01-02-2020 (Important News Clippings)
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Map Ease of Doing Business
Economic Survey 2020 illustrates the importance of charting business landscape and process flow
Sanjeev Sanyal , [ The writer is principal economic adviser, GoI ]
In keeping with recent tradition, the latest Economic Survey comes in two volumes. The second volume is an update on the performance of various sectors, while the first delves into a few selected topics ranging from the ‘economics of a thali’ to the importance of systemic trust. This article will focus on the chapter dedicated to mapping the Ease of Doing Business (EoDB).
India’s ranking has jumped from 142 in 2014 to 63 in 2019 on the World Bank’s ‘Doing Business’ survey. This is commendable, but further improvement demands a more targeted approach. Specifically, it requires mapping of various process flows to precisely identify the most important blockages.
One analytical approach is to take up the parameters where India does poorly on EoDB rankings and to compare them with both its peers as well as best-in-class. Contract enforcement is a category where India ranks a lowly 163 out of 190 countries. Enforcing a contract in India takes on average 1,445 days compared to 403 days in Indonesia, 496 in China and 801 in Brazil. In New Zealand, this takes just 216 days. This corroborates the view expressed in the last Survey that the legal system is now the single biggest hurdle to economic progress. Similar comparisons were done for property registration, tax payment and starting a business.
Another way to analyse EoDB is to look at the regulatory requirements faced by a particular sector. Setting up a restaurant in either China or Singapore requires only four major licences. Staring a restaurant in an Indian city, in comparison, requires between 12 and 16 major licences as well as several minor ones.
According to the National Restaurant Association of India, a total of 36 approvals are needed in Bengaluru, 26 in Delhi and 22 in Mumbai. The permits include the music licence, signage licence, and even one for delivery bikes. Moreover, some of these permits have needlessly onerous requirements. Up to 45 documents are needed in Delhi to acquire a ‘Police Eating House Licence’. A licence to acquire new firearms in the same city needs only 19 documents.
That’s the Slow Coach
This year’s Survey carried out a number of case studies in order to understand the logistical process of merchandise trade. One case study tracked consignments from an apparels factory in Delhi to the buyer’s warehouse in the US. It found that a consignment takes five days to reach Nhava Sheva in Maharashtra. It then takes up to 14 days for unloading, customs clearance, repacking and loading of ship. This included five days that the exporter had deliberately padded for waiting in queue because the process was so uncertain. The consignment then takes 19 days for the sea journey and finally three days in the US to clear customs and reach the warehouse. In other words, of the total 41days, 19 were spent within India.
Asecond case study similarly found that a consignment of carpets from Mirzapur in Uttar Pradesh to the US took 40 days of which 13 were spent within India. To provide a benchmark, the Survey looked at the journey in reverse by tracking carpets imported from Milan in Italy to a warehouse in Rajasthan. In Italy, the consignment needed just one day from factory gate to the ship. At the Indian end, the process took eight days, including two days waiting for a berth in Mundra port. The case studies did not merely show the gap between Indian and Italian logistics, but also highlighted the irony that import processes at Indian seaports are more efficient than those for export.
The Survey separately gathered data on the time taken by electronics consignments passing through Bengaluru airport. It was found that processes that take days in seaports happen in hours at the airport. An export consignment could be airborne within 10 hours of leaving the factor gate. Those certified as Authorised Economic Operators were able to get their consignment loaded in the cargo plane in just six hours. This is world-class performance and is comparable — if not better — than what the Chinese do in Shenzhen.
Fresh Breeze from the Sea
Although one needs to be careful to generalise specific case studies, it is clear that customs clearance, ground handling and loading at our seaports take days for what can be done in hours. The good news is that Indian seaports have shown the ability to improve. Average ship turnaround time, for instance, has declined from 4.67 days in 2010-11to 2.48 days in 2018-19. Partial data for Chennai suggest significantly better performance than the ports discussed above.
The purpose of the EoDB chapter is to illustrate the importance of clearly mapping the overall business landscape as well as specific process flow. This allows identification of bottlenecks and their relative importance. It also helps with combining and sequencing solutions. There is a case, therefore, for hardwiring mapping of process flow and regulatory landscape as an integral part of EoDB-related policymaking.
जीतना चाहते हैं तो स्वयं के आलोचक बनिए
छह बार वर्ल्ड चैंपियन रहीं मेरीकॉम को हाल ही में पद्म विभूषण दिया गया है
एम सी मेरीकॉम , बॉक्सर ओलिंपिक मेडलिस्ट
संसार में सबसे बड़ी प्रेरणा अगर कोई है, तो परिवार ही है। यह आपको रोजाना नया करने की इच्छाशक्ति देता है। किशोर मेरीकॉम से युवा मेरीकॉम और अब मां मेरीकॉम तक परिवार ही है, जिसने री-इनवेंट करना सिखाया। बॉक्सिंग के लिए मेरा जुनून आज भी वैसा ही है, जो 15 साल पहले था। तब जोश मेरी ताकत हुआ करता था। आज मेरे बच्चे मेरी ताकत हैं। आज भी जब मैं बच्चों से बात करती हूं…तो यकीन मानिए उनका जोश, मेरी ताकत बन जाता है। सच कहूं…तो मां बनने के बाद ही स्वयं को नए सिरे से खोज पाई हूं। मैंने प्रैक्टिस शेड्यूल कभी नहीं बदला। मैंने ट्रेनिंग का तरीका कभी नहीं बदला। हां…लेकिन अब किसी भी मुकाबले में उतरती हूं तो बच्चों को वीडियो कॉल करती हूं। यह जीत के लिए मेरी अंदरूनी इच्छाशक्ति को और मजबूत बनाता है। उनकी बातें, आपके दिलो-दिमाग का सारा बोझ उतार फेंकती हैं। और जब हर तरह का डर आपके दिल से निकल जाता है, तभी आप अपना सर्वश्रेष्ठ दे पाते हैं। बच्चे अब बड़े हो रहे हैं। उन्हें पता है, उनकी मां बॉक्सर है। इसलिए मैं 2020 में भी खुद को ओलिंपिक मेडल विनर के तौर पर देखना चाहती हूं। आखिर, बच्चों के लिए हम ही तो उनकी दुनिया होते हैं। जिस तरह से वे आपको सर्वश्रेष्ठ देने के लिए प्रेरित करते हैं, उसी तरह आपकी कामयाबियों से वे भी जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा हासिल करते हैं। हर बच्चे के लिए पहले रोल मॉडल उनके माता-पिता ही होते हैं। परिवार से इतर खुद को खोजने के दो अहम तरीके हो सकते हैं। पहला- आप पुरानी गलतियां को नजरअंदाज मत कीजिए। उन्हें तलाशिए। उन पर काम करिए। यह आपके सफल होने के अवसरों को बढ़ा देगा।
मैं जब भी किसी टूर्नामेंट में जाती हूं। उसकी तैयारियों से पहले अपनी पुरानी फाइट के वीडियो देखती हूं। खोजती हूं- कहां-कहां गलतियां की हैं। दूसरा तरीका- जो सफल हुए हैं, उन्हें भी देखिए। उनकी ताकत क्या थी? मैं उनके भी पुराने वीडियो देखती हूं, जिनसे मुझे फाइट करनी होती है। मैं अपनी हर फाइट को पूरी शिद्दत से लेती हूं। स्वयं और सामने वाले बॉक्सर की कमजोरियां अगर आप पहले ही पकड़ लेंगे तो जीत आसान हो जाएगी। ये दो तरीके आपके लिए मुकाबले को आधा आसान बना देते हैं। हालांकि, गलतियां करना और उसके बाद सीखना….। यह लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप स्वयं के प्रति कितने आलोचनात्मक हो सकते हैं। जिस तरह स्वयं को री-इनवेंट करने के कई तरीके हो सकते हैं, उसी तरह उन तरीकों तक ले जाने वाले कई लोग भी हो सकते हैं। मैंने पहले भी अपने पति के बारे में बात की है। वे बेहद खास हैं। वे नहीं होते या सामान्य सोच वाले होते तो शायद मैं भी इतनी कामयाब नहीं बन पाती।
जब छोटी थी तब पिता नहीं चाहते थे कि बॉक्सिंग करूं। उन्हें लगता था कि बॉक्सिंग लड़कियों के लिए नहीं है। वे तो चाहते थे कि टेनिस या एथलेटिक्स में जाऊं। लेकिन पता नहीं, क्यों मेरे पैर मुझे बॉक्सिंग रिंग की ओर ले जाते थे। मुझे कई बार मार तक खानी पड़ी। एक बार तो मैंने सोच भी लिया था कि बॉक्सिंग छोड़ देती हूं। तब मेरे कोच ने पिता को समझाया। शायद उसी दिन से बतौर बॉक्सर मेरा नया जन्म हुआ। जब शादी की, ताे सोचा था, अब बॉक्सिंग नहीं करूंगी। लेकिन पति ओनलर मेरे जुनून को जिंदा रखना चाहते थे। जब मैंने परिवार की जिम्मेदारियां गिनाई, तब उन्होंने कहा-तुम जब तक बॉक्सिंंग करना चाहती हो, करो। परिवार की चिंता छोड़ दो। जब दो जुड़वां बेटों की मां बनीं, तब मैंने फिर ओनलर से कहा- अब परिवार की जिम्मेदारी लेने का वक्त आ गया है। ओनलर ही हैं, जो मेरे मन को सबसे बेहतर पढ़ पाते हैं। वे बॉक्सिंग के प्रति मेरे जोश को समझते हैं। सात-आठ महीने तक उन्होंने कुछ भी नहीं कहा। जब बच्चे थोड़े बड़े हुए, तब बोले- अब दोबारा रिंग में उतरने का वक्त आ गया है। बच्चों की चिंता करने की जरूरत नहीं है। ओनलर उसी दिन से एक पिता से एक मां भी बन गए। ओनलर की वजह से ही मैं दोबारा रिंग में आई और वर्ल्ड चैपिंयन बनी। इसलिए अपने जीवन में उन अहम लोगों को जरूरी स्थान दीजिए, जो आपकी सफलता के ख्वाब देखते हैं। यह आपकी बड़ी ताकत हो सकती है। हर उपलब्धि के लिए एक वजह होनी चाहिए। आप यह क्यों कर रहे हैं? किसके लिए? इससे होगा क्या? जवाब आपके पास होना ही चाहिए। छह बार वर्ल्ड चैंपियन बन चुकी हूं, फिर भी रोज जीतना चाहती हूं। यह सिर्फ इसलिए, ताकि आप अपने बच्चों के लिए जीत की वजह बन सकें। उनमें जीत का डीएनए विकसित हो सके।
आज भी मुकाबलों और ट्रेनिंग के बाद जो समय मिलता है, वही समय मेरे परिवार के लिए बचता है। यह समय क्वालिटी टाइम होना चाहिए। इसमें किया गया इन्वेस्ट आपको सबसे अच्छा रिटर्न-खुशियों की ताकत के रूप में देता है। ये खुशियों की ताकत ही है, जो आपको सर्वश्रेष्ठ की ओर ले जा सकती है।
प्रगतिशील फैसला
संपादकीय
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने गर्भपात कानून में महत्त्वपूर्ण बदलाव को मंजूरी देकर सही मायने में प्रगतिशील कदम उठाया है, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।इस बदलाव के लिए सरकार ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) विधेयक को मंजूरी दी है, जिसके तहत विशेष हालात से गुजरने वाली महिलाओं के गर्भपात कराने की समयसीमा को 20 से बढ़ाकर 24 सप्ताह करने का प्रस्ताव है। इस विधेयक को संसद के आगामी बजट सत्र में पेश किया जाएगा। इस विधेयक के पारित होने के बाद दुष्कर्म पीड़िता, पारिवारिक यौनाचार से पीड़ित या दिव्यांग और नाबालिग पीड़िताओं के छह महीने के गर्भ को भी गिराने का वैधानिक आधार होगा। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2006 में ही गर्भपात की समयसीमा बढ़ाने की पहल की थी। उस समय विभिन्न राज्य सरकारों, डॉक्टरों और गैर सरकारी संगठनों से भी विचार-विमर्श किया गया था। इन सबसे बातचीत के बाद 2014 में इसका मसौदा तैयार किया गया था। लेकिन सरकार की सुस्ती या लालफीताशाही के चलते महिलाओं के कानूनी अधिकारों को विस्तार देने के रूप में माने जाने वाला यह महत्त्वपूर्ण विधेयक बरसों तक लटका रहा।
यह विधेयक निश्चित रूप से अपनी प्रकृति में प्रगतिशील है। इससे इस बहस की गुंजाइश प्राय: खत्म हो गई है कि दक्षिणपंथी सरकारों से प्रगतिशील और सुधारवादी फैसलों की उम्मीदें नहीं की जानी चाहिए। केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर यह दावा कर रहे हैं कि 20 सप्ताह में गर्भपात कराने पर मां की जान जाने के कई मामले सामने आए हैं। अब 24 सप्ताह यानी छह महीने में भी गर्भपात कराना सुरक्षित होने की बात की जा रही है। ऐसा हो सकता है कि विशेषज्ञों की भी राय इसी तरह की हो। इस तथ्य के बावजूद यह कैसे मान लिया जाए कि 6 महीने में गर्भपात कराना जोखिम भरा नहीं होगा। इस प्रक्रिया को अभी परीक्षण के दौर से गुजरना होगा इसलिए अभी यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि 24 सप्ताह के गर्भपात के मामले सौ फीसद सफल ही हो पाएंगे। फिर भी इस कानून के बनने से दुष्कर्म पीड़िताओं और नाबालिगों सहित ऐसी महिलाओं को मदद मिलेगी जिनके गर्भ में डायफ्रैगमैटिक हर्निया और माइक्रोसैफली आदि गंभीर रोगों से पीड़ित बच्चे पल रहे हों। गर्भ में ऐसे रोगग्रस्त नवजात की पहचान 20 हफ्तों के बाद ही चल पाता है। जाहिर है इस कानून से विशेष हालात से गुजरने वाली महिलाओं को राहत मिलेगी और उनके अधिकारों का विस्तार भी होगा।
चुनौतियों के बीच भारत के लिए बनेंगी नई संभावनाएं
नरेश कौशिक
अंतत: अब ब्रिटेन यूरोपीय संघ से अलग हो रहा है। यूरोप की संसद ने भी ब्रिटेन-यूरोपीय संघ के तलाक को अपनी स्वीकृति दे दी है। आज रात ये दोनों पक्ष हमेशा के लिए बिछड़ जाएंगे। ब्रेग्जिट पिछले तीन साल से ब्रिटेन की राजनीति में एक तूफान की तरह रहा है। साल 2016 के जनमत संग्रह में जब जनता ने ब्रेग्जिट के पक्ष में निर्णय दिया, तो अस्थिरता की एक लहर देश की राजनीति और अर्थव्यवस्था, दोनों पर छा गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को बिल्कुल अंदाज नहीं था कि जनता यूरोपीय संघ से अलग होने के पक्ष में अपनी राय देगी। उनको पद छोड़ना पड़ा और उनकी कंजर्वेटिव पार्टी को नया नेता चुनना पड़ा।
टेरेसा मे नई नेता और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बन गईं। उन्होंने तुरंत दो वर्षों में यूरोपीय संघ छोड़ने का वैधानिक नोटिस और फिर एक ब्रेग्जिट समझौते के लिए बातचीत शुरू कर दी। लेकिन उनकी समस्या यूरोपीय संघ नहीं, बल्कि अपनी पार्टी थी। वह जो भी समझौता करतीं, उनकी पार्टी के भीतर ब्रेग्जिट समर्थक गुट उसे नामंजूर कर देते। काफी मेहनत के बाद तैयार समझौता भी ब्रेग्जिट समर्थक गुट को पसंद नहीं था। बार-बार इस समूह ने संसद में विपक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी के ब्रेग्जिट विरोधी गुट के साथ मतदान किया। लेकिन सरकार का प्रस्ताव पास नहीं हो पाया। अंतत: टेरेसा मे को त्यागपत्र देना पड़ा।
ब्रेग्जिट गुट के पसंदीदा बोरिस जॉनसन कंजर्वेटिव पार्टी के नए नेता और प्रधानमंत्री बन गए। उन्हें तो टेरेसा मे जितना भी समर्थन प्राप्त नहीं था। पर कुछ समय के प्रयत्न के बाद वह नए चुनाव कराने में सफल हो गए और जीतकर प्रधानमंत्री भी बन गए। उनकी जीत में भारतीय मूल के वोटरों की बड़ी भूमिका रही। इसकी वजह ब्रेग्जिट नहीं, बल्कि मुख्य विपक्षी दल लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कोर्बिन थे, जिन्हें भारत विरोधी माना जाता है। बहरहाल बोरिस जॉनसन ने भारी बहुमत से चुनाव जीतने के तुरंत बाद ब्रेग्जिट बिल को संसद में पास करा लिया।
सवाल यह है कि ब्रेग्जिट के बाद अब क्या होगा? 11 महीनेके भीतर ब्रिटेन को यूरोपीय संघ के साथ एक आर्थिक समझौता करना होगा। यह समय-सीमा ब्रिटेन ने ही तय की है। यूरोपीय संघ और समय चाहता था। दोनों पक्ष चाहेंगे कि समझौता जल्दी हो जाए, पर यह आसान नहीं है। ब्रिटेन के हिसाब से देखें, तो अब उसे अमेरिका, चीन, जापान और भारत जैसे बहुत से देशों के साथ भी आर्थिक समझौते करने की जरूरत होगी। यह एक टेढ़ी खीर है। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प कह चुके हैं कि वह ब्रिटेन के साथ जल्दी समझौता चाहते हैं। लेकिन ब्रिटेन में बहुत से लोगों को आशंका है कि इसमें ब्रिटेन को कड़ी शरते का सामना करना पडे़गा। ट्रंप की नजर ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना पर है, जो अमेरिकी दवा कंपनियों को अरबों डॉलर के ठेके दे सकती है। हालांकि ब्रिटेन की सभी पार्टियां कह चुकी हैं, इस सेवा को बेचा नहीं जाएगा।
भारत ब्रेग्जिट के पक्ष में नहीं था, क्योंकि उसे यूरोपीय संघ के भीतर ब्रिटेन के साथ व्यपार करने में सुविधा थी। बहुत सी भारतीय कंपनियां ब्रिटेन में रहकर पूरे यूरोप के साथ व्यापर कर लेती थीं, जो अब संभव नहीं होगा। भारत को अब यूरोपीय संघ के साथ अलग से और ब्रिटेन के साथ अलग से समझौते करने पड़ेंगे। मगर ब्रेग्जिट भारत के लिए एक अच्छा अवसर भी है। भारत ब्रिटेन की वर्तमान कमजोरी का इस्तेमाल एक बेहतर आर्थिक समझौते के लिए कर सकता है। भारत के विशाल बाजार को ब्रिटेन खोना नहीं चाहेगा। ब्रेग्जिट भारत के पढे़-लिखे युवकों के लिए भी एक अच्छा अवसर है। ब्रेग्जिट के बाद बहुत से यूरोपीय लोग अपने देश में चले गए हैं। बहुत से डॉक्टरों और तकनीकी विशेषज्ञों के पद खाली हैं। सरकार ने अपनी इमीग्रेशन नीति को भी उदार कर दिया है। अब यूरोपीय लोगों को प्राथमिकता देने की ब्रिटेन को जरूरत नहीं है, लेकिन उसे रिक्त पदों को तो भरना ही है। इसका लाभ भारतीय युवकों को मिलेगा।
लेकिन ब्रिटेन में रहने वालों के लिए ब्रेग्जिट के बाद का समय समस्याओं से भरा होगा। बिटिश अर्थव्यवस्था पर ब्रेग्जिट का प्रतिकूल प्रभाव पडे़गा, यह तो सब मानते हैं। जाहिर है, जब आर्थिक समस्याएं होती हैं, तो सामाजिक द्वेष बढ़ता है। इससे ब्रिटेन में नस्लीय भेदभाव के मामले भी बढ़ सकते हैं। इन समस्याओं से निपटना ब्रेग्जिट के बाद की सबसे बड़ी चुनौती होगी।
Matter of her right
Amendments in abortion law are welcome. Its stated aim, giving agency to women, will depend on the fine print
Editorial
The Union cabinet has done well to approve a Bill that seeks to amend India’s outmoded abortion law. On Tuesday, it gave its nod to the Medical Termination of Pregnancy (Amendment) Bill, 2020. If it gets Parliament’s sanction, this piece of legislation will amend the Medical Termination of Pregnancy (MTP) Act, 1971. Slated for introduction in Parliament’s budget session, the Bill seeks to increase the upper gestation limit from 20 to 24 weeks for termination of pregnancy. Significantly, this provision applies to unmarried women and therefore, relaxes one of the regressive clauses of the 1971 Act — single women couldn’t cite contraceptive failure as a reason for seeking abortion. It also has a provision to protect the privacy of the person seeking abortion.
The MTP Act, 1971 was replete with unclear language, which resulted in doctors refusing to perform abortions even within the stipulated 20 week gestation limit. Women had to seek the approval of the judiciary, which, by most accounts, did not always come in time. “As a result”, notes a 2015 study in the India Journal of Medical Ethics, “10 to 13 per cent of maternal deaths in India are due to unsafe abortions”. Introducing the proposed law, Union Minister of Information and Broadcasting, Prakash Javadekar said that the MTP Bill 2020 “will help reduce maternal mortality”. Extending the gestation period to 24 weeks is a significant step in this regard. However, the government should also learn from the experiences of the 1971 Act: The new piece of legislation should be worded in a manner that obviates frequent appeals to the judiciary. Such fine print would — more significantly — be essential to accomplishing one of the Bill’s main goals, as emphasised by Javadekar: “Giving reproductive rights to women”.
One of the criticisms of the MTP Act, 1971 was that it failed to keep pace with advances in medical technology that allow for the removal of a foetus at a relatively advanced state of pregnancy. Moreover, a number of foetus abnormalities are detected after the 20th week, often turning a wanted pregnancy into an unwanted one. The proposed MTP law intends to address such medical complications. But matters related to women’s agency over her womb get complicated by the social milieu in parts of the country: The ante-diluvian preference for a male child keeps sex determination centres in business in spite of their illegal status. There are concerns that a more liberal abortion law can aggravate this state-of-affairs. The litmus test of the proposed MTP law’s claims to being women-centric lies in addressing all such concerns.
Date:31-01-20
India’s civil society moment
The strength of civil society is its spontaneity, collective mobilisation
Neera Chandhoke , [ The writer is a former professor of political science, Delhi University ]
Leaders of the BJP claim that the Citizenship Amendment Act does not take away citizenship from any Indian, therefore, the protests across the country are ill-informed and misplaced. We cannot believe that consummate politicians are unable to grasp the demands of thousands of students and citizens who march and demonstrate against government policies. Their message, blazoned on posters, and articulated in innovative language, creative songs, art and graffiti is unequivocal: We the people of India, will not tolerate the fusion of religious identity and citizenship, will not sanction dilution of secularism and equality, will not accept irresponsible amendments to the Constitution, and will not endure vicious attempts to divide us.
Witness the political miracle. The terms of engagement between the government and the people have been transformed. In the past five and a half years, the BJP government has refused to tolerate criticism. Today our young people hammer home the fact that they will not tolerate any policy that violates the democratic and secular ethos of the nation. Students now instruct rulers — do not tamper with constitutional principles that were forged in the heat of the freedom struggle. This is our inheritance, and this is our culture.
The substantial movement in support of constitutional supremacy and morality trumps arguments put forth by BJP spokespersons; that the CAA, the proposed National Register of Citizens, and the National Population Register are part of their manifesto. Manifestos do not override the Constitution. The message is unambiguous and clear. But, BJP leaders, intoxicated with the results of the May 2019 general election, simply do not register that a majority of the electorate did not vote for the NDA. Nor do they recognise the significance of the political moment. In mid-December, thousands of university students rose in protest. They seem to be unfamiliar with the recent history of mobilisation by civil society that has shaken power and dismantled states.
The concept of civil society is normative, insofar as it specifies that associational life in a metaphorical space between the market based on profit, and the state that embodies power, is a distinct good. Associational life neutralises the individualism, the atomism, and the anomie of modern life. Social associations enable the pursuit of multiple projects and engender solidarity. The projects can range from developing awareness about climate change, to discussing and dissecting popular culture, supporting needy children, organising neighbourhood activities, and safeguarding human rights. Above all, the concept recognises that even democratic states are imperfect. Democracy has to be realised through sustained engagement with the holders of power. Citizen activism, public vigilance, informed public opinion, a free media, and a multiplicity of social associations are indispensable for this task.
It is, however, the minimal avatar of civil society — that of mobilisation against authoritarian regimes — that has proved politically effective since the last decades of the 20th century. This concept has motivated thousands of people across the globe to stand up and speak back to a history, not of their making. In the first decade of the 21st century, from Nepal to Libya, huge crowds, driven by a distinctly anti-authoritarian mood, assembled and agitated in public spaces to demand an end to monarchies, dictatorships, and tyrannies. The mobilisation of civil societies against undemocratic governments again, after 1989 and the Velvet Revolutions in Eastern Europe, demonstrated the competence of the political public to command an activity called politics. Notably, the objective of civil society is not to takeover the state. That is left to political parties. Vibrant civil societies are born out of complete disenchantment with the party system. They are, and remain, the public conscience of society. Little wonder that powerful states have collapsed like the proverbial house of cards before street assemblies and demonstrations.
In 2006 in Nepal, a massive anti-monarchy movement developed into a pro-democracy movement and brought an end to rulers who had claimed the divine right to rule, motivating Maoists to lay aside their weapons and take part in elections to a constituent assembly — catapulting the transition of the Nepali people from subject to citizen. For two years, 2007 and 2008, a pro-democracy movement led by lawyers shook up Pakistan, then under military rule. The movement forced the military government under General Pervez Musharraf to its knees, and heralded, once again, the return of electoral democracy to the country.
The most spectacular assertions of civil society occurred in Tunisia, Egypt, Syria, Libya, Yemen, Bahrain, Saudi Arabia, Algeria, Morocco, and other countries in West Asia from December 2010 onwards. Protests that coalesced into the “Arab Spring” were sparked off when on December 17, 2010, a 26-year old vegetable vendor Mohamed Bouazizi set himself on fire before a government building in the rural town of Sidi Bouzid in Tunisia. He committed self-immolation in protest against the public humiliation heaped on him by a police officer. The act sparked off major protests across the country, and resulted in demands that President Zina El Abidina resign. A month later the president fled the country.
Some countries that were rocked by protests were under military regimes, others under individual despots. The inhabitants of these societies had been denied basic civil liberties such as freedom of expression and right to association. Yet a defiant citizenry came together in public places to protest against the harm caused by the abuse of authority — from upping bus fares in Brazil, to the denial of rights in Egypt. Protesters identified perpetrators of injustice and insisted on retributive and remedial justice. What had been thought of as unthinkable and improbable had been translated into the probable and the achievable. A number of successful autocrats were forced to demit office — Ben Ali in Tunisia, Hosni Mubarak in Egypt, and Ali Abdullah Saleh in Yemen.
Since June 2019, Hong Kong has been rocked by a movement that has brought together huge numbers of people. The movement initially came together as a protest against the government proposal that suspected criminals would be extradited to mainland China. It has developed into a major pro-democracy movement inspired by deep-rooted antipathy against authoritarian rule. Protests continue to escalate in the island in the face of police brutality, repression and crackdowns.
We do not need to worry about who should lead civil society mobilisation in India. Nor should we worry about where it is heading. It is enough that citizens have gathered in public spaces to fight a government increasingly seen as authoritarian and divisive. Moreover, civil societies eschew organisation, leadership and goals. Organisation leads to bureaucratisation, leaders rapidly become tyrants, and no one agent is capable of defining what the goals of a complex society should be. The task of civil society is not to wage a revolutionary war. Its task is to awaken people to the fact that they have a right to hold governments responsible for acts of omission and commission. When it takes on authoritarian states, the strength of civil society is its spontaneity and collective mobilisation. Its weapon is the Constitution; its demand is respect for constitutional morality. Finally, civil society is not an institution; it is a space, the site for many projects that restore democracy. This is India’s civil society moment. It needs to be celebrated.
A deliverance
Extending the period of medical termination of pregnancy to 24 weeks is a boon for many
Editorial
The borders of viability of a particular process are often only as restrictive as the technology on which it rides. In some cases, as science advances, the elastic borders of viability will weave out to accommodate much more than they did in the past. The Centre’s move to extend the limit of medical termination of pregnancy to 24 weeks is a sagacious recognition of this, and needs to be feted. The extension is significant, the government reasoned, because in the first five months of pregnancy, some women realise the need for an abortion very late. Usually, the foetal anomaly scan is done during the 20th-21st week of pregnancy. If there is a delay in doing this scan, and it reveals a lethal anomaly in the foetus, 20 weeks is limiting. Obstetricians argue that this has also spurred a cottage industry of places providing unsafe abortion services, even leading, in the worst of cases, to the death of the mother. When women take the legal route to get formal permission for termination after 20 weeks, the tedium is often frustrating and stressful for a mother already distressed by the bad news regarding her baby. The extension of limit would ease the process for these women, allowing the mainstream system itself to take care of them, delivering quality medical attention.
The question of abortion needs to be decided on the basis of human rights, the principles of solid science, and in step with advancements in technology. A key aspect of the legality governing abortions has always been the ‘viability’ of the foetus. This indicates, in human gestation, the period from which a foetus is capable of living outside the womb. As technology improves, with infrastructure upgradation, and with skilful professionals driving medical care, this ‘viability’ naturally improves. In the landmark U.S. Supreme Court judgment in Roe v. Wade, the judges held that the U.S. Constitution protects a woman’s right to terminate her pregnancy and defined viability as potentially the ability to live outside the mother’s womb, albeit with artificial aid. “Viability is usually placed at about seven months (28 weeks) but may occur earlier, even at 24 weeks.” Ultimately, nations will have to decide the outer limit also based on the capacity of their health systems to deliver care without danger to the life of the mother; there is no uniform gestational viability for abortion. Even as the government has struck a winner with its decision, it needs to ensure that all norms and standardised protocols in clinical practice to facilitate abortions are followed in health care institutions across the country. Since everything rests on the delivery, stopping short would undoubtedly make this progressive order a mere half measure.