02-08-2025 (Important News Clippings)

Afeias
02 Aug 2025
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Date: 02-08-25

Deep ties

India needs to engage its neighbours more closely

Editorials

Prime Minister Narendra Modi’s visit to the Maldives last week, after an invitation by Maldives President Mohamed Muizzu to be a special guest for the country’s 60th Independence Day, signalled the full return of relations to the closeness they held during the previous Ibrahim Solih government. Although the two leaders had not gotten off to the best start in 2023, after Mr. Muizzu’s surprise win, backed by an “India Out” campaign-this was followed by a “Boycott Maldives” social media campaign in India – they have been on the mend for the past year. During Mr. Muizzu’s 2024 state visit to India, India had announced measures including lines of credit and a currency swap arrangement to support the Maldives during its economic troubles. Mr. Muizzu reflected gratitude when he described India’s role in the Maldives as “pivotal” and Mr. Modi reciprocated the warmth. india announced a line of credit worth $565 million (4,850 crore) and reduced the annual debt burden for Maldives on previous Indian lines of credit by 40%. There was also the launch of India-Maldives Free Trade Agreement negotiations, which will be a significant driver of future engagement. There was the signing too of MoUs for cooperation in fisheries, meteorological sciences, digital solutions and pharma, as well as a digital and rupee-rufiyaa national currency payments agreement. Over the past six decades, India has cultivated a strong security partnership with the Maldives, including trilateral national security consultations with Sri Lanka, and it is significant that after Mr. Modi’s visit, Mr. Muizzu welcomed Sri Lankan President Anura Kumara Dissanayake for a state visit.

The Maldives visit was also a reaffirmation of the importance of India’s “Neighbourhood First” policy, at a time when Indian foreign policy is fac ing headwinds linked to the U.S.’s trade tariffs and the conflicts in Ukraine and Gaza. The conflict with Pakistan after the Pahalgam attacks, and tensions with Bangladesh have engaged the government’s attention. New Delhi has also been preoccupied with reaching out to different countries, following Operation Sindoor, but did not send delegations to neighbouring countries. It is heartening that New Delhi is preparing to welcome Nepal Prime Minister K.P. Sharma Oli, who has not been invited to India since he took office a year ago. A commemorative stamp by the Maldives for its national day celebrations showed traditional Indian and Maldives boats, which Mr. Modi described as a reflection of India and the Maldives being not just neighbours “but also fellow voyagers on a shared journey”. In a time of global economic turmoil, a closer engagement with the neighbours – one that shores up their economic needs and supports their plans for development where possible – is essential.


Date: 02-08-25

अमेरिकी धौंस के आगे बिल्कुल न झुके भारत

श्याम सरन, ( लेखक विदेश सचिव रह चुके हैं )

पिछला एक हफ्ता भारत की आंखें खोलने वाला रहा है। राष्ट्रपति के तौर पर डॉनल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत और अमेरिका के बीच साझेदारी नई ऊंचाइयों पर पहुंचने की उम्मीदें उस समय चकनाचूर हो गईं, जब ट्रंप ने अपने ‘मित्र’ भारत पर 25 फीसदी शुल्क लगाने का ऐलान कर डाला। यही नहीं उन्होंने रूस से हथियार और तेल खरीदने, ईरान से पेट्रोलियम उत्पाद खरीदने तथा ब्रिक्स प्लस का सदस्य होने के कारण भारत पर जुर्माना लगाने की बात भी कही।

हालांकि जुर्माना कितना होगा, यह अभी नहीं पता है। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को मृत प्राय बताते हुए कहा कि यह भी उसी तरह गर्त में चली जाएगी, जैसे उनके पुराने दोस्त रूस की अर्थव्यवस्था जा रही है। अब यह मामला व्यापार या शुल्क की जंग भर का नहीं रह गया है बल्कि भूराजनीतिक चुनौती बन गया है, जहां अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी दोस्तों और दुश्मनों को झुकाने की अपनी सनक में वाणिज्यिक उपायों को हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ देशों ने उनकी अतिरंजित और भेदभाव भरी मांगों के सामने घुटने टेक दिए हैं और अमेरिका में भारी निवेश का वादा किया है, जो पता नहीं ट्रंप का कार्यकाल समाप्त होने तक पूरा हो पाएगा या नहीं।

चीन जैसे अन्य देशों ने अपनी वाणिज्यिक बढ़त का इस्तेमाल कर अमेरिका का प्रतिरोध किया है। मगर भारत के पास तो इस तरह की बढ़त भी नहीं है तो क्या उसे चुपचाप अमेरिकी मनमानी सहन कर लेनी चाहिए ?

धौंस जमाने वालों से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उनकी धौंस नहीं सही जाए। अगर पहली बार में ही झुक गए तो भविष्य में और भी दबाव पड़ सकता है तथा बार-बार घुटने टेकने पड़ सकते हैं। अभी जान छुड़ाने के लिए छोटी कीमत चुका दी गई तो भविष्य में बड़ी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा । भारत अगर अभी ट्रंप की मांगों के खिलाफ खड़ा नहीं होता है तो आ चलकर अमेरिका की फरमाइशें बढ़ती ही जाएंगी और वह बड़ी रियायतें मांगेंगे। अगर हमने अभी सीमा रेखा नहीं खींची तो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और दुनिया में इसकी विश्वसनीयता तथा प्रभाव के लिए दुष्परिणाम होंगे।

क्या भारत को अपने प्रतिरोध की कीमत चुकानी होगी? बिल्कुल चुकानी होगी और हमें इसके लिए तैयार भी रहना चाहिए। अमेरिका के साथ हमारे आर्थिक और वाणिज्यिक रिश्तों की सीमा क्या है? 2024-25 में भारत और अमेरिका के बीच कुल 186 अरब डॉलर का व्यापार हुआ, जो भारत के कुल व्यापार का 10.73 फीसदी है। भारत का 8 फीसदी निर्यात अमेरिका जाता है और अमेरिका से हम 6 फीसदी आयात करते हैं। 10 फीसदी व्यापार की निर्भरता ज्यादा तो है मगर ऐसा भी नहीं है कि उसका खत्म होना बरदाश्त नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की बात करें तो उसी साल अमेरिका चौथे नंबर पर रहा और भारत में 81.04 अरब डॉलर की कुल आवक में उसका योगदान केवल 11 फीसदी रहा। हिस्सेदारी का यह आंकड़ा ज्यादा तो है मगर इतना ज्यादा नहीं है कि उसे किसी अन्य देश से हासिल न किया जा सके। अनुमान है कि उच्च टैरिफ लागू होने के बाद भारत के सकल घरेलू उत्पाद में दो फीसदी तक कमी आ सकती है। परंतु यह बहुत बड़ी कीमत नहीं है। अतीत में जब हम कमजोर देश थे तब भी अहम मसलों पर अपना रुख साफ करने की कीमत हमने चुकाई है।

ट्रंप के कदमों के भूराजनीतिक परिणाम और भी चिंतित करने वाले हो सकते हैं। वह अन्य देशों के साथ भारत के रिश्तों पर वीटो चाहते हैं, यानी चाहते हैं कि अमेरिका तय करे कि भारत किसके साथ कैसे रिश्ते रखे। इसे पुरजोर तरीके से नकारा जाना चाहिए। भारत के पास ब्रिक्स प्लस और क्वाड में बने रहने की पर्याप्त वजह है। रूस के साथ हमारा रिश्ता कई तरह से हमारे हित में है। हालांकि इसमें अब कुछ विविधिता आ रही है लेकिन उसकी अपनी वजह हैं। अमेरिकी विदेश नीति में जिस तरह किसी एक की सनक के कारण पल भर में दुश्मन और दोस्त बदल जाते हैं, उसे देखते हुए जरूरी है कि भारत साझेदारियों का अपना नेटवर्क बनाए रखे तथा मजबूत करे। अन्य देशों के साथ भारत के रिश्तों में सबसे अहम रही है उसकी विश्वसनीयता । विभिन्न देश भारत पर भरोसा कर सकते हैं कि उसके
साथ रिश्तों में निरंतरता बनी रहेगी। हमें एक अस्थिर चित्त वाले नेता के फेर में अपनी यह साख गंवानी नहीं चाहिए। भले ही वह दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क का मुखिया क्यों न हो? हमने दशकों में जो विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा अर्जित की है उसे इस हाथ दे उस हाथ ले वाले रिश्ते की भेंट नहीं चढ़ा देना चाहिए।

भारत को अपनी अर्थव्यवस्था को और भी बहिर्मुखी बनाना चाहिए मगर ऐसा अपने हित के लिए करना चाहिए, ट्रंप की मांगें पूरी करने के लिए नहीं। अच्छी बात यह है कि भारत ने कुछ व्यापार समझौते कर लिए हैं और उसे दोगुनी तेजी के साथ ऐसे अन्य समझौतों की दिशा में बढ़ना चाहिए जैसे यूरोपीय संघ के साथ समझौता। भारत ने बिना किसी ठोस वजह के स्वयं को दक्षिण-पूर्व एशिया के जीवंत आर्थिक क्षेत्र से अलग कर लिया है। उसे डर है कि चीन उस मार्ग का इस्तेमाल अपने माल को भारत में खपाने के लिए कर सकता है। परंतु इससे भारत को चीन से होने वाले निर्यात में कोई कमी नहीं आई है और इस समय वह अपने सबसे ऊंचे स्तर पर है। हमें पूर्व के अपने पड़ोसियों के साथ आर्थिक जुड़ाव का रास्ता दोबारा तैयार करना होगा क्योंकि वह अहम भूराजनीतिक पहलू है।

इस क्षेत्र के अधिकांश देश चाहते हैं कि भारत चीन को टक्कर देने वाला भरोसेमंद देश बने मगर यह तब तक संभव नहीं है। जब तक हमारे पास मजबूत आर्थिक आधार न हों। भारत को व्यापक एवं प्रगतिशील प्रशांत पार साझेदारी (सीपीटीपी) का हिस्सा बनने के लिए आवेदन करना चाहिए, जहां फिलहाल न तो चीन है और न ही अमेरिका । आज के हालात में खुद को ट्रंप की नीतियों से बचाने के लिए शायद सबसे अच्छा रास्ता यह साहसी कदम ही होगा।

अंत में एक बात उन लोगों के लिए जो सोचते हैं कि हमें झुक जाना चाहिए और ट्रंप के कार्यकाल को किसी तरह गुजार लेना चाहिए क्योंकि जल्द ही अच्छे दिन लौट आएंगे। जमीनी हालात अगर किसी भी वजह से एक बार बदल जाते हैं तो उन्हें वापस पहले जैसा करना बहुत मुश्किल होता है।


Date: 02-08-25

रूस में जापान जैसा कहर

प्रमोद भार्गव

तीन ‘साल से भी अधिक समय से यूक्रेन से युद्ध लड़ रहे रूस में 8.8 तीव्रता के भीषण भूकंप ने नई त्रासदी खड़ी कर दी है। रूस के पूरब में स्थित कामचटका प्रायद्वीप में 30 जुलाई 2025 को आए भूकंप के झटकों से कामचटका और पास के कुरील द्वीप समूह के भूखंड हिल गए। इसे विश्व में आए सबसे तीव्र भूकंपों में दर्ज किया गया है। इस प्राकृतिक आपदा से भारी नुकसान और अनेक लोगों के घायल होने की सूचनाएं हैं। इसके असर से प्रायद्वीप के समुद्र तटों से 16 फीट ऊंची सुनामी जैसी लहरें टकराईं जिससे तटीय इलाकों में भारी नुकसान हुआ है। इसकी तुलना मार्च, 2011 में जापान में आए 9.0 तीव्रता के भूकंप से की जा रही है। इसे समुद्री सुनामी कहा गया था। इस सुनामी से जापान के फुकुशिमा दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र का कूलिंग सिस्टम निष्क्रिय करना पड़ा था। अलास्का स्थित राष्ट्रीय सुनामी चेतावनी केंद्र के समन्वयक डेव स्नाइडर का कहना है कि सुनामी जैसी लहरों का प्रभाव कई घंटों या एक दिन से भी अधिक समय तक रह सकता है। सुनामी केवल एक लहर नहीं होती, बल्कि यह लंबे समय तक चलने वाली शक्तिशाली लहरों की एक श्रृंखला होती है। सुनामी एक विमान की गति से सैकड़ों मील प्रति घंटे की रफ्तार से समुद्र पार करती है किंतु जब लहरें किनारे के निकट पहुंचती हैं, तब उनकी गति धीमी पड़ जाती है किंतु किनारे पर इनके एकत्रीकरण से जल प्रलावन की आशंका बढ़ जाती है। इस कारण पानी की ये लहरें धरती पर पहुंचती हैं, और आगे-पीछे होती रहती हैं।

दुनिया में अब तक 8.6 तीव्रता से 9.5 तीव्रता के भूकंप चिली, अलास्का, सुमत्रा, तोहोकू कामचटका (1952), चिली (2010), इक्वाडोर, अलास्का (1965), अरुणाचल प्रदेश भारत और सुमात्रा (2012) आए हैं। इनमें जान-माल का भारी नुकसान हुआ है।

दरअसल, दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविद् की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में हमारा भी हाथ होता है। प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन से छोटे स्तर के भूकंपों की पृश्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी, लेकिन अब यह घट कर 4 साल हो गई है। भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल, 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उससे 20 थर्मान्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहां हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा – नागाशाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था । 2011 में जापान और फिर क्योटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चलता है कि धरती के गर्भ में अंगड़ाई ले रहीं भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अंगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भी भूकंप के मुहाने पर हैं।

भूकंप आना कोई नई बात नहीं है । जापान, इक्वाडोर और नेपाल समेत पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए।

प्राकृतिक आपदाएं अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकीकरण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज हैं। यह कथित विकासवादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन कर पृथ्वी को खोखला करने का ऐसा उपाय है, जो ब्रह्मांण्ड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहा है। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन, जो कॉर्बन गैसें बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है।