01-01-2020 (Important News Clippings)
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ढांचागत परियोजनाओं पर जोर
अरूप रायचौधरी
मोदी सरकार ने बुनियादी ढांचा क्षेत्र के लिए 102 लाख करोड़ रुपये महत्त्वाकांक्षी योजना की घोषणा की है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) रिपोर्ट जारी करते हुए आज कहा कि 23 क्षेत्रों और 18 राज्यों में उन परियोजनाओं की पहचान कर ली गई है जिन पर अगले पांच साल के दौरान अमल किया जाएगा।
सीतारमण ने कहा कि इन परियोजनाओं पर केंद्र और राज्य सरकारें 39-39 फीसदी राशि देंगे जबकि निजी क्षेत्र 22 फीसदी निवेश करेगा। उन्होंने कहा कि सरकार 2024-25 तक निजी क्षेत्र की भागीदारी 30 फीसदी तक बढऩे की उम्मीद कर रही है। वित्त मंत्री ने साथ ही कहा कि आने वाले दिनों में इसमें तीन लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं और शामिल हो सकती हैं। इस तरह इस योजना पर कुल राशि 105 लाख करोड़ रुपये तक जा सकती हैं।
इस योजना में केंद्र, राज्य, निजी क्षेत्र और सरकारी कंपनियों की नई-पुरानी परियोजनाओं के साथ-साथ सार्वजनिक-निजी साझेदारी मॉडल के तहत आने वाली परियोजनाएं शामिल हैं। रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों के मुताबिक 42.7 लाख करोड़ रुपये (43 फीसदी) लागत की परियोजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है, 32.7 लाख करोड़ रुपये (करीब 33 फीसदी) लागत की परियोजनाएं कतार में हैं और 19.1 लाख करोड़ रुपये (करीब 19 फीसदी) लागत की परियोजनाएं पर काम चल रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने भाषण में कहा था कि देश में अगले पांच साल में बुनियादी ढांचे के विकास पर 100 लाख करोड़ रुपये का निवेश किया जाएगा। उससे पहले आम बजट में भी इसका जिक्र था। सीतारमण ने कहा कि आर्थिक मामलों के सचिव अतनु चक्रवर्ती की अगुआई में गठित एक कार्य बल ने चार महीने के अल्पावधि में 70 संबद्ध पक्षों के साथ विचार विमर्श करने के बाद 102 लाख करोड़ रुपये लागत की परियोजनाओं की पहचान की। कार्य बल की पहली बैठक सितंबर, 2019 में हुई थी। इसके बाद बुनियादी ढांचे के विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के कई विभागों तथा कंपनियों के साथ कई बैठकें हुई।
इस मौके पर चक्रवर्ती ने कहा कि बुनियादी ढांचे के विकास पर केंद्र, राज्य और निजी क्षेत्र का निवेश देश के मौजूदा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.8 फीसदी है और सरकार को उम्मीद है कि 2024-25 तक यह आंकड़ा 1.1 फीसदी तक पहुंच जाएगा।
इस योजना के लिए जिन क्षेत्रों की परियोजनाओं पहचान हुई है उनमें परंपरागत ऊर्जा और अक्षय ऊर्जा, रेलवे, सड़क, शहरी विकास, सिंचाई, उड्डïयन, शिक्षा और स्वास्थ्य शामिल हैं। इनमें से बड़ा हिस्सा ऊर्जा क्षेत्र को जाने की उम्मीद है। इसमें बिजली, अक्षय ऊर्जा, तेल और गैस शामिल है। करीब 24 लाख करोड़ रुपये की परियोजना बिजली क्षेत्र की हैं। इसी तरह सड़क निर्माण क्षेत्र की 20 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाएं और करीब 14 लाख करोड़ रुपये की रेल परियोजनाएं हैं। हालांकि वित्त मंत्री ने स्वीकार किया कि मौजूदा आर्थिक सुस्ती को देखते हुए इन परियोजनाओं के लिए वित्त जुटाना आसान नहीं होगा।
Date:01-01-20
भरोसे के संकट से जूझ रहा विश्व व्यापार संगठन
शुभायन चक्रवर्ती
विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) का गठन 1 जनवरी, 1995 को किया गया था और यह दूसरे विश्व युद्घ के खत्म होने के बाद अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सबसे बड़ा सुधार था। अब इसकी 25वीं वर्षगांठ पर इसी संस्था में सुधार कई देशों के व्यापार एजेंडे में सबसे ऊपर है। इनमें अमीर और गरीब दोनों तरह के देश शामिल हैं। डब्ल्यूटीओ में दुनिया का भरोसा ऐतिहासिक निचले स्तर पर पहुंच गया है। व्यापार एवं तटकर पर सामान्य समझौता (गैट) उत्पादों के व्यापार के लिए था लेकिन डब्ल्यूटीओ ने अपना दायरा श्रम, पर्यावरण और बौद्धिक संपदा तक फैला दिया। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष व्यापार की अपनी सक्षम नीतियों के माध्यम से इसे कुछ वर्ष पहले तक सभी देशों को परामर्श देने के लिए एक मंच प्रदान करने का श्रेय दिया गया था।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय व्यापार के कई खेमों में बंटने के बाद डब्ल्यूटीओ की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं। अमेरिका, यूरोपीय संघ, चीन और रूस जैसी दिग्गज अर्थव्यवस्थाओं में ने अपने अलग खेमे बना लिए हैं। इस बहुस्तरीय संस्था पर हमले के अगुआ अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप रहे हैं। डब्ल्यूटीओ विभिन्न खेमों के बीच टकराव को खत्म करने में नाकाम रहा है जिससे दुनिया के सभी देश प्रभावित हुए हैं। विभिन्न देशों के बीच व्यापारिक विवादों के लिए गठित डब्ल्यूटीओ की शीर्ष अदालत भी दिसंबर की शुरुआत में निष्क्रिय हो गई। पहली बार ऐसा हुआ है।
सात न्यायाधीशों वाली इस अपीलीय संस्था के बचे हुए तीन सदस्यों में से दो सेवानिवृत्त हो गए और इसके साथ ही यह संस्था निष्क्रिय हो गई। यह अरबों डॉलर के वैश्विक व्यापारिक विवादों को निपटाने के लिए सबसे बड़ी न्यायिक संस्था है। इसे बहुस्तरीय व्यापारिक व्यवस्था का मुख्य स्तंभ माना जाता है और वैश्विक अर्थव्यवस्था के स्थायित्व के लिए डब्ल्यूटीओ का अनोखा योगदान माना जाता है। पिछले दो दशक में इस अपीलीय संस्था ने वैश्विक व्यापार के प्रवाह को आकार दिया है। लेकिन भारत और 116 अन्य देश अमेरिका को यह समझाने में नाकाम रहे हैं कि वह नए न्यायाधीशों की नियुक्ति के खिलाफ लंबे समय से आ रहा अपना विरोध छोड़ दें। इसके लिए सभी देशों के निर्विरोध समर्थन की जरूरत होती है।
लेकिन पिछले तीन वर्षों से अमेरिका ने डब्ल्यूटीओ के खिलाफ विरोध का झंडा बुलंद कर रखा है। उसका कहना है कि इस संस्था ने अमेरिका और विकसित देशों के व्यापक हितों की अनदेखी की है। यह विरोध तबसे और तेज हो गया है जबसे डब्ल्यूटीओ ने अमेरिका द्वारा चीन और अन्य व्यापारिक साझेदारों पर लगाए गए एकतरफा शुल्क की आलोचना की है।
डब्ल्यूटीओ में भारत के पूर्व राजदूत जयंत दासगुप्ता ने पहले कहा था, ‘अमेरिका के बड़ा खेल खेल रहा है। एक तरफ वह इस विवाद निपटान संस्था में याचिका दायर कर रहा है और दूसरी ओर उसके न्यायाधीशों की नियुक्ति रोक रहा है।’ अमेरिका के व्यापार प्रतिनिधि रॉबर्ट लाइटहाइजर लगातार डब्ल्यूटीओ पर हमले करते रहे हैं। उनका आरोप है कि यह संस्था अमेरिका के प्रति निष्पक्ष नहीं है। दिलचस्प बात है कि लाइटहाइजर को 16 वर्ष पहले अपीलीय संस्था में नामांकित किया गया था। हालांकि दूसरे देशों के विरोध के बाद उनकी नियुक्ति नहीं हो पाई थी।
2019 में उन्होंने डब्ल्यूटीओ के बजट में कटौती की धमकी दी और इस संस्था में चीन के प्रवेश को गलती बताया। साथ ही उन्होंने चेतावनी दी कि अगर अमेरिका की मांगों को नहीं माना गया तो वह डब्ल्यूटीओ से निकल जाएगा। लेकिन वैश्विक व्यापार विवादों को निपटाने की एकमात्र संस्था के तौर पर डब्ल्यूटीओ की क्षमता लंबे समय से क्षीण होती जा रही है। अभी मामलों की सुनवाई में एक साल से अधिक समय लगता है जबकि सरकारें और व्यापार अधिकारी जेनेवा में डेरा डाले रहते हैं। दूसरी ओर छोटे देश खुद को अलग-थलग मानते हैं। उनकी शिकायत रहती है कि उनके मुद्दों को डब्ल्यूटीओ में ज्यादा तरजीह नहीं मिलती है।
Ring Out The Old
Perhaps the young will be able to change India’s narrative this decade
Toi editorial
India is a young country, but its leaders aren’t – that paradox remains as we push into a new decade today. While 50% Indians are 28 years old or less, the average age of their representatives in the Lok Sabha is currently 55 – pushing close to the government’s retirement age of 60. Rajya Sabha members, of course, are even older – with an average age of 63. Apart from the usual divides of Indian society – caste, religion – which, arguably, the politics of the last year has exacerbated rather than bridged, there could be another divide that’s less discussed, the rift between the old and young.
But this could be India’s ‘ OK, boomer’ moment as well – with the question of how much its politics caters only to the jaded preoccupations of the old as opposed to the interests of young people, becoming increasingly salient. Perhaps the decade opening today will bridge the vast gap between the two. Towards the end of last year students began mobilising and agitating across India in mostly peaceful protests, many for the first time. This included students from even India’s elite, otherwise apolitical institutions – IITs, IIMs, NLSIU – as they grow more concerned about their future.
Far from the government’s portrayal of their protests as being orchestrated by Congress or other more sinister forces, they look more like a spontaneous upwelling of young people’s anguish at their voices and interests being left out of the political discourse, with established (and somewhat moribund) political players like Congress struggling to catch up. Young people are interested in issues such as economy, jobs, education, equal rights and opportunities for all – ill served by successive governments. The constitutional verities they learn about in school and college are flouted in political practice – such as in CAA that provoked many of their current protests.
One could argue that while a certain left-wing populism had dominated Indian policy making for a long time since Independence – causing India to underachieve relative to its potential – today we see a right-wing populist backlash that is equally unproductive and is ending up polarising the country. Perhaps only the young can deliver us from the toxic politics of the last decade spilling over (and growing worse) in this one. Although India’s Constitution is by and large a liberal document Indian politics hasn’t really seen the emergence of a centrist, liberal, moderate alternative – the Swatantra Party died stillborn. But the 2020s could change that story – if the young are given a voice and allowed to go beyond the political quarrels of the old.
Groundwater gets the priority it’s due
ET Editorials
The Centre’s initiative to shore up groundwater resources pan-India, deploying community-focused participatory management is pathbreaking. The idea is to arrest rapidly falling water tables, and to reverse rising dependence on groundwater with more sustainable usage practices, rainwater harvesting and aquifer recharge.
The Atal Jal Yojana, spread over 8,350 villages and across 78 districts in seven states, where groundwater levels are already critically low, seeks to institutionalise sustainable groundwater management with focused demand-side changes at the community level.
The various projects under the scheme would be formulated and implemented locally by panchayat-level committees. The way ahead is to have 50% representation of women in these committees, as women suffer the most from water scarcity and often trudge long distances for fresh water. The policy intention is that gram panchayats chalk out village-level water action plans, firm up water budgets, and grow crops accordingly. There is provision in this Rs 6,000-crore multi-year scheme for better performing panchayats to be allocated more funds.
There is scope to make extensive use of sensors and information technology to augment water data and make water usage patterns transparent, leading to district and state-level best water usage practices. Water-use efficiency must go up in agriculture, households and industry, helped along by startups that innovate solutions using the rich water data ecosystem. Focused, economical use of water resources would strengthen the local economy and improve livelihoods.
Guarantee Internet rights
Access to Internet must be recognised as a fundamental right to free speech, basic freedoms and the right to life
Jayna Kothari, is Senior Advocate and Executive Director, Centre for Law & Policy Research
The Software Freedom Law Centre data says there have been more than a 100 Internet shutdowns in different parts of India in 2019 alone. In Kashmir, the government imposed a complete Internet shutdown on August 4, which still continues. The enactment of the Citizenship (Amendment) Act led to protests all over the country and State governments responded by suspending the Internet. Assam witnessed a suspension of mobile and broadband Internet services in many places, including in Guwahati for 10 days. There were Internet bans in Mangaluru, Delhi and Uttar Pradesh.
These bans are being imposed under different provisions of the law — some are imposed under Section 144 of the Criminal Procedure Code (CrPC), some under Section 5(2) of the Indian Telegraph Act, 1885 and some without any legal provisions at all.
Lifeline for people – It is time that we recognise the right to Internet access as a fundamental right. Internet broadband and mobile Internet services are a lifeline to people in India from all walks of life. While the Internet is certainly a main source of information and communication and access to social media, it is so much more than that.
People working in the technology-based gig economy — like the thousands of delivery workers for Swiggy, Dunzo and Amazon and the cab drivers of Uber and Ola — depend on the Internet for their livelihoods. It is a mode of access to education for students who do courses and take exams online. Access to the Internet is important to facilitate the promotion and enjoyment of the right to education.
The Internet provides access to transport for millions of urban and rural people; it is also a mode to access to health care for those who avail of health services online. More than anything, it is a means for business and occupation for thousands of small and individual-owned enterprises which sell their products and services online, especially those staffed by women and home-based workers.
Thus, the access to the Internet is a right that is very similar to what the Supreme Court held with respect to the right to privacy in the Justice K.S. Puttaswamy judgment , a right that is located through all our fundamental rights and freedoms — the right to freedom of speech and expression; freedom of peaceful assembly and association; freedom of trade and occupation and the right to life under Article 21 which includes within its ambit the right to education, health, the right to livelihood, the right to dignity and the right to privacy.
Internationally, the right to access to the Internet can be rooted in Article 19 of the Universal Declaration of Human Rights which states that “everyone has the right to freedom of opinion and expression; this right includes freedom to hold opinions without interference and to seek, receive and impart information and ideas through any media and regardless of frontiers.”
The Human Rights Council of the United Nations Resolution dated July 2, 2018, on the promotion, protection and enjoyment of human rights on the Internet, made important declarations. It noted with concern the various forms of undue restriction on freedom of opinion and expression online, including where countries have manipulated or suppressed online expression in violation of international law.
The resolution affirmed that the same rights that people have offline must also be protected online, in particular freedom of expression, which is applicable regardless of frontiers and through any media of one’s choice and includes the Internet.
The Kerala case – The High Court of Kerala made a start to the domestic recognition of the right to Internet access with its judgment in Faheema Shirin R.K. v. State of Kerala & Others, holding that, “When the Human Rights Council of the UN have found that the right to access to Internet is a fundamental freedom and a tool to ensure the right to education, a rule or instruction which impairs the said right of the students cannot be permitted to stand in the eye of the law.” As the Kerala case notes, mobile and broadband Internet shutdowns impact women, girls and marginalised communities more disproportionately than others.
It is time that we recognise that the right to access to the Internet is indeed a fundamental right within our constitutional guarantees.
Date:31-12-19
Holding a mirror to our face
The HDI rankings show that India’s demographic dividend is morphing into a nightmare
Uday Balakrishnan , [ The writer teaches at IISc. Bengaluru ]
For some time now, in political and bureaucratic circles, a smugness has crept in that India has arrived, that it is no longer impoverished and that whatever be the problem, be it scarcity of onion or shortage fighter jets, it can buy itself out of trouble.
In reality, India is desperately poor; it is a country where malnutrition is rife, where children continue to drop out of school in alarming numbers every year and where millions of untrained young people enter the workforce unfit for anything more than manual labour of the hardest kind. In a brake-less hurtle, India’s potential demographic dividend is morphing into a nightmare.
All this is best captured in the UN’s Human Development Index (HDI) rankings where India is a lowly 129th out of 189 countries. China, by contrast, occupies the 85th spot and Sri Lanka an even better 71st position.
Low per capita PPP – One of the reasons for the illusion about India’s wealth is a seductive but dubious country-to-country comparison. In GDP (PPP), India comes a flattering third after China and the United States. The rub is when we start measuring per capita GDP (PPP) as the latest IMF figures indicate.
India’s GDP (PPP) is 43% that of China and only 59% that of Indonesia. It is only slightly higher than that of Vietnam, a surprising star in education, which will get past India sooner than expected. At 118th place, the country is already ahead of India in HDI.
In terms of per capita GDP (PPP), India is much behind France and U.K., each with no more people than Tamil Nadu or Rajasthan. The GDP (PPP) of ASEAN is 80% of India’s, while its population is less than half. Once we strike off its poorest (Myanmar, Cambodia, Laos and Vietnam) the regional grouping’s stellar performance shines more lustrously.
India of course, has the strength of numbers. A recent issue of The Economist states: “as a single country,” it “has tremendous negotiating power.” But all this will cease to matter as other economies in Asia pick up.
Common sense doesn’t prevail – In a recent essay, former Governor of the Reserve Bank of India (RBI) Raghuram Rajan observed that the present government, “instead of building gigantic statues to national or religious heroes,” should be building “more modern schools and universities that will open its children’s minds, making them more tolerant and respectful of one another, and helping them hold their own in the competitive globalised world of tomorrow.” But when did common sense ever prevail in a country that for decades has shown a tendency to pursue the trivial and the unimportant with indefatigable vim?
As Asia integrates, India is busy painting itself into an isolationist corner. Talking about a $5-trillion economy is not going to get us there but a larger vision of what can be achieved e.g. one which envisages embracing Asian economic integration, should help pay attention to things that are enabling East Asian countries to fire — educating and skilling their young and creating infrastructure that works for all.
The Regional Comprehensive Economic Partnership (RCEP), which India refused to join after years of negotiation, is a case in point. It is precisely the kind of programme India should have joined with one of the most vibrant economic regions in the world, one with the potential to bring immense prosperity to not just itself but South Asia as well. But then, as Ramesh Thakur writing in the Japan Times on the country’s refusal to join the RCEP observed, “India has an unmatched capacity to look an opportunity firmly in the eye, turn around, and walk off resolutely in the opposite direction.”