-25
Unmistakable shift
India signalled a change in foreign policy stance at the SCO Summit
Editorial
More than the outcomes, Prime Minister Narendra Modi’s decision to visit China for the Shanghai Cooperation Organisation (SCO) Summit was a clear message from the government on a shift in its foreign policy outlook. It has been seven years since Mr. Modi had travelled to China, and his meeting with Chinese President Xi Jinping was their first such bilateral engagement since the military standoff of 2020. It has been three years since Mr. Modi attended the SCO summit, a Eurasian grouping seen as decidedly anti-western. Meanwhile, photographs of the bonhomie between Mr. Modi, Mr. Xi and Russian President Vladimir Putin evoked memories of an inactive Russia-India-China (RIC) trilateral. The bilateral meeting with China saw the two leaders give their approval to the normalisation process initiated in October 2024, leading from troop disengagement along the LAC. The two sides agreed to fast-track the boundary resolution process being discussed by their Special Representatives. They also gave the green light for the resumption of direct flights, visa facilitation, and the building of economic ties to “stabilize world trade”. As Mr. Modi committed to “taking forward ties …based on mutual trust, respect and sensitivity”, Mr. Xi called for the “Dragon (China) and the Elephant (India) to come together”. Such bonhomie was unthinkable even a year ago, and it is clear that it has been driven, in some measure, by the U.S. moves to impose tariffs and sanctions on India, and New Delhi’s sense of mistrust about the Trump administration’s intentions. This allowed Mr. Modi and his delegation, for the moment, to side-step some of the concerns India has had over China’s actions, including its support to Pakistan during Operation Sindoor, the blocking of Indian moves on UNSC reforms and NSG membership, and holds on designating Pakistan-based terrorists.
It was significant that the Tianjin declaration included strong language against the “cross-border movement of terrorists”, albeit condemning the Pahalgam attack and attacks in Balochistan against Pakistani forces, in equal measure. The declaration also saw the entire SCO membership find common ground on contentious issues such as the humanitarian crisis in Gaza, and condemnation of U.S.-Israeli strikes on Iran, although India maintained its opposition to the paragraph supporting China’s Belt and Road Initiative. Mr. Xi’s plans for an SCO Development Bank, and Mr. Modi’s suggestion of initiating a “Civilisational Dialogue” between SCO members found mention. While the outcomes and the optics made for what Mr. Modi described as a “productive” visit to China, his itinerary missed some opportunities for closer engagement with leaders from India’s neighbourhood and the Global South, as he skipped the “SCO Plus” Summit.
डिजाइन इन इंडिया
संपादकीय
प्रधानमंत्री ने सेमीकान इंडिया कार्यक्रम में विश्व भर के निवेशकों को भारत आने का निमंत्रण देते हुए डिजाइन इन इंडिया की जो बात कही, वह मेक इन इंडिया का विस्तार ही है। इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का उल्लेख किए बगैर यह भी कहा कि भारत आर्थिक स्वार्थ से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार है। स्पष्ट है कि वे ट्रंप की मनमानी टैरिफ नीति की और संकेत कर रहे थे।
इसके पहले भी वे ट्रंप टैरिफ की चुनौतियों को रेखांकित करते हुए स्वदेशी का आह्वान कर चुके हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पिछले लगभग पांच वर्षों और विशेष रूप से कोविड महामारी के बाद से स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बातें हो रही हैं। जब स्वदेशी और आत्मनिर्भरता पर बल दिया जाता है तो कुछ उत्साही लोग और संगठन चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का अभियान चलाने लगते हैं।
इस सबके बीच तथ्य यह है कि न तो स्वदेशी अपनाने की दिशा में अपेक्षित ढंग से आगे बढ़ा जा पा रहा है और न ही देश को वास्तव में आत्मनिर्भर बनाने के लिए। आत्मनिर्भर बनने का लक्ष्य तभी पूरा होगा जब मेक इन इंडिया के साथ डिजाइन इन इंडिया के तहत जो पहल की जा रही है, वह कारगर साबित होगी।
इससे इन्कार नहीं कि मेक इन इंडिया पहल ने काफी कुछ प्रभाव दिखाया है और इसका प्रमाण यह है कि आज भारत में बड़ी संख्या में मोबाइल फोन बन रहे हैं और वे निर्यात भी हो रहे हैं। सेमीकंडक्टर निर्माण की दिशा में जो सफलता मिलती दिख रही है, वह भी इसी पहल का परिणाम है, लेकिन यह समझना कठिन हो रहा है कि भारतीय उद्योग जगत देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए वैसी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रहा है, जैसी उसकी ओर से की जानी चाहिए थी?
आखिर क्या कारण है कि भारतीय उद्योग जगत चीनी वस्तुओं पर निर्भर है? तमाम प्रयासों के बावजूद चीन से वे वस्तुएं तो आ ही रही हैं, जिनका उत्पादन भारत में आसानी से संभव नहीं, लेकिन इसके साथ ही उन वस्तुओं का भी बड़े पैमाने पर आयात हो रहा है, जिन्हें देश में सहज ही निर्मित किया जा सकता है और जो एक समय निर्मित होती भी थीं। यह ठीक नहीं कि रोजमर्रा की जरूरतों की वस्तुएं भी बड़े पैमाने पर चीन से आ रही हैं।
सरकार को उन कारणों का पता लगाकर उनका निवारण करना होगा, जिनके चलते अतिसंपन्न एवं समर्थ उद्योगपति भी शोध एवं विकास में पर्याप्त निवेश नहीं कर रहे हैं। जब तक वे ऐसा नहीं करेंगे, तब तक न तो चीन की चुनौती का सामना किया जा सकता है और न ही अमेरिका के भारत विरोधी रवैये का। अच्छा यह होगा कि सरकार छोटे एवं मझोले उद्यमियों को देश को आत्मनिर्भर बनाने के अपने अभियान में शामिल करे।
Date: 03-09-25
गरीबों का सशक्त बनाने वाली जनधन योजना
रमेश कुमार दुबे, ( लेखक निर्यात संवर्द्धन और विश्व व्यापार संगठन प्रभाग में अधिकारी हैं )

इसे विडंबना ही कहेंगे कि आजादी के 67 साल बाद भी देश के आधे परिवारों के लिए बैंकिंग तक पहुंच दूर का सपना था। वित्तीय सुरक्षा के अभाव में गरीबों के सपने कभी साकार नहीं हो पाते थे। तब भले ही बैंकों को गरीबों का हितैषी कहा जाता हो, लेकिन व्यावहारिक धरातल पर उनका ढांचा गरीबों के अनुकूल नहीं रहा। देश में गरीबी की व्यापकता एवं उद्यमशीलता के माहौल में कमी का एक बड़ा कारण बैंकों तक गरीबों की पहुंच न होना रहा।
1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद यह उम्मीद बंधी थी कि अब बैंकों की चौखट तक गरीबों की पहुंच बढ़ेगी, पर समय के साथ यह उम्मीद धूमिल पड़ती गई। 2013 में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने वित्तीय समावेशन पर नचिकेता मोर की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। समिति ने सभी लोगों तक वित्तीय सेवाएं पहुंचाने के लिए अधिक व्यापक वित्तीय ढांचे की सिफारिश करते हुअ कहा कि चूंकि गरीब बचत करते हैं, इसलिए उनके लिए एक ऐसी सुरक्षित एवं ब्याज कमाने वाली औपचारिक योजना की जरूरत है, जिस तक आसानी से पहुंच सुनिश्चित की जा सके।
आजादी के 67 वर्षों तक जहां आम आदमी को आसानी से बचत खाता तक नसीब नहीं हुआ, वहीं भ्रष्ट नेताओं-नौकरशाहों-ठेकेदारों के बैंक खाते विदेशी बैंकों में खुले। बैंकों की सीमित पहुंच का दुष्परिणाम यह हुआ कि हर स्तर पर बिचौलियों-भ्रष्टाचारियों की भरमार हो गई। इसे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने यह कहकर स्वीकार भी किया था कि विकास के लिए दिल्ली से चला एक रुपया गरीबों तक पहुंचते-पहुंचते 15 पैसा ही रह जाता है।
स्पष्ट है शेष 85 पैसा बिचौलियों-भ्रष्टाचारियों की जेब में जाता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने “सबका साथ-सबका विकास” के लिए आम जनता को बैंकिंग प्रणाली से जोड़ने का जो बीड़ा उठाया था, उसी के तहत थी जनधन योजना। “हर घर का पासबुक” जैसा महत्वाकांक्षी लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2014 को लाल किले की प्राचीर से पीएम जनधन योजना शुरू करने का ऐलान किया।
इस योजना की शुरुआत 28 अगस्त 2014 को हुई और इस दिन बैंकों ने गरीबों का खाता खोलने के लिए देश भर में 60,000 शिविर लगाए। पहले ही दिन देश भर में डेढ़ करोड़ बैंक खाते खोले गए। इस कामयाबी को देखते हुए प्रधानमंत्री ने 28 अगस्त को ‘वित्तीय स्वतंत्रता दिवस” करार दिया। आम तौर पर गरीबों की हितैषी वाली योजनाएं शुरू में तो धूम-धड़ाके के साथ होती हैं, लेकिन बाद में वे भ्रष्ट तत्वों के जीने-खाने का जरिया बन जाती हैं, परंतु जनधन योजना के साथ ऐसा नहीं हुआ। मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते 2014 के पांच महीनों में दस करोड़ से ज्यादा बैंक खाते खोले गए, जो एक विश्व रिकार्ड है।
गरीबों को बैंकिंग प्रक्रिया से जोड़ने की यह गति अभी भी जारी है। पिछले 11 वर्षों में 56.16 करोड़ बैंक खाते खोले गए हैं। इनमें से 67 प्रतिशत खाते ग्रामीण या अर्ध शहरी क्षेत्रों में खोले गए और 56 प्रतिशत खाते महिलाओं के हैं। इस प्रकार जनधन योजना वित्तीय समावेशन के साथ-साथ महिला सशक्तिकरण के लिए भी मील का पत्थर साबित हुई। इन खातों में कुल जमा राशि 2.68 लाख करोड़ है। इन खातों से जुड़े 38 करोड़ से अधिक रूपे कार्ड जारी किए गए हैं। इससे डिजिटल लेन-देन आसान हुआ है। एक तरह से इस योजना ने नकदी रहित भुगतान के लिए नींव का काम किया।
पीएम जनधन योजना की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि हर स्तर पर भ्रष्टाचारियों-बिचौलियों का उन्मूलन हो गया। आज केंद्र सरकार की 327 सरकारी योजनाओं का पैसा प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण (डीबीटी) के माध्यम से सीधे लाभार्थियों के बैंक खातों में जा रहा है। यदि केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्यों की योजनाओं को भी मिला लें तो कुल 1200 योजनाओं में से 1100 योजनाएं डीबीटी के दायरे में आ चुकी हैं। डीबीटी की सफलता में जेएएम यानी जनधन, आधार और मोबाइल का महत्वपूर्ण स्थान है। जेएएम के कारण ही भारत में डिजिटल पेमेंट का आंदोलन संभव हो पाया।
आज भारत में विश्व का 40 प्रतिशत रियल टाइम डिजिटल पेमेंट हो रहा है। इसीलिए भारत की डिजिटल क्रांति दुनिया भर में चर्चा का विषय बनी है। ब्लू क्राफ्ट डिजिटल फाउंडेशन के एक अध्ययन के अनुसार भारत की डीबीटी प्रणाली कल्याणकारी कार्यक्रमों में रिसाव को रोककर देश को 3.48 लाख करोड़ रुपये बचाने में मदद की है। रिपोर्ट में भी यह भी पाया गया कि डीबीटी के क्रियान्वयन के बाद से सब्सिडी आवंटन कुल सरकारी व्यय के 16 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत रह गया है, जो सार्वजनिक व्यय की दक्षता में एक बड़ा सुधार है।
जनधन योजना को मिली अभूतपूर्व सफलता को देखते हुए इस योजना के 11 साल पूरे होने पर प्रधानमंत्री मोदी ने यह रेखांकित किया कि जब अंतिम छोर पर खड़ा व्यक्ति वित्तीय रूप से जुड़ जाता है तो पूरा देश एक साथ आगे बढ़ता है। उन्होंने इसे उचित ही भारत की वित्तीय क्रांति की नींव बताया।
विकल्प के मोर्चे
संपादकीय
शक्ति का दंभ कई बार जल्दबाजी का वाहक बनता है और इस क्रम में जो फैसले लिए जाते हैं, अक्सर उन्हें लेकर ऊहापोह बना रहता है। ऐसी स्थिति में आशंकाओं के घेरे की वजह से विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक होती हैं। अमेरिका ने जिस तरह एकतरफा तौर पर अपने यहां आयातित वस्तुओं पर शुल्क लगाने का फैसला किया, वह पहले ही सवालों के घेरे में था। उसके बाद जब उसने रूस से तेल खरीदने को लेकर भी भारत पर दबाव बनाने की कोशिश की, तब यह साफ था कि वह व्यापार वार्ता में अपनी शर्तों पर भारत की हामी चाहता है। मगर पिछले कई दशकों के दौरान भारत और अमेरिका के बीच व्यापार का जो स्वरूप खड़ा हुआ है, उसमें भारत के लिए अमेरिका की हर बात मानना संभव नहीं है। यही वजह है कि अमेरिका के रुख में सख्ती के समांतर भारत ने झुकने के बजाय अपने लिए वैकल्पिक उपायों पर विचार करना शुरू कर दिया। एक शानदार कूटनीति का परिचय देते हुए भारत ने रूस और चीन के साथ बातचीत को आगे बढ़ाया और चीन के तियानजिन में हुए शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के घोषणापत्र में भी अपने हित के मुद्दे को शामिल कराने में कामयाबी हासिल की।
गौरतलब है कि रूस और भारत के बीच लंबे समय से मजबूत संबंध रहे हैं। चीन के साथ सीमा विवाद के कई प्रश्न हैं और उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन फिलहाल आर्थिक मुद्दों को केंद्र में रख कर भारत ने जो कूटनीतिक बिसात तैयार की है, उसमें रूस भी अहम भूमिका में है। अगर रूस और चीन के साथ संबंध सकारात्मक दिशा में आगे बढ़े तब स्वाभाविक ही इससे एक नया समीकरण बनेगा, जो आर्थिक और सामरिक दृष्टि से अमेरिका के लिए चुनौती साबित हो सकता है। यही वजह है कि शुल्क लगाने को लेकर बेहद हड़बड़ी में कदम उठाने के बाद से ही अमेरिका के राष्ट्रपति और अन्य नेताओं के आए दिन ऐसे बयान सामने आ रहे हैं, जिससे ऐसा लगता कि वे दबाव पैदा करके भारत के फैसलों को प्रभावित करना चाहते हैं। अमेरिका की ओर से एक दिन शुल्क लगाने से उपजी समस्या का समाधान निकालने की उम्मीद जताई जाती है, तो अगले ही दिन धमकी या दबाव की भाषा अख्तियार कर ली जाती है भारत ने अगर चीन में शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में ठोस भागीदारी के साथ-साथ रूस और चीन के साथ संबंधों को एक नया आयाम देने की कोशिश की, तो इसमें अमेरिका के विरोधाभासी रवैये की भी बड़ी भूमिका है। यह विचित्र है कि बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य के बीच अमेरिका को यह समझने की जरूरत नहीं लगी कि अब दुनिया एकध्रुवीय नहीं रह गई है। भारत निश्चित रूप से अपने हित में अमेरिका के साथ व्यापार वार्ता को एक संतुलित आकार देना चाहता है लेकिन अमेरिका के लिए अपनी शर्तें ज्यादा अहम हो गई लगती हैं। यही वजह है कि भारत ने वैकल्पिक उपाय के रूप में रूस और चीन के साथ सहयोग के मोर्चे की दिशा में ठोस कदम उठाए। जब इसके नतीजे में रूस और चीन की ओर से भारत को लेकर एक विवेकसम्मत प्रतिक्रिया देखने को मिलने लगी है, तो अमेरिका के व्यापार सलाहकार इसे चिंताजनक बता रहे हैं। सवाल यह है कि अगर अमेरिका अपने ही विरोधाभासी फैसलों से घिरा रहता है, तो उसे भारत के अपने हित में उठाए गए कदमों से परेशानी क्यों होनी चाहिए। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बहुध्रुवीय विश्व में अमेरिका सहित किसी भी एक देश की मनमानी नहीं चल सकती।