02-01-2020 (Important News Clippings)

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02 Jan 2020
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Date:02-01-20

Welcome decision on inclusive 5G trials

ET Editorials

It is welcome that the government has allowed all vendors, including Chinese ones, Huawei, in particular, to take part in 5G trials in India. This is not just a decision on matters telecom. Nor is it a bilateral diplomatic matter between India and China (the Chinese government has welcomed India’s move). It is a geopolitical decision. The US has been lobbying countries around the world to blacklist Huawei for 5G equipment. India needs to expand its strategic ties with the US, true, but so also with China. India neither has to, nor is in a position to, humbly carry out American bidding on choice of technology. It must calibrate its actions, evaluating the costs and benefits of not succumbing to superpower blackmail to crush a rising technology giant in the emerging world.

Britain, once America’s closest allies, decided, when Theresa May was prime minister, to allow Huawei into the country’s 5G ecosystem, but keep it out of core operations. Britain’s signal intelligence hub, GCHQ, ran extensive tests of Huawei equipment to see if it contained a backdoor that would permit Chinese spies unauthorised access to communications running on Huawei gear. The tests showed that Huawei’s software was buggy, however.

Bugs can be fixed, and attenuate over time. Huawei is cost competitive in the extreme. To bar Huawei on mere suspicion is to deprive Indian consumers of ultra-fast, low-latency telecom that is also cheap — Huawei’s presence pressures Ericsson, Nokia and Samsung to keep their prices low, offering telcos wider choice in 5G kit.

The real problem is India’s lack of technological competence in telecom, whether to deploy home-made 5G gear or even to test and verify externally supplied gear for vulnerabilities. India cannot sustain its strategic autonomy without indigenous capability in advanced communications and computing. Since private companies have shown little stomach for high-risk R&D, the government should set up new public enterprises in these strategic sectors, as well as in artificial intelligence. Encouraging university-level R&D is vital, but not sufficient.


Date:02-01-20

गुड गवर्नेंस में सबसे नीचे भाजपा शासित राज्य

संपादकीय

केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को शासन में सुधार लाने के लिए उन्हें हर साल के अंत में आईना दिखाना शुरू किया है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस पर मनाए जाने वाले गुड गवर्नेंस दिवस (सुशासन दिवस) पर इस साल से मोदी सरकार ने गुड गवर्नेंस इंडेक्स (जीजीआई) जारी करने का सिलसिला शुरू किया है।राज्यों को तीन वर्गों बड़े राज्य, पूर्वोत्तर व पहाड़ी राज्य और केंद्र-शासित राज्य में बांटा गया है। इनके प्रदर्शन का आकलन कृषि, वाणिज्य एवं उद्योग, शिक्षा, जनस्वास्थ्य, जनअंतरसंरचना और जन सुविधाएं, आर्थिक शासन, समाज कल्याण तथा विकास, न्याय एवं जन सुरक्षा, पर्यावरण तथा जनकेंद्रित शासन पर होना है।पूरी ईमानदारी से केवल इस साल के मार्च तक उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर केंद्र सरकार की 18 बड़े राज्यों वाली सूची के वर्ग में सबसे निचले पायदान पर बिहार, गोवा, उत्तर प्रदेश और झारखंड हैं। मध्य प्रदेश नौंवें और छत्तीसगढ़ चौथे स्थान पर है। देखा जाए तो जिस अवधि के आंकड़े लिए गए हैं, इन ज्यादातर राज्यों में भाजपा का ही शासन रहा है।तमिलनाडु सभी दस क्षेत्रों के सम्मिलित अंक पर सबसे आगे है। झारखंड और उत्तर प्रदेश क्रमशः 15वें और 16वें स्थान पर हैं। देश की एक चौथाई से ज्यादा आबादी वाले उत्तर प्रदेश में विकासहीनता की यह स्थिति सालोंसाल बनी रही है।पूरे देश में इसका संदेश नकारात्मक जाता है और केंद्र में भी चूंकि वही दल है, इसलिए यह संदेश भी जाता है कि केंद्र सरकार और उसके मुखिया इन राज्यों पर प्रभावी अंकुश लगाकर इन्हें विकासोन्मुख करने में असमर्थ हैं। लिहाज़ा, प्रधानमंत्री को सख्त संदेश देना होगा।


Date:02-01-20

एक करोड़ रु. तक के मामले सुनेंगी जिला अदालतें

संपादकीय

पहले उपभोक्ताओं के हितों के लिए सख्त कानून नहीं थे। ग्राहक संगठित नहीं होने से उनकी आवाज सुनी नहीं जाती थी। इसलिए ग्राहक आंदोलन की शुरुआत हुई और 15 मार्च को अंतरराष्ट्रीय उपभोक्ता दिवस मनाया जाने लगा।उपभोक्ताओं की शिकायतें निपटाने के लिए जिला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर उपभोक्ता अदालतों (कंज्यूमर रिड्रेसल कमीशन) की स्थापना की गई है। 2019 में संशोधित नए कंज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट में उपभोक्ता अदालतों को और शक्तियां देकर इनके क्षेत्राधिकार को बढ़ाया गया है। अब जिला आयोग 1 करोड़ रुपए तक हर्जाने का आदेश दे सकता है। राज्य आयोग को 10 करोड़ तक का अधिकार है। वहीं, इससे अधिक की राशि का हर्जाना करने का अधिकार राष्ट्रीय आयोग को है, यह सब पहले नहीं होता था। अब, कंज्यूमर द्वारा की गई शिकायत राज्य और राष्ट्रीय सीडीआरसीज़ में फाइल की जा सकती है। जिला सीडीआरसी के आदेश के खिलाफ राज्य सीडीआरसी में सुनवाई होगी। राज्य सीडीआरसी के आदेश के खिलाफ राष्ट्रीय सीडीआरसी में सुनवाई की जाएगी। अंतिम अपील का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को होगा।

नए कंज्यूमर एक्ट-2019 की विशेषताएं

उपभोक्ता हित सर्वोपरि : यह अधिनियम उन मामलों के खिलाफ इस्तेमाल होगा जहां उपभोक्ता अधिकारों का उल्लंघन होता हो। व्यापार के अनुचित तरीकों से ग्राहक को भ्रमित किया जाता हो। कंज्यूमर हित प्राधिकरण के पास खुद का विंग होगा जो विभिन्न जांच करने के लिए स्वतंत्र रहेगा। इसमें इन्वेस्टीगेशन के साथ संपत्ति या वस्तु जब्त करने की शक्ति भी शामिल है।

उत्पाद निर्माता पर कार्रवाई का अधिकार : खराब वस्तु बेचने के कारण ग्राहक का नुकसान हो सकता है। यह नया कानून ऐसे उत्पाद निर्माता व्यक्ति, कंपनी के खिलाफ कार्रवाई का अधिकार देता है। ग्राहक को हुई क्षति की पूर्ति के लिए अब वस्तु बेचने वाली कंपनी को जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा। ई-शॉपिंग पर भी यह लागूू रहेगा।

विज्ञापन पर जुर्माना : किसी उत्पाद या सेवा का झूठा प्रचार करने या गारंटी देकर उपभोक्ताओं को गुमराह करने वाले विज्ञापन जारी होते हैं। ऐसे विज्ञापनदाताओं के खिलाफ इस नए कानून में कार्रवाई करने का अधिकार है। भ्रामक विज्ञापन देने वालों पर अधिकतम 10 लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया जा सकता है। दोबारा अपराध करने पर यह 50 लाख रु. हो सकता है।


Date:02-01-20

मोदी सर्कार के सामने रोजगार सृजन की चुनोती

डॉ. भरत झुनझुनवाला

नए साल का राजनीतिक और सामाजिक मोर्चे पर चाहे जैसा परिदृश्य बने, इसके संकेत साफ दिख रहे हैं कि आर्थिक परिदृश्य और मुश्किल हो सकता है। समस्या यह है कि मध्यधारा के हमारे अर्थशास्त्री मूल समस्या को चिन्हित ही नहीं कर पा रहे हैं। उनके द्वारा मौजूदा आर्थिक सुस्ती के चार प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं। आर्थिक सुस्ती का पहला कारण रियल एस्टेट क्षेत्र में सुस्ती को बताया जा रहा है, लेकिन बड़ा प्रश्न यही है कि रियल एस्टेट में मंदी किस कारण आई और वह भी 2016 के बाद ही क्यों? इसकी गहराई से पड़ताल नहीं की जा रही है कि बाजार में मांग कम क्यों हुई?

आर्थिक सुस्ती का दूसरा कारण यह बताया जा रहा है कि सरकारी बैंकों के ऋणों का भुगतान नहीं हो पा रहा है। यहां एक बार फिर सवाल खड़ा होता है कि यह समस्या भी 2016 के बाद ही क्यों उत्पन्न हुई? सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा ऐसे खराब ऋण तो पहले भी दिए जा रहे थे। वास्तव में 2014 में राजग सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की कार्यशैली में सुधार ही हुआ है। ऐसे में मौजूदा समस्या का सही कारण यही लगता है कि जिन कंपनियों को बैंकों ने ऋण दिए, उनका माल ही नहीं बिक रहा। इसी कारण वे कर्ज का भुगतान नहीं कर पा रहीं। आर्थिक सुस्ती की तीसरी वजह जनसंख्या बताई जा रही है। यह बात भी गले नहीं उतरती। वास्तव में इसी जनसंख्या के चलते देश को फिलहाल डेमोग्राफिक डिविडेंड का लाभ हासिल है। वर्ष 1970 में 16 से 65 वर्ष के कामकाजी प्रत्येक 100 लोगों पर 81 बच्चे एवं वृद्ध आश्रित थे। वर्तमान में यह आंकड़ा प्रत्येक 100 कार्यरत लोगों पर केवल 50 आश्रितों का रह गया है। कामकाजी आबादी पर आश्रित जनसंख्या का आर्थिक भार कम हुआ है। इससे बची हुई रकम का उपयोग वे निवेश के लिए कर सकते हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि फिलहाल जनसंख्या हमारी पूंजी है न कि बोझ। आर्थिक सुस्ती का चौथा कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था की सुस्ती को भी बताया जा रहा है। यह भी सच नहीं है। वर्ष 2001 से 2010 तक विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 2.6 प्रतिशत थी जबकि 2011 से 2019 तक 2.9 प्रतिशत रही। वैश्विक अर्थव्यवस्था इस समय सुदृढ़ है। इससे भी बढ़कर तो यह बात है कि फिलहाल कच्चे तेल के दाम इस समय न्यून स्तर पर हैं और राजग सरकार भी मूल रूप से ईमानदार है। इस कारण सरकारी बजट का भी अतीत की तुलना में बेहतर तरीके से उपयोग हो रहा है। इस लिहाज से तो फिलहाल हमारी अर्थव्यवस्था को आसमान छूना चाहिए था जबकि हमारी विकास दर पस्त पड़ी हुई है। यही सबसे बड़ी हैरानी की बात है।

इन कारणों के उलट मुझे नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम आर्थिक सुस्ती के लिए ज्यादा जिम्मेदार लगते हैं। नोटबंदी के कारण नकदी केंद्रित छोटे उद्योगों को जो चोट पहुंची, वे उससे उबर ही नहीं पाए। वहीं जीएसटी ने एक राज्य से दूसरे राज्य में माल पहुंचाना बहुत आसान बना दिया जिससे मुख्य रूप से बड़े उद्योग ही लाभान्वित हुए जबकि छोटे उद्योग लड़खड़ाते गए। वहीं छोटे उद्योगों पर जीएसटी अनुपालन का बोझ भी ज्यादा पड़ रहा है। इससे उनकी हालत लगातार खराब हो रही है। इससे रोजगार भी घट रहे हैं, क्योंकि छोटे उद्योगों से ही सबसे ज्यादा रोजगार सृजित होते रहे हैं। रोजगार घटने से मांग कम हुई है जिसका व्यापक असर देखने को मिल रहा है। इस बीच एक और विरोधाभास देखने को मिला है और वह यह कि जहां हमारी विकास दर गिर रही है वहीं शेयर बाजार तेजी पर सवार है। वास्तव में यह विरोधाभासी चाल इसलिए है कि हमारी कुल अर्थव्यवस्था का आकार संकुचित हो रहा है, लेकिन उसके भीतर बड़े उद्योगों का आकार बढ़ रहा है। जैसे मान लीजिए पूर्व में हमारी कुल अर्थव्यवस्था 100 रुपये की थी और उसमें बड़े और छोटे उद्योगों का आकार 50-50 रुपये था तो आज हमारी कुल अर्थव्यवस्था 80 रुपये की हो गई है। इसका आकार छोटा हो गया और हमारी विकास दर गिर गई, लेकिन साथ ही साथ बड़े उद्योगों का आकार 50 रुपये से बढ़कर 60 रुपये हो गया और छोटे उद्योगों का आकार 50 रुपये से घटकर 20 रुपये हो गया। बड़े उद्योगों का आकार बढ़ने से शेयर बाजार उछल रहे हैं। साथ ही साथ कुल आकार छोटा होने से विकास दर घट रही है। यह प्रमाणित करता है कि मुख्य समस्या छोटे उद्योगों के विघटन के कारण उत्पन्न हुई है।

मेरे हिसाब से आर्थिक सुस्ती का दूसरा कारण सामाजिक तनाव है। गोरक्षा, अनुच्छेद 370 की समाप्ति और नागरिकता कानून जैसी पहल पर समाज में तनाव बढ़ रहा है। सरकार के ये कदम सही हैं या गलत, यह अलग विवेचना का विषय है, लेकिन इस तनाव के कारण अमीर लोग बड़ी संख्या में देश छोड़कर दूसरे देशों की ओर रुख कर रहे हैं। वे अपने साथ अपनी पूंजी लेकर जा रहे हैं। जानकारों के अनुसार हर वर्ष सैकड़ों अमीर देश छोड़कर पलायन कर रहे हैं। हमारी अर्थव्यवस्था के गुब्बारे से हवा निकल रही है। घरेलू उद्यमियों में भी कुछ निराशा का माहौल है। इन सब कारणों से देश में निजी निवेश कम हो रहा है और हमारी विकास दर गिर रही है।

आर्थिक सुस्ती को तोड़ने के लिए सरकार वित्तीय घाटे के अस्त्र का इस्तेमाल करने से भी हिचक रही है। केंद्र सरकार का वित्तीय घाटा वर्ष 2014-15 में 4.1 प्रतिशत था जो वर्तमान में 3.4 प्रतिशत हो गया है। वित्तीय घाटे के कम होने का अर्थ है कि सरकार के पास ऋण लेकर खर्च करने और बाजार में मांग बनाने के अवसर कम हैं। सरकारी खर्चों में इस संकुचन से अर्थव्यवस्था में जो सरकारी मांग उत्पन्न हो सकती थी, वह भी उत्पन्न नहीं हो रही है। इन तीन कारणों से अर्थव्यवस्था में मंदी चल रही है। जिस पर मध्यधारा के अर्थशास्त्री इन कारणों पर मौन हैं। सरकार के सामने 2020 की पहली चुनौती है कि छोटे उद्योगों को पुनर्जीवित किया जाए ताकि रोजगार के अवसर सृजित हों। इसके लिए सरकार को छोटे उद्योगों को पहले की तरह संरक्षण देकर रोजगार उत्पन्न करने होंगे। साथ ही सेवा क्षेत्र पर ध्यान देना होगा, क्योंकि ऑनलाइन सेवाओं के वैश्विक निर्यात में अपार संभावनाएं हैं जिन्हें हम फिलहाल हासिल नहीं कर पा रहे हैं। दूसरी चुनौती है कि वित्तीय घाटे को नियंत्रित करने के मंत्र को त्यागकर सरकार अपने खर्च बढ़ाए। विशेषकर उन स्थानों पर खर्च बढ़ाए जिनसे छोटे उद्योगों को राहत मिले। जैसे छोटे कस्बों में मुफ्त वाईफाई उपलब्ध कराना अथवा कस्बों की सड़कों का सुधार करना अथवा उन्हें बिजली उपलब्ध कराना। ऐसे कार्यों से छोटे उद्योगों को जमीनी स्तर पर राहत मिलेगी और अर्थव्यवस्था पुन: तेजी पर सवार हो सकती है। तीसरे कदम के रूप में सरकार को सामाजिक तनाव कम करने के उपायों पर विचार करना होगा।


Date:02-01-20

असरदार फसल बीमा

संपादकीय

मोदी सरकार अपनी प्रमुख योजना प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमबीएफबीवाई) की समीक्षा करने जा रही है। यह किसानों का फसल जोखिम कम कर उन्हें सही मायने में फायदा पहुंचाने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है। हालांकि योजना की समीक्षा के लिए मंत्री समूह जैसा उच्चस्तरीय पैनल बनाने की जरूरत पर बहस हो सकती है। रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में गठित इस समूह में गृह मंत्री और कुछ अन्य मंत्री भी शामिल हैं।

वैसे कृषि विशेषज्ञों, किसानों, बीमा कंपनियों और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को इस समीक्षा पैनल में रखा जाता तो बेहतर होता। पीएमएफबीवाई के वर्ष 2016 में आगाज के कुछ समय बाद से ही इसकी पुनर्संरचना एवं समीक्षा की जरूरत महसूस की जा रही थी लेकिन सरकार को इस दिशा में कदम उठाने में समय लगा। फसल बीमा की तमाम पुरानी योजनाओं से बेहतर होने के बावजूद यह योजना अंतर्निहित संरचनात्मक, वित्तीय एवं लॉजिस्टिक खामियों के चलते किसी भी हितधारक को प्रभावित कर पाने में नाकाम रही।

इस मोर्चे पर सर्वव्यापी अंसतुष्टि इस बात से जाहिर होती है कि तीन प्रमुख कृषि राज्यों- आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल एवं बिहार ने इस योजना से खुद को अलग कर लिया है। कम-से-कम तीन अन्य राज्य- कर्नाटक, गुजरात एवं ओडिशा भी ऐसा करने की सोच रहे हैं। इन राज्यों का मानना है कि योजना से होने वाले लाभों की तुलना में इसके संचालन की लागत कहीं अधिक है लिहाजा वे किसानों को नुकसान की भरपाई के लिए वैकल्पिक तरीके आजमा रहे हैं। इसके अतिरिक्त चार निजी बीमा कंपनियों ने भी इस योजना को घाटा उठाने वाला धंधा बताते हुए खुद को अलग कर लिया है। इससे भी बुरी बात यह है कि कई अन्य बीमा कंपनियों के भी इससे अलग होने के आसार हैं। हालांकि आम धारणा यही है कि सरकार की तरफ से दी जा रही सब्सिडी का बड़ा हिस्सा बीमा कंपनियों के पास जा रहा है। किसानों को भी यह योजना अधिक भा नहीं रही है। वैसे किसानों को रबी फसलों के लिए महज एक फीसदी, खरीफ फसलों के लिए 1.5 फीसदी और वाणिज्यिक फसलों के लिए पांच फीसदी प्रीमियम ही देना होता है।

इस योजना के डिजाइन में एक बड़ी खामी यह है कि इसमें योजना के व्यय (यानी सब्सिडी) का बोझ राज्यों को केंद्र के साथ आधा-आधा उठाना है। राज्यों के हिस्से का फंड जारी करने में चूक होने से बीमा दावों के त्वरित निपटान की बीमा कंपनियों की क्षमता भी प्रभावित होती है। फसलों को अधिसूचित करने, बुआई का रकबा और बीमा योग्य अधिकतम राशि तय करने का अधिकार राज्यों को देने से भी इस योजना की नाकामी का रास्ता तैयार हुआ है। राज्य अक्सर अपने वित्तीय बोझ को कम रखने के लिए सीमा को काफी कम रखते हैं जिससे उत्पादकों के लिए योजना की उपयोगिता कम हो जाती है। कर्जदारों की फसल का बीमा करने की बैंकों को दी गई मंजूरी भी योजना की एक बड़ी समस्या है।

बैंक अमूमन कर्ज के बरक्स बीमित राशि का समायोजन कर लेते हैं जिससे किसान असहाय हो जाते हैं। बीमित उत्पादक किसानों को अक्सर लेनदेन के विवरणों के बारे में पता भी नहीं चल पाता है। भले ही फसलों को हुए नुकसान के त्वरित आकलन के लिए इस योजना में तकनीक खासकर सैटेलाइट इमेजिंग के इस्तेमाल की परिकल्पना की गई है लेकिन अभी तक इसके वांछित परिणाम नहीं रहे हैं। नुकसान के आकलन के लिए राज्य सरकारें जिन तरीकों का इस्तेमाल करती हैं, वे समय-साध्य एवं अपारदर्शी होने से भरोसे का संकट पैदा होता है। ऐसे में अचरज नहीं है कि किसानों की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि उन्हें या तो मुआवजा अपर्याप्त मिलता है या मिलता ही नहीं है। अगर मंत्री समूह इन सभी बिंदुओं एवं अन्य प्रासंगिक पहलुओं पर ठीक से ध्यान देता है तो पीएमएफबीवाई को किसानों के लिए वरदान बनाने की उम्मीद बंधेगी।


Date:02-01-20

बहु-संस्कृतिवाद को उभरते उप-राष्ट्रवाद से गंभीर खतरा

कनिका दत्ता

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) पर मचा घमासान इस बात की तरफ स्पष्टï इशारा करता है कि सरकार लंबे समय से चली आ रही देश की बहु-संस्कृतिवाद की परंपरा के प्रति गंभीर नहीं है। देश को ‘मुस्लिम मुक्त’ बनाने की प्रधानमंत्री नरेंद मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की योजना ने एक विकराल रूप धारण कर लिया है, जो देश के बहु-संस्कृतिवाद के आसन्न खतरों की महज एक झलक भर है। सीएए और एनआरसी पर हो रहा विरोध केवल एक जगह सीमित नहीं है और इसने देश में ‘उप-राष्ट्रवाद’ की ज्वाला भड़का दी है। अगर यह स्थिति जल्द नियंत्रित नहीं गई तो देश के लिए इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

सीएए और एनआरसी को लेकर मुसलमानों में अंसंतुष्टी से देश में विरोध प्रदर्शन का स्वर तेज होता गया और देश के कई क्षेत्रों में विभिन्न समुदायों के लोग एक साथ सड़क पर उतर आए। 27 प्रतिशत आदिवासी आबादी वाले झारखंड के मतदाताओं ने एनआरसी प्रक्रिया को लेकर अपनी नाराजगी जता दी है, खासकर नागरिकता से जुड़े प्रमाण के लिए ऊंचे मानदंड तय किए जाने से लोगों में गुस्सा फूट पड़ा है।

पूर्वोत्तर भारत के लोगों को खासकर इस बात का डर सता रहा है कि सीएए और एनआरसी के बाद बंगाली हिंदुओं के आने से उनकी अपनी विशेष पहचान खत्म हो जाएगी। जनवरी में विधेयक संसद में पारित नहीं हो पाया था और कानून के नए प्रारूप में इन राज्यों की चिंताएं दूर करने के लिए बदलाव किए गए थे। इस तरह, पूर्वोत्तर भारत में बड़े पैमाने पर आदिवासी क्षेत्र इस कानून की जद से बाहर रखे गए थे।

सीएए और एनआरसी पर विभिन्न समूहों एवं समुदायों ने आपत्ति जताई है। पूर्वोत्तर भारत में हिंदू एवं मुस्लिम बंगाली समुदाय स्थानीय लोगों के गुस्से का शिकार हो रहे हैं और खासकर असम में लोगों का गुस्सा इनके खिलाफ दोबारा फूट पड़ा है। सिक्किम के पूर्व फुटबॉल खिलाड़ी और अब राजनीति में उतरे बाईचुंग भूटिया ने ऐसी चिंता जताई है कि उनके राज्य की संस्कृति पर हमला किया जा रहा है। प्राय: सभी लोग बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों की ओर इशारा कर रहे हैं, लेकिन जब भाषा संस्कृृति सीमाएं लांघती हैं तो जातिगत हिंसा का रण क्षेत्र तैयार हो जाता है। भाजपा ने बहुत पहले ही सभी मुसलमान परस्तों को पाकिस्तान जाने की सलाह दे दी है। अब अगर भाजपा यह मांग करने लगे कि सभी बंगालियों को बांग्लादेश जाना चाहिए तो इसमें किसी तरह का आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

इस तेजी से उभरते उप-राष्टवाद के साथ जुड़ी सबसे बड़ी चिंता यह है कि अर्थव्यवस्था में अगर सुधार नहीं हुआ और रोजगार की संभावनाएं कम हुईं तो इसमें और तेजी आ सकती है। पिछली बार के वैश्विक वित्तीय संकट से यह बात पूरी तरह साफ हो चुकी है और इसके लिए सरकार को इतिहास के पन्ने भी पलटने की जरूरत नहीं है। देश ने 2008 में वह नजारा देखा था जब महाराष्ट नव निर्माण सेना (एमएनएस) के लोगों के डर से उत्तर प्रदेश और बिहार के भयभीत लोग किस तरह देश की वित्तीय राजधानी मुंबई से पलायन कर रहे थे।

इसके बाद 2012 में भारत की अर्थव्यवस्था शिथिल पड़ी थी तो उस समय भी पूर्वोत्तर के लोग भारत का तथाकथित ‘सिलिकन वैली’ माने जाने वाले सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) केंद्र बेंगलूरु से खदेड़े जा रहे थे। इस साल मई में भी कई वीडियो सामने आए, जिनमें राजनीतिक लफंगे कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले कारोबारियों को पीट रहे थे और उन्हें आतंकवादी तक कहा जाने लगा था। अगस्त में सरकार ने जम्मू कश्मीर का संविधान प्रदत्त विशेष दर्जा समाप्त कर दिया और मोटे तौर पर देश के ज्यादातर हिस्सों में इसे लेकर संतोष का भाव देखा गया। गैर-कश्मीरी मानने लगे कि अब वह भी ‘धरती के स्वर्ग’ में जमीन-मकान आदि खरीद पाएंगे। 5 अगस्त से यह पूरा क्षेत्र सुरक्षा घेरे में हैं और धीरे-धीरे इंटरनेट सेवाएं बहाल की जा रही हैं। अक्टूबर में श्रीनगर में एक उच्च स्तरीय निवेश सम्मेलन आयोजित होना था, लेकिन इसे स्थगित कर दिया गया और यह नई दिल्ली में आयोजित हुआ।

आंध प्रदेश में भी उप-राष्टवाद का झंडा बुलंद किया जा रहा है। मुख्यमंत्री वाई एस जगन मोहन रेड्डी ने राज्य के मौजूदा और नए उद्योगों-सार्वजनिक, संयुक्त उद्यम-सभी के लिए स्थानीय लोगों के लिए 75 प्रतिशत नौकरियां आरक्षित करना अनिवार्य कर दिया है। 2014 में विभाजन के बाद अस्तित्व में आया आंध्र प्रदेश देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने यह दिशानिर्देश दिया है। अब दूसरे राज्य भी इस दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। महाराष्ट में 2008 में राज ठाकरे के डर से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों के पलायन के बाद छोटी एवं मझोली फैक्टरियां खाली हो गई थीं और महिंद्रा ऐंड महिंद्रा सहित दूसरे बड़े उद्योगों को कल-पुर्जों की आपूर्ति थम गई थी। बेंगलूरु से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन के बाद हजारों छोटे कारोबार खासकर तेजी से बढ़ता सेवा क्षेत्र कर्मचारी विहीन हो गए थे। हालात इतने खराब हो गए थे कि राज्य के गृहमंत्री को लोगों का डर दूर करने स्वयं रेलवे स्टेशनों के चक्कर लगाने पड़े।

राज्य में निवेश करने के आतुर निवेशकों से रेड्डी ने बात की होती तो वे उन्हें इस स्थानीय राजनीति के नुकसान के बारे में पता चलता। कारोबारों, खासकर जो वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान बनाना चाहते हैं, को सामाजिक एवं क्षेत्रीय पक्षों से ध्यान हटाकर प्रतिभा को वरीयता देनी चाहिए। इस तर्क को शायद ही कोई आसानी से स्वीकार करेगा कि आंध्र के लोग देश के दूसरे हिस्सों से अधिक प्रतिभावान हैं, इसलिए उन्हें विशेष अवसर दिया जाना चाहिए। महाराष्ट में एमएनएस को इस तरह की सोच का नुकसान उठाना पड़ा है। वहां निजी क्षेत्र लागत के लिहाज से किफायती मानव श्रम को अधिक तरजीह दे रहे हैं। प्रधानमंत्री के हाल के भाषण से फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि नागरिकता पर बहस किस दिशा में बढ़ रही है।


Date:02-01-20

धरती को बचाने के तीन जरूरी कदम

अरुणाभ घोष , (लेखक काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरनमेंट ऐंड वाटर के सीईओ हैं)

किसी समस्या के समाधान के लिए पहले हमें उसे स्वीकार करना पड़ता है। लेकिन मैड्रिड जलवायु सम्मेलन में चर्चा के लिए जुटे तमाम वार्ताकार ऐसा करने में नाकाम रहे। पिछले किसी भी वार्षिक जलवायु सम्मेलन से अधिक समय तक चलने के बावजूद मैड्रिड सम्मेलन किसी समझौते के बगैर ही समाप्त हो गया। पेरिस समझौता असल में सुलह का एक तरीका था जिसमें हरेक के लिए कुछ-न-कुछ दिया गया था।

इस साल के ‘कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज’ (सीओपी-25) में किसी के लिए भी कोई प्रस्ताव नहीं रखा गया था। मुद्दा जलवायु वार्ताओं की नाकामी नहीं है। असली समस्या यह है कि हम एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते हैं। किसी भी रिश्ते में भरोसा बहाल करने की शुरुआत ईमानदारी से होनी चाहिए और फिर पिछली गलतियों को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए। इससे साथ मिलकर काम करने के वादों का रास्ता बनेगा। धरती बचाने के घटनाक्रम को तीन दृश्यों में यहां पेश किया जा रहा है।

पहला कदम: सच्चाई। ईमानदारी एक गुण है और विश्वसनीयता एक प्रतिष्ठा है। जलवायु सम्मेलनों में किए गए वादे विश्वसनीय नहीं हैं क्योंकि दो कड़वे सच के बारे में ईमानदारी की कमी है। जलवायु पहले ही बदल चुकी है और उठाए जा रहे कदम पर्याप्त होने के आसपास भी नहीं हैं। विश्व का तापमान पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में कम-से-कम 3.2 डिग्री सेल्सियस बढऩे की राह पर है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने हाल में कहा है कि पेरिस समझौते की मंशा के अनुरूप अगर वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि तक ही सीमित रखना है तो 2020-30 के दौरान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में हर साल 7.6 फीसदी गिरावट लानी होगी।

इस सबूत के बरक्स ऐसी अपेक्षा है कि हरेक देश को आकांक्षाएं बढ़ानी होंगी। लेकिन यह संकल्पना दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें कोई शीघ्रता नहीं है। अगर एक देश वर्ष 2050 तक विशुद्ध रूप से शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य की घोषणा करता है तो उसे जलवायु नेता माना जाता है। इस दिशा में जल्द काम नहीं करने या उत्सर्जन कटौती की योजना पहले नहीं बनाने पर फटकार नहीं है। ऐतिहासिक रूप से बड़े प्रदूषक देशों के कदमों में देरी से दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के लिए बाकी कार्बन बजट सिकुड़ता जाता है। अगर देश बुनियादी कार्बन गुणा-गणित को लेकर बेईमान बने रहते हैं तो दीर्घकालिक रणनीति विश्वसनीय नहीं है।

पहले कदम का अंत नैतिक सच्चाई के नाटकीय प्रदर्शन के साथ होना चाहिए: दीर्घकालिक रणनीतियों और बढ़ी हुई महत्त्वाकांक्षा रखने वाले देशों को यह भी बताना चाहिए कि उनकी योजनाएं किस हद तक फ्रंटलोडेड हैं और उन पर अमल करने के लिए किस तरह के नियंत्रण एवं संतुलन रखे गए हैं?

दूसरा कदम: निवारण। भूलने से कहीं अधिक आसान होता है माफ करना। अमीर देश 2020 से पहले के अपने वादों पर खरे नहीं उतरे हैं। किसी भी विकसित देश ने क्योटो प्रोटोकॉल पर किए गए दोहा समझौते के हिसाब से अपनी महत्त्वाकांक्षाएं ऊंची नहीं की। इसका मतलब है कि वर्ष 2020 तक जरूरी उत्सर्जन कटौती नहीं की गई। इसके अलावा वर्ष 2020 तक जलवायु मद में 100 अरब डॉलर के वित्तपोषण का वादा पूरा करने के बजाय 2013-18 के दौरान राहत के लिए बहुपक्षीय जलवायु कोष ने केवल 10.4 अरब डॉलर की ही मंजूरी दी और अनुकूलन फंडिंग केवल 4.4 अरब डॉलर रही।

तीसरी चुनौती यह है कि स्वच्छ विकास व्यवस्था के तहत चार अरब अनबिके प्रमाणित उत्सर्जन कटौतियां हैं। उनके लिए भुगतान नहीं करने से कार्बन बाजार में भरोसा कम होता है। उन्हें आगे ले जाने से 2020 के बाद कार्बन बाजार में क्रेडिट की भरमार होगी और आगे चलकर ऑफसेट की कीमत कम हो जाएगी।

अतीत को भुलाया नहीं जा सकता है और सभी पक्ष 1 जनवरी 2021 से लागू हो रहे पेरिस समझौते पर अमल पर ही ध्यान नहीं दे सकते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि गैरमहत्त्वाकांक्षी कार्य, अपूर्ण वित्तीय प्रतिबद्धता और अनबिके कार्बन क्रेडिट के मुद्दे पर यह सवाल बदस्तूर कायम है कि ‘मुझे कैसे पता कि तुम मुझे दोबारा मूर्ख नहीं बनाओगे?’

दूसरा कदम पिछली शिकायतों को दूर करने की मांग करता है। सितंबर 2020 तक विकसित देशों को हामी भरनी चाहिए कि 2020 से पहले की प्रतिबद्धता और परिणामों के बीच के फासले को वे 2020-पश्चात के अपने संकल्प में घरेलू स्तर पर पूरी तरह आत्मसात कर लेंगे। इसके अलावा विकसित देशों को अनबिके सीडीएम क्रेडिट को एकमुश्त समाधान के जरिये चुका देना चाहिए। दिवालिया प्रक्रिया की तरह रियायती दर पर मोलभाव करना व्याकुलता से भरा होगा।

लेकिन कोई भी तय मूल्य निम्न-कार्बन निवेश के एवज में संभावित लाखों करोड़ डॉलर की तुलना में बहुत छोटा ही होगा। ऐसे समाधान से 2020-पश्चात के उत्सर्जन कारोबार बाजार की सच्चाई बनी रहेगी जैसा जिक्र पेरिस समझौते की धारा 6 में है। ये दोनों ही कदम सरकारों और बाजारों के प्रति भरोसे को खासा बढ़ा सकते हैं।

तीसरा कदम: नवीनीकरण। सभी संबंधों को दूसरा अवसर दिया जाना चाहिए। वित्त और तकनीक पर नए सिरे से ध्यान देकर सामूहिक जलवायु प्रयास के वादे का नवीनीकरण संभव है। उभरती अर्थव्यवस्थाओं के पास निम्न-कार्बन ढांचे को छलांग लगाकर पार करने का मौका है। चीन, भारत और मैक्सिको जैसे देश नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश कर पहले से ही इसका प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन वित्त की लागत संस्थागत निवेशकों को आशंकित जोखिमों के चलते निषेधकारी बनी हुई है। वित्त पर एक नए करार की जरूरत है। वैश्विक वित्त को जलवायु जोखिम एवं निवेश जोखिम की तुलना में जोखिमपूर्ण रवैया अपनाना चाहिए, प्रीमियम कीमत वास्तविकता दर्शाने वाली होनी चाहिए न कि धारणा। तमाम जोखिमों को कम करने के लिए सार्वजनिक धन के छोटे हिस्से का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।

इसी तरह तकनीक पर एक नया सौदा होने से विभिन्न तरह की तकनीकों के लिए मिलजुलकर प्लेटफॉर्म बनाए जा सकेंगे। पहला, ऊर्जा-सक्षम उपकरण और वितरित बिजली को बढ़ावा देने वाले वाणिज्यिक प्रायोगिक परियोजना के जरूरतमंद। दूसरा, किफायती सौर उपकरण, ऊर्जा भंडारण और कम कार्बन वाली कूलिंग तकनीकों के लिए अहम शुरुआती निवेश के आकांक्षी। और तीसरा, अधिक जोखिम लेकिन ऊंची संभावनाओं से भरपूर तकनीकों के लिए फंड एवं वैज्ञानिक प्रतिभा को इकट्ठा करना (उद्योग के लिए नवीन ऊर्जा से निकला हाइड्रोजन, कार्बन भंडारण एवं उपयोग और सौर विकिरण प्रबंधन)।

शेक्सपियर की वह पंक्ति अच्छी सलाह देती है कि ‘सबसे प्रेम करो, कुछ पर भरोसा करो और किसी के साथ भी गलत मत करो।’ नवंबर 2020 में एक बार फिर सभी देश ग्लास्गो में इकट्ठा होकर जलवायु मुद्दों पर चर्चा करेंगे। हमें अपनी धरती से प्यार करना होगा, पिछली गलतियां ठीक करनी होंगी और कदम-दर-कदम भरोसा बहाल करना होगा। ‘अंत भला तो सब भला’ कहावत हमें यही सलाह देती है। ईमानदार एवं प्रभावी जलवायु प्रयास के लिए हम यह बात कह पाने से अभी बहुत दूर हैं।


Date:01-01-20

विकास के सामने

संपादकीय

किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कायम सरकारों की जिम्मेदारी होती है कि वे विकास के लिए जरूरी मानकों को केंद्र में रख कर काम करें और हर क्षेत्र में संतुलन के साथ आगे बढ़ें। भारत जैसे संघीय और लोकतांत्रिक ढांचे में यह ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में विकास संतोषजनक और संतुलित स्वरूप में दिखे। यह सही है कि इस ढांचे में जो पहले से सक्षम और मजबूत राज्य हैं, वहां उपलब्धियों का पैमाना पिछड़े राज्यों से ज्यादा बेहतर होगा। लेकिन यहीं एक सवाल उभर कर सामने आता है कि अगर कमजोर और पिछड़े माने जाने वाले राज्यों में विकास के बुनियादी तत्त्वों की अनदेखी होती है या संसाधनों की कमी या फिर अन्य वजहों से जरूरी मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता है, तो क्या वह विकास की दौड़ में और नहीं पिछड़ता जाएगा?भारत में नीति आयोग की ताजा रिपोर्ट में एक बार फिर इसी तरह की तस्वीर उभरी है, जिसमें दक्षिण के कुछ राज्यों ने समग्र विकास के मामले में काफी बेहतर प्रदर्शन किया है, जबकि उत्तर भारत के कुछ राज्यों में बेहद निराशाजनक स्थिति रही। मसलन, सतत विकास के केंद्र सरकार के मानकों पर केरल पहले स्थान पर रहा, जबकि बिहार का प्रदर्शन सबसे खराब रहा।

गौरतलब है कि सतत विकास लक्ष्य यानी एसडीजी, भारत सूचकांक-2019 में सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण के क्षेत्र में राज्यों की उपलब्धियों के आधार पर उनके प्रदर्शन का आकलन किया जाता है और उनके स्थान निर्धारित किए जाते हैं। ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इस कसौटी पर सत्तर अंकों के साथ केरल शीर्ष पायदान पर बना रहा। हालांकि इस बार केंद्र शासित प्रदेशों में से चंडीगढ़ ने भी सत्तर अंक हासिल किए। दूसरे स्थान पर हिमाचल प्रदेश रहा, जबकि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना तीनों ही संयुक्त रूप से तीसरे स्थान पर रहे। जाहिर है, इन राज्यों ने सतत विकास लक्ष्यों के अलग-अलग पैमानों पर संतोषजनक प्रदर्शन किया, लेकिन कई स्तरों पर अभी उन्हें बेहतरी के लिए काम करने की जरूरत है।

विडंबना यह है कि इस आकलन में बिहार और झारखंड जैसे राज्य सबसे निचले स्तर पर हैं, जहां अमूमन हर क्षेत्र में विकास की गति को तेज करने की जरूरत सबसे ज्यादा है। यह किसी से छिपा नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि क्षेत्रों में बिहार या झारखंड में क्या स्थिति है। पर्यावरण का सवाल भी विकास के सरोकार में शामिल नहीं हो सका है, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के मसले पर कई स्तरों पर उपेक्षा भी हुई। इन राज्यों में आज भी सरकारी शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सुविधाओं का बुनियादी ढांचा काफी सुधार की मांग करता है, क्योंकि समाज के कमजोर तबकों की निर्भरता इन्हीं पर है। रोजगार की हालत में कोई खास प्रगति न होना भी इन राज्यों की तस्वीर को दयनीय बनाता है।

सवाल है कि इन राज्यों में विकास के सरकारी दावों के जरिए राज्य के लोगों और देश के बाकी हिस्सों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिशें नतीजा देने के स्तर पर इस कदर पिछड़ी क्यों हैं? यह अच्छा है कि पिछले कुछ सालों के दौरान विकास भारतीय राजनीति का भी मुख्य मुद्दा बना है और राजनीतिक बहसें भी इसी विषय पर केंद्रित होने लगी हैं। लेकिन यह भी सच है कि विकास की व्याख्या के लिए आमतौर पर अर्थव्यवस्था के ग्राफ को पैमाना बना कर पेश किया जाता है, जबकि सामाजिक स्तर पर विकास के दूसरे क्षेत्रों में प्रगति के मसलों पर चर्चा कम की जाती है। सवाल है कि अगर शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चे पर क्रमिक और सतत सुधार की स्थिति नहीं बनी रहती है तो ऐसे में आर्थिक उपलब्धियों को विकास का पर्याय मानना कैसी तस्वीर बनाएगा!


Date:01-01-20

Reset and play

NITI Aayog’s SDG report sheds light on uneven progress in states, suggests roadmap for intervention.

Editorial

In the latest edition of NITI Aayog’s annual assessment of progress made by states in achieving the sustainable development goals (SDG), Kerala retained the top slot, followed closely by Himachal Pradesh, Andhra Pradesh and Tamil Nadu. In the lower ranks, still, are Jharkhand, Arunachal Pradesh, Meghalaya, Assam, and Uttar Pradesh, with Bihar at the bottom. This latest report, which is much more expansive in nature than the previous edition, provides insight on the variations in states’ performance across different parameters, and also serves as a useful guide to locate where state intervention is needed to achieve the SDGs.

The SDG Index 2019 measures the performance of states and Union territories on indicators such as poverty, hunger, gender equality, health, education, and clean water and sanitation, among others. While the 2018 index measured performance on 13 of the 17 SDG goals, the latest edition goes one step further, covering all 17 SDGs (a qualitative assessment has been made for measuring performance on partnerships). It has been constructed using 100 indicators, and covers 54 targets. At the aggregate level, India’s composite score has improved from 57 in 2018 to 60 in 2019, much of the improvement taking place due to progress on five goals — clean water and sanitation; affordable and clean energy; industry, innovation, and infrastructure; life on land, and peace, justice, and strong institutions. On all these indicators, India has scored between 65 and 99. The improvement on these parameters, in part, stems from the beneficial impact of various government programmes. For instance, improvement on clean water and sanitation has been largely driven by the progress made by the Swachh Bharat Abhiyaan in eliminating open defecation, while the increased coverage of LPG, as well as the surge in electricity connections has helped shore up performance on affordable and clean energy. Large challenges remain, however, in areas of health, nutrition, basic infrastructure, quality of education, among others. On two goals in particular — gender equality and zero hunger — far greater attention is required as the country’s score on both is less than 50.

This year marks the fifth anniversary of the adoption of SDGs. The 17 SDGs and 169 related targets are to be achieved by 2030. As India’s success in achieving these goals will largely determine global outcomes, achieving these targets should be the cornerstone of economic policy. This calls for reorienting public policy away from its short-term emphases, towards focusing on long-term goals.


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