28-01-2020 (Important News Clippings)

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28 Jan 2020
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Date:28-01-20

Mutual benefit

Brazil and India can learn from each other in economic reform and multilateralism

TOI Editorial

Brazil’s President Jair Bolsonaro capped his official visit to India with an address at the India-Brazil Business Forum. Bolsonaro, the third Brazilian president to be chief guest at the Republic Day parade, was accompanied by a large business delegation. This is in sync with his most notable achievement: Economic revival. Brazil and India have in common an economic structure characterised by messy tax laws, government overspending and a large, sluggish bureaucracy. The manner in which Bolsonaro, a social conservative, has handled economic reforms holds a lesson for us.

As an ethnic nationalist leader, Bolsonaro may appear to have many things in common with Prime Minister Narendra Modi. He has, however, been able to draw a clear distinction between his social agenda and the absolute necessity to reform Brazil’s economic structure. In his first year, he managed to cobble together adequate cross-party support to implement critical pension reforms delayed for two decades. This has been followed by steps to clean up the tax system, significant administrative reforms and economic deregulation. The key lesson Brazil’s experience holds is that economic reform needs a capable team with a coherent plan. Bolsonaro put together a team and empowered them. A consequence is that Brazil’s economy has turned a corner, growth prospects have brightened and the country is open to investments and trade pacts.

On the flip side, Bolsonaro is a climate change sceptic. His poor record in dealing with Amazon forest fires drew widespread global criticism. In contrast, Modi has used India’s size and geography to take the lead in creating an institutional mechanism for renewable energy: the International Solar Alliance, a grouping of more than 100 solar resource rich countries located between the Tropics of Cancer and Capricorn. Yet, the government’s economic track record leaves a lot to be desired. Economic growth has slowed for six successive quarters, import substitution is back and unemployment is high.

Bolsonaro’s approach to economic reforms is worth emulating. A part of India’s lacklustre record here can be explained by lack of policy coherence. For instance, structural reforms like the bankruptcy code have not been complemented by governance reforms in the banking sector where government is the dominant owner. If anything, the government is in a strong position to transform the economy on account of the PM’s credibility and BJP’s parliamentary strength. Even as Brazil and India take steps to enhance their meagre bilateral trade, there are lessons the partners can draw from each other.


Date:28-01-20

केंद्र-राज्य के खराब संबंधों का विकास पर भी असर

संपादकीय

2014 में सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नई अवधारणा को जन्म दिया को-आपरेटिव फेडेरलिज्म (सहकारी संघवाद)। इससे ऐसा लगा कि वोट के लिए संघर्ष करती राजनीतिक पार्टियां जनहित के मुद्दों को सर्वोपरि रखेंगी। पर शायद अपने देश की राजनीति में ऐसा संभव नहीं है। आज स्थिति यह है कि देश के एक दर्जन से ज्यादा राज्य केंद्र की योजनाओं, कानूनों और स्थितियों को लेकर तलवार ताने हुए हैं। भारतीय शासन प्रणाली में टैक्स के साधन राज्यों के पास कम ही होते हैं और विकास ले लिए केंद्रीय मदद की जरूरत हर कदम पर पड़ती है। ऐसे में केंद्र व राज्यों के बीच तनाव का इस हद तक जाना विकास को खोखला करता जाएगा। एक ओर केंद्र भी राज्यों को कदम उठाने के पहले विश्वास में नहीं ले रहा है, वहीं केंद्र की अच्छी योजनाएं जैसे फसल बीमा योजना और आयुष्मान भारत भी इस तनाव की आंच में झुलस गई हैं। एक ताज़ा उदाहरण देखें- 2018 में भीमा कोरेगांव (महाराष्ट्र) में लोगों को भड़काने का आरोप एलगार परिषद पर लगा और तत्कालीन भाजपा-शिवसेना सरकार ने जांच शुरू की। चूंकि केंद्र और राज्य में एक ही दल-समूह की सरकार थी, लिहाज़ा इस घटना पर राय भी समान थी। माना गया कि लोगों को भड़काने में अलगार परिषद की भूमिका थी। परिषद के 10 लोगों को जेल में डाल दिया गया, जिनमें कई वामपंथी बुद्धिजीवी भी थे। अब दो साल बाद शिवसेना को यह अहसास होता है कि उन्हीं के शासनकाल में जेल भेजे लोग आतंकी नहीं हैं। शिवसेना को यह अहसास तब होता है जब उनकी नई सत्ता-सहयोगी पार्टी एनसीपी दबाव डालती है। क्या आतंकवाद जैसा मुद्दा भी राजनीति की भेंट चढ़ सकता है? क्या जनता के मन में शक नहीं पैदा होगा कि सत्ता के लिए राजनीतिक वर्ग राष्ट्रहित की भी बलि दे सकता है? एनआईए कानून 2008 में (मुंबई आतंकी हमले की तत्काल बाद) यह कहकर बनाया गया था कि आतंकवाद का आयाम राष्ट्रीय नहीं, अंतरराष्ट्रीय होता जा रहा है, लिहाज़ा राज्यों की पुलिस इसकी जांच करने में सक्षम नहीं हो सकती तो फिर भीमा कोरेगांव की घटना को तत्काल ही इस एजेंसी को क्यों नहीं सौंपा गया? आज जनता पूछ रही है कि क्या हुआ सहकारी संघवाद के वादे का?


Date:28-01-20

अपराधमुक्त राजनीति से ही जाएगा स्वच्छता का संदेश

ओम गौड़

राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर देश की सामाजिक संस्थाएं चिंता व्यक्त कर रही हैं। लेकिन, चुनाव आयोग है कि उसके पास राजनीति स्वच्छ कैसे हो, इसका न कोई उपाय है और न ही भविष्य में इसे रोकने का प्लान। जनप्रतिनिधि अधिनियम की धारा-8 अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकती है, लेकिन चुनाव आयोग ने ऐसे अपराधियों के चुनाव लड़ने के लिए नया रास्ता खोज निकाला कि जिन पर गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे तब तक चुनाव लड़ सकते हैं जब तक उन्हें सजा नहीं हो जाती। चुनाव उपयोग यह क्यों नहीं सोचता कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले मुकदमे को खत्म कराने, पुलिस पर दबाव बनाने और मामले में फाइनल रिपोर्ट (एफआर) लगाने के लिए ही तो चुनाव लड़ रहे हैं। देश में देरी से ही सही, लेकिन यह बहस छिड़ गई है कि जिन पर गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जाए। मुकदमे में फैसले का इंतजार कब तक? और क्यों? यह अपराधियों को सरकार और पुलिस पर दबाव बनाने का मौका देनेवाला हथियार है।

देश ने अभी महाराष्ट्र चुनाव में खुली आंखों से देखा कि जो भाजपा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजीत पवार को जेल भेजने के बड़े-बड़े दावे कर रही थी, उसी पवार को क्लीनचिट देकर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी और क्लीनचिट मिलते ही पवार भाजपा के गेम को पलटकर शिवसेना के पक्ष में चले गए और वहां भी उपमुख्यमंत्री बन गए। यह सब क्या है?

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस आर.एफ. नरीमन और एस. रवीन्द्र भट्ट की बेंच ने अब एक याचिका पर चुनाव आयोग को सख्त लहजे में कहा है कि वे चार सप्ताह में यह बताएं कि वे राजनीति में अपराधीकरण को कैसे रोकेंगे? वैसे देखा जाए तो राजनीति का अपराध से चोली दामन का रिश्ता है। ये दानां एक दूसरे की मदद के बगैर अधूरे हैं। ऐसे में आम मतदाता का सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग के वश में है कि वह अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोक लेगा। जवाब ना में है, लेकिन सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार कोई ऐसा कानून ले आए तो यह संभव है। दूसरा रास्ता हम वोटरों के पास है कि वे आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को वोट से वंचित कर दें। सवाल यह उठता है कि जब दो उम्मीदवारो में एक को चुनना है और दोनों ही आपराधिक जगत से हो तो फिर क्या करें?
बात दिल्ली में चल रहे विधानसभा चुनाव की, जहां आपराधिक छवि के उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। राष्ट्रीय दलों में यह समस्या सबसे बड़ी है, क्योंकि जातिवाद के दबाव में टिकट देना और फिर उसे जिताना चुनावी राजनीति की मजबूरी बन गई है।

देश स्वच्छ हाथो में रहे, यह कहते-सुनते तो सब अच्छे लगते हैं लेकिन कोई इस पर एक्शन लेता नजर नहीं आता। जिस दिन नामांकन भरते वक्त अपराधियों की रूह कांप जाए, उन्हें एहसास हो जाए कि वोटरों ने अपनी चुनाव आचार संहिता बना ली है, हमारा देश उस दिन करवट बदलता नजर आएगा, इंतजार कीजिए राजनीति में आने वाले स्वच्छता के इस संदेश का।


Date:28-01-20

 

पहचान की राजनीति व मंदी बनी दिक्कत

ब्रांड भारत व ब्रांड मोदी को इससे नुकसान पर दुनिया का हम पर भरोसा कायम

शेखर गुप्ता

क्या दुनिया हमेशा भारत को नीचा दिखाने का षड्यंत्र कर रही है? क्या बड़ी शक्तियां, विशेषकर पश्चिमी लोकतंत्र भारत के बढ़ने से डरते हैं? क्या हिंदू भारत के उदय के खिलाफ एक-एक ईसाई-मुस्लिम साजिश हो रही है? क्या बाकी दुनिया भारत और चीन जैसे अन्य देशों को अलग-अलग मानकों पर रखती है? इस अंतिम सवाल को छोड़कर बाकी पूरी तरह से गलत हैं। इसकी वजह भी चीन की अर्थव्यस्था का आकार व उसकी गतिशीलता है। पिछले सात दशकों से सत्य यह है कि लगभग सारी दुनिया भारत को सफल होते देखना चाहती है। परंपरागत प्रतिद्वंद्वियों चीन व पाकिस्तान को छोड़ दें तो ऐसे किसी भी देश का नाम लेना मुश्किल है, जो भारत का भला नहीं चाहता हो या जिसने हमारी विफलता से लाभ की इच्छा की हो।

निश्चित तौर पर भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति चिंता की बात है। लेकिन, इससे बड़ी समस्या इसके नैतिक कद का घटना, संघर्ष कर रहे सामाजिक संकेतक, लोकतंत्र और भ्रष्टाचार के पैमानों पर गिरती रैंकिंग, सीएए/एनआरसी के खिलाफ अचानक से फूटा देशव्यापी प्रदर्शन और एक ऐसा शासन जो उसी दिन से गुस्से में प्रतिशोधी बना हुआ है। शीत युद्ध के बाद के तीन दशकों से दावोस में भारत को हमेशा एक ऐसे देश के रूप में उम्मीद की भावना से देखा गया, जो अपनी विविधता को मैनेज कर सकता है, लोकतांत्रिक रूप से सरकारें बदल सकता है और आर्थिक व रणनीतिक रूप से अपनी सोच को वैश्विक बना रहा है। 1991 के बाद देश की अर्थव्यवस्था प्रभावी तरीके से बढ़ी और उसने ब्रांड इंडिया को और आगे बढ़ाया। चीन को भारत से बहुत आगे रखा जाता है, लेकिन उसकी सत्तावादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को कोई नहीं चाहता है। यहां तक कि पुतिन का रूस और अयातुल्ला का ईरान भी नहीं।

भारत इसके उलट था। वह बाकी दुनिया के लिए एक प्रेरक उदाहरण था कि बड़े और विविधता वाले देश लोकतंत्र की वजह से ही विकास करते हैं। कल्पना कीजिए कि अगर भारत जैसे विविधतपूर्ण देश में उसकी उदार, लोकतांत्रिक व समावेशी राजनीति और सामाजिक संस्कृति नहीं होती तो यह कहां पहुंचता? यह सोवियत संघ, यूगोस्लाविया या मध्य-पूर्व की तरह बिखर सकता था अथवा रूस, तुर्की या चीन के सत्तावादी रास्ते पर जा सकता था। अपनी गरीबी, विविधता और लाखों दिक्कतों के बावजूद एक बढ़ता, सुरक्षित व स्थायी भारत लोकतंत्र और उदारता का एक मूल्यवान राजदूत है। दुर्भाग्य से यह आज खतरे में है। भारत के दोस्त और चाहने वाले अब हमारी ओर संदेह से देख रहे हैं।

हालांकि, हम उस स्थिति में नहीं हैं, जिसे आप सम्मान की स्थिति से नीचे गिरना कह सकते हैं। क्योंकि हमारे दोस्त बहुत आशावादी हैं और वे इस बात के अभ्यस्त हैं कि भारत हमेशा की तरह इस बार भी उबर जाएगा। वे इस बात से राहत महसूस करते हैं कि यदाकदा न्यायपालिका और मीडिया समेत कुछ संस्थान व युवा बहादुरी दिखाते हैं। मैं विद्यार्थियों, महिलाओं और मुस्लिमों के बड़े पैमानों पर हो रहे प्रदर्शनों को परिणाम के लिए हौसला बढ़ाने वाला कहता हूं। आपने यदाकदा यह संदेश सुना होगा कि आपको दिक्कत हो सकती है। लेकिन, ऐसे माहौल में किसी और देश में आपने पुरुषों व महिलाओं को, हिंदू व मुसलमानों को सड़कों पर जमा होकर संविधान की प्रस्तावना पढ़ते देखा है? इसका एक सहज धुर राष्ट्रवादी जवाब यह हो सकता है ओह, आप इसके अलावा क्या सुनेंगे, जब आपके जैसे ही संपादक, बुद्धिजीवी और वाम उदारवादी बात कर रहे हों। आप उनसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई पहली हिंदू सरकार का तिरस्कार करेंगे ही। इस वर्ग में वे लोग हैं, जो 1991 के बाद भारत के विकास की प्रशंसा करने और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद से लड़ाई का समर्थन करने में सबसे आगे थे। आज ये इमरान खान के भारत की तुलना 1930 के नाजी जर्मनी से करने को खामोश मदहोशी के साथ देख रहे हैं। वे इससे सहमत नहीं होंगे और न ही वे चाहते हैं कि यह सच हो, लेकिन वे समझ नहीं पा रहे हैं कि वे भारत की रक्षा कैसे करे।

दूसरे, दुनिया का कॉर्पोरेट भी इससे चिंतित है। नीतियों में अनिश्चितता है। नए कर व नियम आते है और कुछ जल्दी ही लापता हो जाते हैं। अब पुराने समाजवादी तरीकों की वापसी हो रही है। जैसे- आयात का विकल्प, स्वदेशी और छोटे व्यापारी वाली विचारधारा। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि एक नरम राष्ट्र की बात अब पुरानी हो गई है और इसकी बजाय हम कठोर ताकत बन गए हैं। 2014 के बाद अब किसी को खुश करने के लिए भारत किसी के सामने झुकता या पीछे नहीं हटता है। हम फिर दो दिक्कतों में फंसने जा रहे हैं। पहली बात, आप ऐसा तब कर सकते हैं जब आपने ऐसी कड़ी ताकत हासिल कर ली हो। जो लोग अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक समुदाय को जानते हैं, उन्हें पता है कि पुलवामा हमले के बाद हमने बदले की कार्रवाई कर कड़ा रुख तो दिखाया था, लेकिन पाकिस्तान जैसे छोटे देश को निर्णायक और एकतरफा दंड देने में हमारी क्षमता में कमी ने हमें बुरी तरह एक्सपोज कर दिया था। दूसरा, मार्केटिंग का कोई भी व्यक्ति बता देगा कि देश समेत हर प्रमुख ब्रांड की खास बातें होती हैं, जो उसकी पहचान बताती हैं। जैसे चीन, एक कठोर, सुव्यवस्थित, प्रभावी शासन, जातीय एकरूपता, एक ताकतवर सेना और सबसे ज्यादा मृत्युदंड देने वाला देश है। लेकिन, भारत ब्रांड की खास बातें लोकतंत्र, विविधता के साथ रहने की आजादी, एक अराजक व अव्यवस्थित पर एक समावेशी सरकार का होना है, जहां तर्कशील व विचारवादी समाज है। और यह किसी भी रूप में एक नरम देश नहीं है। हम पश्चिम के भारत, विशेषकर हिंदू वाद के प्रति पूर्वाग्रह को नकार सकते हैं, लेकिन इससे यह तथ्य नहीं बदलेगा कि पहचान की राजनीति और आर्थिक मंदी ने मिलकर ब्रांड भारत को गंभीर क्षति पहुंचाई है। साथ ही ब्रांड मोदी को भी। हमें इसे ठीक करना चाहिए।


Date:28-01-20

मुक्त व्यापर पर नए सिरे से हो विचार

डॉ भरत झुनझुनवाला , (लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं)

बजट का एक प्रमुख विषय विदेशी व्यापार का होता है। बजट में सरकार तय करती है कि विदेशों से आयातित हो रहे माल पर कितना आयात कर लगाया जाए और विदेशों से आ रहे निवेश को कितनी सहूलियत दी जाए। इस विषय पर आज हमारे सामने दो विरोधाभासी विकल्प उपलब्ध हैं। यदि हम मुक्त व्यापार को अपनाते हैं, तो हमें आयात कर घटाना होगा और विदेशी निवेश को सहूलियतें देनी होंगी। इसके विपरीत यदि हम मानते हैं कि घरेलू उद्योगों को संरक्षण देने से लाभ होगा तो हम आयात कर बढ़ाएंगे और घरेलू पूंजी को बाहर जाने से रोकने का प्रयास करेंगे। खुले व्यापार के पक्ष में चीन का उदाहरण उपलब्ध है। वर्ष 1995 में विश्व व्यापार संगठन यानी डब्ल्यूटीओ की स्थापना के समय चीन इस संस्था का सदस्य नहीं था। बड़ी मशक्कत के बाद चीन उसका सदस्य बना। चीन के आर्थिक विकास में डब्ल्यूटीओ ने चार चांद लगाए। इसीलिए अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग मानता है कि हमें मुक्त व्यापार को अपनाना चाहिए, जैसा कि चीन ने किया।

हालांकि विचारणीय यह भी है कि चीन के आर्थिक विकास का स्रोत मुक्त व्यापार है या घरेलू बचत? वर्ष 2008 में हमारी घरेलू बचत दर 37 प्रतिशत थी और चीन की 51 प्रतिशत। घरेलू बचत उस रकम को बोलते हैं, जिसकी हम खपत न करके निवेश करते हैं। वर्तमान में भारत की घरेलू बचत दर घटकर 31 प्रतिशत और चीन की घटकर 46 प्रतिशत हो गई है। चीन की तुलना में हम ज्यादा खपत और निवेश कम कर रहे हैं। मेरे खयाल से चीन के आर्थिक विकास का मुख्य स्रोत डब्ल्यूटीओ की सदस्यता न होकर यही घरेलू बचत दर है। इसके अन्य प्रमाण भी उपलब्ध हैं।

जर्मनी की बर्तल्स्मान संस्था द्वारा डब्ल्यूटीओ के 25 वर्षों के प्रभाव का आकलन किया गया। उनके अनुसार भारत और चीन, दोनों पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। उन्होंने बताया कि चीन की जनता के जीवन-स्तर में डब्ल्यूटीओ का योगदान मात्र 0.65 प्रतिशत रहा है, जबकि भारत में 2.68 प्रतिशत। यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है, क्योंकि चीन ने खुले व्यापार को पुरजोर तरीके से अपनाया है, जबकि भारत ने इसे कम ही अपनाया है। दोनों देशों के निर्यात में वृद्धि अवश्य हुई है, लेकिन उसका असर जनता के जीवन-स्तर पर भारत में अधिक पड़ा है।

मेरे हिसाब से ऐसा इसीलिए है कि भारत ने मुक्त व्यापार को कम अपनाया है। अत: कम विदेशी व्यापार से जीवन-स्तर में अधिक सुधार हुआ है। इसलिए अधिक विदेशी व्यापार को चीन की जनता के जीवन-स्तर में सुधार का कारण नहीं बताया जा सकता। उसका वास्तविक कारण चीन की घरेलू बचत दर है। भारत की घरेलू बचत दर कम होने के बावजूद हमारी जनता के जीवन-स्तर में सुधार अधिक हुआ है, क्योंकि हमने मुक्त व्यापार को कम अपनाया है।

चीन को मुक्त व्यापार से कम लाभ होने का दूसरा प्रमाण यह है कि इसी माह चीन ने अमेरिका के साथ एक द्विपक्षीय समझौता किया। चीन ने अमेरिका को आश्वासन दिया है कि वह अमेरिका से कुछ विशेष वस्तुओं के आयात को बढ़ाएगा। इसके बदले में अमेरिका ने कहा है कि वह चीन से आयातित होने वाली वस्तुओं पर लगाए आयात कर को घटाएगा। इस बीच बड़ा सवाल यही है कि इन देशों को डब्ल्यूटीओ के दायरे से बाहर जाकर द्विपक्षीय समझौते की जरूरत क्यों पड़ी?

यदि चीन का मुक्त व्यापार मंत्र ही सही है तो चीन अपने आयात कर घटाकर संपूर्ण विश्व से आयातों को बढ़ा सकता था, लेकिन डब्ल्यूटीओ की बहुराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत व्यापार को संचालित करने के स्थान पर इन दोनों देशों ने द्विपक्षीय समझौता किया है। यह समझौता खुले व्यापार का लाभ हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि अमेरिका व चीन के सामरिक स्वार्थों से कहीं अधिक प्रेरित है। या हम कह सकते हैं कि उन्होंने खुले व्यापार को उपयुक्त नहीं माना, इसीलिए उन्होंने सभी देशों के लिए खुले व्यापार को अपनाने के बजाय आपस में खोलने तक सीमित रखा। इसका अर्थ हुआ कि डब्ल्यूटीओ की व्यवस्था में मुक्त व्यापार लाभप्रद नहीं रह गया है। हर देश को अपनी स्थिति एवं अपने हितों के अनुसार उन खास देशों से विदेश व्यापार को बढ़ाना चाहिए, जिनसे उन्हें परस्पर लाभ होता दिखे। इस तरह देखें तो मुक्त व्यापार का सिद्धांत अनुपयुक्त हो गया है।

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की जयश्री सेनगुप्ता के अनुसार भारत के कई देशों विशेषकर आसियान देशों के साथ द्विपक्षीय व्यापार समझौते हो चुके हैं। यानी डब्ल्यूटीओ से बाहर आ जाने पर भारत को कोई विशेष नुकसान नहीं। इसके कई कारण हैं। पहला यह कि आसियान की तर्ज पर हम दूसरे प्रमुख देशों के साथ द्विपक्षीय समझौते कर अपने व्यापार को अपेक्षित दिशा में ले जा सकते हैं। दूसरा यह कि डब्ल्यूटीओ से बाहर निकलकर हम अपने चिह्नित उद्योगों को संरक्षण दे सकेंगे। छोटे उद्योगों को इसका सबसे अधिक लाभ मिलेगा। इससे रोजगार के अवसर सृजित होंगे और अर्थव्यवस्था में जमीनी स्तर पर मांग बढ़ेगी, जो वृद्धि दर को तेजी देने का काम करेगी।

डब्ल्यूटीओ से बाहर निकलकर हमें मौजूदा पेटेंट एक्ट के मकड़जाल से भी मुक्ति के रूप में तीसरा फायदा मिलेगा। हम विदेशी कंपनियों के उत्पादों की नकल करके उन्हें यहां भी बना सकेंगे, जैसा कि 1995 की डब्ल्यूटीओ संधि से पहले करते रहे। इससे देसी कंपनियों के लिए अवसर बढ़ेंगे और रॉयल्टी की मद में देश से बाहर जा रही रकम बचेगी।

इसका चौथा लाभ पर्यावरण के मोर्चे पर मिलेगा। असल में खुले व्यापार में उसकी जीत होती है, जो अपने पर्यावरण को सर्वाधिक नष्ट करता है। जैसे चीन ने अपनी नदियों व हवा को प्रदूषित करने की पूरी छूट दे दी। चीन के सस्ते उत्पादों की एक वजह यह भी है। पर्यावरण की इस क्षति से चीन में उत्पादन लागत कम आती है और वह विश्व व्यापार में आगे है। यदि हम डब्ल्यूटीओ से बाहर आते हैं तो हम पर्यावरण नष्ट करके बनाए गए चीन के सस्ते माल पर भारी आयात कर लगाकर उसके आयात को रोक सकेंगे। तब हमें भी अपने पर्यावरण को नष्ट करके सस्ता माल बनाने की होड़ में पड़ने की जरूरत नहीं होगी और पर्यावरण की रक्षा भी हो सकेगी।

पांचवां कारण यह है कि आने वाले समय में विश्व व्यापार का विस्तार मुख्य रूप से सेवा क्षेत्र में होगा। यह क्षेत्र मूल रूप से डब्ल्यूटीओ से बाहर है। इसीलिए हमारी सेवाओं के निर्यात पर डब्ल्यूटीओ से बाहर आने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। डब्ल्यूटीओ से बाहर आने के इन तमाम फायदों को देखते हुए देश को डब्ल्यूटीओ से बाहर आकर संरक्षणवाद की नीति अपनानी चाहिए। इसी के साथ आधुनिक तकनीकों का आयात किया जाए, ताकि देश तकनीकी रूप से पीछे न रह जाए और घरेलू प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ाया जाए। इससे हम विश्वस्तरीय उत्पाद बनाने के साथ ही घरेलू उद्योगों को संरक्षण भी दे सकेंगे।


Date:27-01-20

विरोध की मर्यादा और संभावनाएं

बद्री नारायण

विरोध के आंदोलन इन दिनों कुछ ज्यादा ही चर्चा में हैं। देश के बहुत से शहरों में इस आंदोलन के नए केंद्र उभरते दिख रहे हैं। वहां जो हो रहा है, वह भी चर्चा में है। इस तरह के विरोध किसी भी लोकतंत्र के अनेक प्राण तत्वों में से एक मुख्य तत्व माने जाते हैं। लोकतंत्र की यही विशेषता है कि वह अपने भीतर ही विरोध को भी मंच देता है। भारतीय लोकतंत्र ने अनेक असहमतियों और प्रतिरोधों को जगह देकर, उन्हें अपने में समाहित कर अपने को मजबूत बनाया है। बेशक, इस तरह के विरोध की एक सामाजिक और कानूनी मर्यादा भी होती है। इसी मर्यादा के भीतर विरोध असहमतियों की अभिव्यक्ति के अनेक रचनात्मक रूप रचता रहता है।

पश्चिमी समाजों में ‘कार्निवल’ जैसे सामाजिक समारोहों में लोग अपने मुंह पर अनेक तरह के मुखौटे लगाकर, तरह-तरह के बाजे बजाकर, विरोधियों की नकल उतारकर विरोध की संस्कृति को रचते रहे हैं। वैसे रचनात्मकता के मामले में भारत के विरोध आंदोलन भी किसी से कम नहीं रहे। आपातकाल के दौरान जब खुलेआम विरोध करना आसान नहीं था, तब लोगों ने कविताएं, दीवारों पर नारे लिखकर, पोस्टर बनाकर भी विरोध की नई संस्कृति शुरू की थी। यह जरूर है कि अक्सर ऐसे विरोध आंदोलनों के दौरान हुई हिंसा ही ज्यादा चर्चा में आती है, जो अंत में उसे कमजोर ही करती है। दूसरी तरफ, उसके संदेश की रचनात्मकता उसे मजबूत बनाती है।

नदियों पर बड़े बांध बनाने के खिलाफ हुए प्रतिरोध आंदोलनों में विस्थापित होने वाली जनता ने कई दिनों तक पानी में रहकर विरोध को नया रूप देने की कोशिश की थी। असम आंदोलन के समय एक निश्चित समय पर थाली पीटकर विरोध प्रदर्शन का एक नया प्रयोग किया गया था। हड़ताल और कामबंदी जैसे विरोध के रूप पश्चिमी औद्योगिक समाज में विकसित हुए और वहां से चलकर भारत में आए, वहीं अनशन, सत्याग्रह आदि प्रतिरोध के रचनात्मक रूप महात्मा गांधी और गांधीवादी आंदोलनों से उभरकर हमारी राजनीति में पसरे। साइमन कमीशन जब भारत आया था, तब उसका विरोध कई जगहों पर पतंग उड़ाकर किया गया था। पतंगों से विरोध का यह सिलसिला इन दिनों फिर दिख रहा है। सोशल मीडिया ने भी विरोध को एक नया मंच दिया है। यह भी माना जाता है कि इससे लोग सड़क की हिंसा और दमन, दोनों से अपना बचाव कर लेते हैं। हालांकि यह माध्यम धीरे-धीरे विरोध के मंच के रूप में कम, और वाचिक हिंसा के लिए ज्यादा चर्चा में आ रहा है।

कार्टून भी पूरी दुनिया में प्रतिरोध के बड़े कारगर हथियार रहे हैं। भारत में आरके लक्ष्मण, शंकर, इरफान के कार्टून शासन और सत्ता के अनेक निर्णयों का प्रतिरोध करते रहे हैं। ये कार्टून कई बार मुंबई, दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों में अखबारों व पत्रिकाओं के पन्नों से उतरकर सड़कों पर प्रदर्शनकारियों के हाथों में देखे जा सकते हैं। छात्रों और युवाओं के विरोध आंदोलनों को अक्सर हिंसा, तोड़-फोड़ वगैरह के लिए याद किया जाता है, लेकिन उनमें भी अनेक बार रचनात्मकता के तत्व पाए जाते हैं। बाद में यह हिंसा ही ऐसे आंदोलनों को खत्म कर देती है। कम से कम भारत का इतिहास यही है कि यहां हिंसक आंदोलन न कहीं लोकप्रिय हुए और न कभी दीर्घजीवी।

विरोध के इस तरह के आंदोलन सिर्फ विपक्ष का ही औजार नहीं बनते, वे सरकार और शासक दलों को भी मौका देते हैं कि वे लोगों को अपने मत के आस-पास गोलबंद करें और अपने आधार को एक राजनीतिक मजबूती दें। इन दिनों जब देश में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में आंदोलन हो रहे हैं, तब भारतीय जनता पार्टी ने उसके समर्थन में आंदोलन, प्रदर्शन और रैलियां की हैं। एक तरह से देश भर में जो विरोध आंदोलन हुए, उन्होंने भाजपा को भी अपने मतदाताओं से नए सिरे से संपर्क और संवाद करने का मौका दिया।

विरोध के आंदोलनों में सरकार के लिए सुझाव का तत्व भी होता है और उससे उम्मीद बांधने का तत्व भी। कई बार सरकारें उन्हें सुनती और समझती भी हैं। उस विरोध के खात्मे की दिशा में कार्य करती हैं। कई बार उसे अनसुना भी कर देती हैं। मजदूर आंदोलनों की बहुत सी मांगें मानने का एक इतिहास रहा है। राजनीतिक आंदोलनों के मामले में यह सब इतनी आसानी से नहीं होता। यह तभी हो पाता है, जब जन-दबाव इतना बड़ा हो जाए कि कोई और चारा शेष न रह जाए।

रचनात्मक प्रतिरोध और समाज व संविधान की मर्यादा में रहकर किए जाने वाले विरोध-प्रदर्शन और आंदोलन लोकतंत्र को सौम्य व प्रभावी बनाते हैं, किंतु हिंसा, लाठी-डंडे और पत्थरबाजी लोकतंत्र में विरोध की संस्कृति को निरीह बना देते हैं। गांधीजी का पूरा प्रतिरोध अहिंसा के भाव के रचनात्मक उपयोग से उपजा था। अहिंसा उनके लिए जीवन मूल्य तो थी ही, साथ विरोध का सबसे बड़ा औजार भी थी। बहुजन समाज पार्टी नेता कांशीराम यह मानते थे कि दलितों ने कभी भी सत्ता के खिलाफ हिंसात्मक विरोध किया, तो हिंसा उनकी कार्रवाई और उनके आंदोलन को कमजोर कर देगी। आंबेडकर खुद भी ऐसी ही राय रखते थे। संविधान और सामाजिक मर्यादाओं के दायरे में रहकर किए जाने वाले रचनात्मक विरोध ही कारगर हो सकते हैं। संवेदनशील सत्ता अनेक बार उन्हें सुनती है और सुनकर विरोध की कार्रवाइयों में छिपे सुझावों को मानकर सामंजस्य पर आधारित जनतंत्र को आकार देती है। प्रतिरोध की कार्रवाइयों के प्रारूप, भाव और संदेश सत्ता को भी कई बार जनता से संवाद के लिए प्रेरित करते हैं, तो कई बार मजबूर भी करते हैं। देखने में यह आता है कि कई बार विरोध आंदोलन सत्ता को सौम्य बना देते हैं, और कई बार इसका उल्टा होता है, जब सरकारें विरोध आंदोलनों को सौम्य बना देती हैं।


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