30-08-2025 (Important News Clippings)
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गैर-जरूरी कानूनों को सरल बनाना जरूरी है
संपादकीय
जन विश्वास (संशोधन) बिल 2025 दो साल के भीतर सरकार का उन गैर-जरूरी लेकिन सख्त कानूनों को बदलने और उन्हें गैर-आपराधिक बनाने का दूसरा प्रयास है, जिनकी भरमार के कारण अदालतों में अहम मामले वर्षों लम्बित रहते हैं। पहला संशोधन 2023 में किया गया था, जिसके तहत 42 केंद्रीय कानूनों के प्रावधानों को खत्म किया गया था। नए बिल में 16 कानूनों में जेल की सजा के प्रावधानों को खत्म कर पहले दोष पर चेतावनी और दूसरे पर आर्थिक दंड का प्रावधान लाया गया है। स्वच्छ ऊर्जा आज भी सरकार का ड्रीम प्रोजेक्ट है, न केवल पर्यावरण के लिहाज से बल्कि 2047 तक विकसित भारत बनाने के लक्ष्य के लिए भी। लेकिन एक ताजा अध्ययन को देखें तो लगता है कि उदारीकरण से 25 साल में विकास ने जो गति पकड़ी थी, शासकीय मकड़जाल और भ्रष्टाचार ने उसे फिर गिरफ्त में ले लिया है। इसके अनुसार अगर कोई उत्तर भारत की कंपनी महाराष्ट्र में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाती है तो उसे हर साल केंद्रीय, राज्य या स्थानीय निकाय के नियमों, कानूनों और उपबंधों की कुल 2735 शर्तों का अनुपालन करना होगा। इनमें से 83 ऐसी शर्तें हैं, जिनके उल्लंघन पर जेल की हवा खानी पड़ेगी। ऐसे में कोई उद्यमी कैसे इस सिस्टम में उद्यम लगाने की हिम्मत करेगा। ऐसे में जन विश्वास (संशोधन) बिल एक अच्छा प्रयास है।
Date: 30-08-25
अमेरिकी टैरिफ भारत के लिए आपदा में अवसर की तरह
बिजनेस
अमेरिका के टैरिफ ने भारत के सामने दुविधा की स्थिति पैदा की है। ट्रम्प ने पाकिस्तान को गले लगाकर भारत-अमेरिका के रिश्तों को ताक पर रख दिया है। भारतीय पीएम मोदी ने टैरिफ के जवाब में आत्मनिर्भर देश का रास्ता पेश किया है। वे चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलने वाले हैं भारत को अलग कर अमेरिका ने भूल की है। इन स्थितियों में भारत के महाशक्ति बनने के दावे की परीक्षा है। वह टैरिफ के झटकों को संभालने की स्थिति में है।
ट्रम्प ने दो तरह से भारत को अपमानित किया है भारत रूसी तेल खरीदता है इसलिए 27 अगस्त से 25% सरचार्ज लगाया है। यह 25% टैरिफ से अलग है। चीन सहित कई देश रूसी तेल खरीदते हैं। लेकिन भारत को दंडित किया गया है। दूसरा घटनाक्रम पाकिस्तान से ट्रम्प का प्रेम है। पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद भारत-पाक के बीच मई में चार दिन तक लड़ाई चली थी। फिर भी ट्रम्प पाकिस्तान के साथ क्रिप्टो करंसी व माइनिंग पर करार की संभावनाएं खोज रहे हैं।
अमेरिका के रवैये से भारत का भरोसा टूटा है। 2004 के बाद अमेरिका के राष्ट्रपतियों ने एशिया में चीन का विरोध करने वाली लोकतांत्रिक ताकत के रूप में भारत का समर्थन किया है। भारत की अर्थव्यवस्था 351 लाख करोड़ रु. की है। स्टॉक मार्केट 439 लाख करोड़ रु. है। दूसरी ओर चीन पर निर्भर पाक अस्थिरता, कर्ज, आतंकवाद के कारण ध्वस्त हो चुका है। भारत के मामले में ट्रम्प का रुख अमेरिकी हितों के खिलाफ सेल्फ गोल है।
इन हालात में बहुत लोग भारत की महाशक्तियों से अलग रहने की नीति को सही मानते हैं। भारत कुछ हथियारों के लिए रूस पर निर्भर है तो कुछेक के लिए यूरोप, इजराइल व अमेरिका पर मैन्युफैक्चरिंग के लिए चीन से सप्लाई होती है। पश्चिमी देशों का मार्केट और टेक्नोलॉजी उसके काम आती है। 2020 में चीन से सीमा पर झड़प के बाद वॉशिंगटन को उम्मीद थी कि यह अमेरिका से अर्द्ध गठजोड़ का मौका है। 2024 में मजबूत रक्षा संबंधों के लिए सामरिक करार हो गया। बहरहाल पिछले कुछ महीनों की घटनाओं से ग्लोबल गठबंधनों पर संदेह करने वाले भारतीयों की आशंकाओं की पुष्टि हुई है। उन्होंने हमेशा अमेरिका पर निर्भरता को खतरनाक बताया है। मोदी की आगामी चीन यात्रा से संकेत मिलता है कि भारत के पास विकल्प हैं।
अमेरिका के फैसलों से भारत की क्षमताओं और ताकत की परीक्षा का मौका अब आ गया है। पिछले 11 साल से मोदी राष्ट्र निर्माण, आधुनिकीकरण, केंद्रीकरण के रास्ते पर चल रहे हैं। औद्योगीकरण अभियान के मामूली नतीजे मिले हैं। नए जॉब पैदा नहीं हुए हैं। लेकिन कई कामयाबियां भी हैं। नई सड़कों, विमानतलों, डिजिटल पेमेंट्स और टैक्स प्लेटफार्म के कारण सिंगल मार्केट बना है। फाइनेंशियल सिस्टम मजबूत है। इन कारणों से भारत को टैरिफ के धक्के से उबरने में मदद मिलेगी। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का कहना है, 2028 तक भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हो जाएगा। अमेरिका के आक्रामक रुख से भारत में पश्चिम विरोधी भावनाएं पैदा हो सकती हैं।
कई क्षेत्रों में आर्थिक सुधारों की जरूरत
विशेषज्ञों के अनुसार अमेरिकी टैरिफ के नुकसान को सीमित करने के लिए भारत कई रियायतें दे सकता है। भारत रूसी तेल की खरीद कम करके अमेरिकी गै समझौतों के समान कुछ नए व्यापार करार किए जा का आयात बढ़ा सकता है। ब्रिटेन, यूएई से हुए सकते हैं। बिजनेस, खेती, जमीन और बिजली सहित कई क्षेत्रों में बड़े सुधार वर्षों से नहीं हुए हैं।
भारत निर्यात पर ज्यादा निर्भर नहीं
भारत माल निर्यात पर कम निर्भर है। वियतनाम के 85% की तुलना में जीडीपी में भारत के निर्यात का हिस्सा केवल 11% है। स्मार्टफोन, फार्मा जैसे बड़े निर्यात को ट्रम्प के नए टैरिफ से छूट मिली है। ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिएशिटिव के अजय श्रीवास्तव मानते हैं, आने वाले महीनों में भारत की अर्थव्यवस्था हिलेगी नहीं बल्कि उसमें थोड़ी बहुत हलचल होगी।
भारत-चीन संबंध
संपादकीय
जापान के बाद चीन पहुंच रहे भारतीय प्रधानमंत्री पर भारत के साथ-साथ विश्व की भी निगाहें होंगी, क्योंकि एक तो वह सात वर्षों बाद वहां जा रहे हैं और दूसरे ऐसे समय जा रहे हैं, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की मनमानी टैरिफ नीति से विश्व परेशान है । यद्यपि प्रधानमंत्री मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में शामिल होने जा रहे हैं, लेकिन वहां उनकी मुलाकात चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भी होगी और यह स्वाभाविक ही है कि इस दौरान दोनों देशों के संबंधों पर भी बातचीत होगी। यह होनी भी चाहिए, क्योंकि दोनों देशों के बीच कुछ मुद्दे अनसुलझे हुए हैं और उनके कारण संबंधों में अविश्वास एवं खिंचाव है। देखना यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच की मुलाकात दोनों देशों के संबंधों में भरोसा और सहयोग कायम करने में सहायक बनती है या नहीं? जो भी हो, भारत को अपने हितों की पूर्ति के लिए चीन से सुधरते संबंधों का अधिकतम उपयोग करना चाहिए और एससीओ के साथ-साथ ब्रिक्स जैसे मंचों को भी अपने पक्ष में भुनाना चाहिए। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने भारत को निशाने पर ले रखा है। वैसे तो चीन भी उनके निशाने पर है, लेकिन भारत के खिलाफ उनकी निगाह कुछ ज्यादा ही टेढ़ी है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि ट्रंप की बेतुकी टैरिफ नीति के कारण ही चीन ने भारत से संबंध सुधारना बेहतर समझा। समय की मांग को देखते हुए भारत ने भी ऐसा ही करना उचित समझा।
भारत के लिए तेज गति से विकास अनिवार्य है। भारत की सर्वोच्च प्राथमिकता तीव्र विकास और जितनी जल्दी संभव हो, चीन के बराबर खड़ा होने की कोशिश होनी चाहिए। इससे ही देश वास्तविक महाशक्ति बनेगा। चूंकि चीन के साथ दशकों से अनसुलझे मुद्दे रातों-रात नहीं हल होने वाले, इसलिए भारत की कोशिश यही होनी चाहिए कि वह तेज विकास और विशेष रूप से मैन्यूफैक्चरिंग में समर्थ बनने में चीन से सीख ले। भारत इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि तेज आर्थिक विकास के मामले में चीन उससे कहीं आगे है । वह दुनिया का कारखाना तो बना ही हुआ है, आधुनिक तकनीक के मामले में भी अपनी छाप छोड़ रहा है। कुछ मामलों में तो वह अमेरिका को भी चुनौती दे रहा है। इसी कारण अमेरिकी राष्ट्रपति टैरिफ मामले में चीन के प्रति अपेक्षाकृत नरमी दिखाने को विवश हैं। यह ठीक है कि चीन अधिनायकवादी व्यवस्था वाला देश है, लेकिन विकास के मामले में भारत उसके कुछ तौर-तरीकों को तो अपना ही सकता है। अपने द्रुत आर्थिक विकास के लिए भारत को चीन ही नहीं, विश्व के अन्य देशों के श्रेष्ठ उदाहरणों का अनुकरण करने में संकोच नहीं करना चाहिए।
Date: 30-08-25
सरकारी शिक्षा तंत्र से दूरी
संपादकीय
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के नवीनतम समग्र मॉड्युलर शिक्षा सर्वेक्षण के नतीजों ने एक जाहिर तथ्य को रेखांकित किया है और वह यह कि सरकारी स्कूलों की व्यवस्था विफल हो रही है। यह हमारे जनसांख्यिकीय रुझानों को भी प्रभावित कर रहा है। सर्वेक्षण बताता है कि 2017-18 से शहरी और ग्रामीण इलाकों में सरकारी स्कूलों में छात्र- छात्राओं की उपस्थिति कम हुई है। ग्रामीण भारत में तो उपस्थिति में गिरावट चिंताजनक स्तर पर रही है। वहां सरकारी स्कूलों में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी 68 फीसदी से घटकर 2025 में 58.9 फीसदी रह गए। शहरी इलाकों में कम गिरावट आई और यहां ऐसे विद्यार्थी 38.9 फीसदी से कम होकर 36.4 फीसदी रह गए। नए नामांकनों की बात करें तो उनमें भी सभी स्तरों पर भारी गिरावट आई है। प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर स्तर की बात करें तो प्राथमिक और माध्यमिक में तीव्र गिरावट आई है।
सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या इतनी तेजी से कम होने के बावजूद एक तथ्य यह भी है कि निजी शिक्षा भी कोई सस्ती नहीं है। सर्वेक्षण बताता है कि सरकारी स्कूलों में अभिभावकों द्वारा होने वाला शैक्षणिक व्यव, निजी स्कूलों में होने वाले खर्च की तुलना में बहुत मामूली होता है। ग्रामीण भारत में दोनों में सात गुने का अंतर है। विडंबना यह है कि कई प्रमाण बताते हैं। कि निजी स्कूल भी बहुत स्तरीय शिक्षा नहीं प्रदान कर रहे हैं। सर्वे बताता है कि तकरीबन 27 फीसदी बच्चे निजी कोचिंग में पढ़ते हैं। इनमें 31 फीसदी शहरी और 25.5 फीसदी ग्रामीण इलाकों में रहने वाले हैं। सरकारी से महंगी निजी शिक्षा की ओर इस स्थानांतरण को बढ़ती समृद्धि और छोटे परिवारों में इजाफे के रूप में भी देखा जा सकता है जिसके चलते अधिक भारतीय अपने बच्चों को उन निजी स्कूलों में भेज पा रहे हैं जो उनकी दृष्टि में अच्छे हैं। हालांकि बहुत से निजी स्कूल किताब, गणवेश और अन्य चीजों के बदले भी पैसे लेते हैं।
परंतु सरकारी स्कूलों की लगातार खस्ता होती हालत ने भी निजी स्कूलों का चयन किए जाने में अहम भूमिका निभाई है। बुनियादी समस्या जवाबदेही की कमी में है जिसके चलते अधोसंरचना कमजोर है और शिक्षण के मानकों में भी काफी अंतर है। शिक्षकों की गैरमौजूदगी के रूप में इसे भलीभांति महसूस किया जा सकता है। देश के सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन विकासशील देशों में तुलनात्मक रूप से सबसे बेहतर है। खासतौर पर छठे और सातवें वेतन आयोग के बाद इनमें काफी सुधार हुआ है। इसके बावजूद देशव्यापी सर्वेक्षण बताता है कि शिक्षकों की अनुपस्थिति 25 फीसदी तक और कुछ राज्यों में यह 46 फीसदी तक हो सकती है। एक और शिक्षक अपना काम नहीं कर रहे हैं तो वहीं सरकारी स्कूलों में बड़े पैमाने पर रिक्तियां समस्या को और बढ़ाती हैं। निजी स्कूलों में वेतन भत्ते सरकारी स्कूलों से कम होने के बावजूद वहां ऐसी समस्या नहीं है, जबकि वहां पेंशन या अन्य लाभ भी नहीं मिलते।
सरकारी और निजी शिक्षा में इस अंतर का नतीजा समाज में बढ़ती असमानता के रूप में सामने आ रहा है। जो लोग महंगे निजी स्कूलों की फीस चुका सकते हैं, वे अब वहां की और रुख कर रहे हैं। इसका मतलब यह है कि सरकारी शिक्षा प्रणाली, जो पहले से ही कई गंभीर समस्याओं से जूझ रही है, अब केवल गरीब और हाशिए पर रहने वाले वर्गों तक सीमित रह जाएगी। ऐसे एक बेहद खराब प्रदर्शन करने वाले शिक्षा तंत्र से निकलने वाले छात्र बेहतर वेतन वाली नौकरियों व अवसरों से और दूर होते जाएंगे और न्यूनतम वेतन वाली नौकरियों में फंसे रहेंगे।
सरकारी शिक्षा एशियाई टाइगर्स कहलाने वाले देशों और चीन की सफलता की बुनियाद रही है उससे दूरी बनाकर सरकार जनता के हित में काम नहीं कर रही है।
बदलती भू-राजनीतिक स्थिति
डॉ. सुरेन्द्र कुमार मिश्र
यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि राजनीति तथा कूटनीति में कोई स्थायी मित्र एवं स्थायी शत्रु नहीं होता। जैसा कि आखिरकार अमेरिका ने भारतीय उत्पादों पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत शुल्क लागू करने की योजना का विवरण देते हुए नोटिस जारी किया जिससे अमेरिका को भारत के लगभग 48 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक मूल्य के निर्यात पर प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पड़ेगा। अमेरिका द्वारा टैरिफ बढ़ाना उसके दबाव, दमन एवं दादागिरी का ही अविवेकपूर्ण निर्णय कहा जा सकता है। राष्ट्रपति ट्रंप की इस टेढ़ी चाल अथवा टैरिफ टेरर से अमेरिकी अर्थशास्त्री, रणनीतिकार एवं राजनेता तक हतप्रभ हैं। अमेरिका के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी चीन के प्रति आकस्मिक प्रेम का उभार आखिरकार, वैश्विक व्यवस्था की भू-राजनीति की दिशा को किस ओर ले जाएगा?
भारत एवं चीन एशिया की दो सबसे प्रमुख शक्तियां हैं, जो वैश्विक राजनीति, अर्थव्यवस्था तथा सामरिक संतुलन स्थापित करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभाती हैं। तियानजिन (चीन) में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन इस संगठन के इतिहास का सबसे बड़ा शिखर सम्मेलन होगा। इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी सहभागिता कर हैं। पीएम मोदी 31 अगस्त से 1 सितम्बर तक चीन में रहेंगे। एससीओ की शिखर बैठक के साथ ही अनेक द्विपक्षीय बैठकों में भी भाग लेंगे। इनमें ट्रंप के टैरिफ का तोड़ भी तय हो सकने की संभावना है। चीन भली-भांति जानता है कि अस्थिर सोच वाले डोनाल्ड ट्रंप की अगली चाल क्या होगी? अतः अमेरिकी आर्थिक व्यवस्था का मुकाबला करने के लिए चीन भी अपनी नई पैंतरेबाजी तैयार करने में चूकेगा नहीं।
अमेरिका को भी पता है कि भारत और चीन को एक साथ अपना व्यापारिक दुश्मन बनाना खतरे से खाली नहीं है। चीन रूस मित्रता की बात जगजाहिर है ही, जिससे चीन पर नकेल लगाने की चाल में अमेरिका चूक नहीं करेगा। चीन-पाकिस्तान मित्रता को भी अमेरिका तोड़ने के लिए अपना आर्थिक हस्तक्षेप करने के कथकंडे अपना रहा है। चतुर चीन के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए अमेरिका फूंक-फूंक कर कदम उठा रहा है | अमेरिका का दोहरा चरित्र जगजाहिर हो चुका है। एक ओर चीन पर लगाम लगाने के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान के साथ भारत क्वाड का हिस्सा बन कर समुद्री सुरक्षा और चीन की विस्तारवादी नीति का संतुलन बनाने का प्रयास कर रहा है, तो दूसरी और चीन के साथ आर्थिक व्यापार पर चुप्पी भी मार रखी है, जबकि चीन के विरुद्ध न केवल जोरदार गर्जना की थी, बल्कि दुनिया का सबसे दुष्ट देश भी कहा था। चीन रूस से सबसे अधिक तेल खरीदता रहा है जो अमेरिकी विदेश नीति के खिलाफ नहीं नजर आया। इसका सरल सा जवाब है कि अब ट्रंप के पास इतनी हिम्मत नहीं है कि चीन पर भी भारत की भांति टैरिफ लगा सकें। इसी कारण डोनाल्ड ट्रंप के सहयोगी तरह-तरह के तमाम कुतर्क कर रहे हैं। रूस से तेल खरीद तो बहाना मात्र है, ट्रंप को भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्ष विराम का झूठा श्रेय भारत द्वारा न देना, उनकी हां हांन मिलाना, ट्रंप को रास नहीं आया।
प्रधानमंत्री मोदी ने इस टैरिफ को अनुचित अन्यायपूर्ण और असंगत करार देते हुए देश को स्वदेशी अपनाने और देशवासियों में आत्मनिर्भरता की भावना बढ़ाने में विशेष बल दिया है। सरकार ने 40 विदेशी बाजारों जैसे- पूर्व आदि की ओर निर्यात विविधीकरण की जापान, दक्षिण कोरिया, यूरोप, यूके तथा मध्य पहल कर दी है। आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया के तहत घरेलू उत्पादन बढ़ाने पर बल करके निर्यात में वृद्धि की जा सके। टैरिफ भारत दिया जा रहा है ताकि अपने आयात को सीमित के लिए आपदा भी है, और अवसर भी है, जहां आत्मनिर्भर, डिजिटल व्यापार और वैश्विक समझौतों के माध्यम से उभरती शक्तियों में अग्रणी बना जा सकता है। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट रूप से कहा है- राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का दुनिया के साथ व्यवहार करने का तरीका पारंपरिक तरीके से बहुत अलग है। संपूर्ण विश्व इस स्थिति का सामना कर रहा है। हमने ऐसा कोई राष्ट्रपति नहीं देखा जिसने वर्तमान राष्ट्रपति की तरह सार्वजनिक रूप विदेश नीति का संचालन किया हो। यह अपने आप में ऐसा बदलाव है जो भारत तक सीमित नहीं है। अमेरिका को पता होना चाहिए कि भारत अमेरिका को घुड़की देने मात्र के लिए अपने निर्णय पर नहीं अड़ा है, बल्कि दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के प्रति दृढसंकल्प भी है।
ट्रंप की टैरिफ नीति से आर्थिक- व्यापारिक स्थिति में ही बदलाव नहीं आएगा, बल्कि इसके प्रभाव भू-राजनीतिक, भू- आर्थिक एवं भू-सामरिक स्थितियां भी बदलेंगी। चूंकि अमेरिका का पाकिस्तान के प्रति बढ़ता लगाव और वहां के आईएसआई प्रमुख रहे और नये नवेले फील्ड मास्टर आसिम मुनीर जैसे लोगों के साथ साठ-गांठ, चीन के साथ टैरिफ बढ़ाने के मामले में चुप्पी, यूक्रेन को युद्ध भुगतने की धमकी, रूस के साथ अलास्का समझौते जैसे अनेक सामयिक मुद्दे, भू- राजनीतिक स्थितियां बदलने की राह दिखा रहे हैं। कहा जा सकता है कि भारत एवं चीन के साथ संबंध सुधरते हैं, या बेहतर हो जाते हैं, तो ‘ग्लोबल साउथ’ मजबूत होगा।
ट्रंप का टैरिफ टेरर विश्व को नई भू- राजनीति की ओर मोड़ रहा है। वस्तुस्थिति यह है कि टैरिफ लागू होने के बाद वैश्विक गठबंधनों में पुर्नसंतुलन शुरू हुआ है, और भारत व चीन जैसे परंपरागत प्रतिद्वंद्वी भी अमेरिकी नीतियों का विरोध करने के लिए साथ आ रहे हैं। चीन ने हाल के महीनों में भारत के साथ न केवल दोस्ती बढ़ाई है, बल्कि लिपुलेख दर्रे के माध्यम से दोबारा व्यापार शुरू करने में भी सक्रिय सहायता की। बदलते टैरिफ ने बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के लिए मार्ग प्रशस्त कर दिया है, जिसमें भारत, चीन और रूस जैसे पश्चिमी देशों के विकल्प बन रहे हैं। भारत और चीन की बढ़ती नजदीकी स्थायी या अस्थायी होगी, यह तो भविष्य में ज्ञात दिया है कि आर्थिक निर्णयों का प्रभाव व्यापार होगा, किंतु ट्रंप की टैरिफ नीति ने साबित कर तक ही नहीं होता, बल्कि वैश्विक गठबंधनों तक जाता है।
टैरिफ पर कटुता
संपादकीय
भारत और अमेरिका संबंधों में ताजा कटुता दुखद और चिंताजनक है। भारत ने समझदारी से संवाद के दरवाजे खुले रखे हैं। वह समाधान निकालने का पक्षधर है और आधिकारिक रूप से भारतीय अधिकारियों ने बहुत संयम भरा माहौल बना रखा है। दूसरी ओर, अमेरिका की ओर से भारत को लेकर जो गलत बातें कही जा रही हैं, उनके पीछे न तर्क है न तथ्य | अमेरिका की ओर से अनेक ऐसी टिप्पणियां आई हैं, जिनसे दोनों देशों के बीच कटुता बढ़ेगी। अमेरिकी अधिकारी सामान्य कूटनीतिक भाव व भाषा की भी अवहेलना कर रहे हैं। भारत में एक मशहूर शेर है, दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे / जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों। इस शेर के भाव का अंदाजा भारत को है, पर अमेरिका को शायद नहीं है। जैसा प्रतिकूल माहौल अमेरिका की ओर से बनाया जा रहा है, उससे शायद मुश्किलें बढ़ेंगी। जब दोनों देशों के अधिकारी साथ बैठेंगे, तो कटु टिप्पणियां बाधक बनेंगी ।
आखिर क्या चाहते हैं अमेरिकी अधिकारी? मिसाल के लिए व्हाइट हाउस के व्यापार सलाहकार पीटर नवारो ने यहां तक कह दिया कि ‘अमेरिका में हर कोई हार रहा है… करदाताओं का नुकसान हो रहा है, क्योंकि हमें मोदी के युद्ध का वित्तपोषण करना है।’ यह बहुत गंभीर और हल्का आरोप है। पीटर यह बताना चाहते हैं कि यूक्रेन और रूस के बीच जो युद्ध चल रहा है, उसे भारत आर्थिक मदद मिल रही है। यह नासमझी है या बड़बोलापन ? यह कूटनीति है या सिर्फ भयादोहन को लालायित धूर्तता ? क्या भारत के उच्च टैरिफ के कारण अमेरिका में नौकरियों, कारखानों, कमाई और ऊंचे वेतन को नुकसान हो रहा है? क्या भारत के चलते अमेरिकी करदाताओं को नुकसान हो रहा है? अमेरिका के लिए अगर भारत इतना महत्वपूर्ण है, तो उसका मखौल क्यों उड़ाया जा रहा है? यहां तक कह दिया गया कि ‘भारत, तुम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हो, ठीक है, एक लोकतंत्र की तरह पेश आओ।’ क्या पलटकर यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या अमेरिका के चलते दुनिया के अनेक देशों में लोकतंत्र चल रहा है? क्या यह सही नहीं है कि दुनिया में अनेक देशों में तानाशाही अमेरिका के बल पर ही सांसें लेती है? एक ऐसे देश के अधिकारी भारतीय संप्रभुता को चुनौती दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर सक्रिय भारतीय ऐसे अमेरिकी अधिकारियों को आईना दिखा रहे हैं, पर भारत सरकार का आधिकारिक संयम प्रशंसनीय है।
अनेक अमेरिकी विशेषज्ञ ऐसे भी हैं, जो अपनी सरकार को बेहतर सलाह दे रहे हैं। भारत को अपने विरोध में खड़ा न करने की सलाह दे रहे हैं, पर चंद उन अमेरिकी अधिकारियों को परेशानी हो रही है, जिन्होंने अपने राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को गलत सलाह दी थी। अब जब सलाह नाकाम हो गई है, तो जल्दबाज अधिकारी बेचैन हो उठे हैं। क्या हम भूल जाएंगे कि अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने संबंधों की जटिलता को न समझते हुए भारतीय रुपये का मजाक उड़ाया है। इतना ही नहीं, बेसेंट ने यूरोप और अपने अन्य सहयोगियों को भारत के खिलाफ खुलकर भड़काया है। आज दोनों देशों के बीच तनाव शायद सबसे निचले स्तर पर है, पर भारत को संयम और आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। भटकते अमेरिकी अधिकारियों को स्वयं अपने बड़े अर्थशास्त्री रिचर्ड वोल्फ की इस टिप्पणी पर ध्यान देना चाहिए, ‘अमेरिका दुनिया के कठोर व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहा है, जबकि असल में वह खुद अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है।’