सही निशाना लगाने की आवश्यकता
Date:19-09-19 To Download Click Here.
पिछले पाँच वर्षों में भारत का सकल घरेलू उत्पाद 7.5 प्रतिशत औसत दर पर बढ़ा है। इस औसत दर में समय-समय पर उतार-चढ़ाव आए हैं। परन्तु मार्च, 2019 में विकास दर का 5.8 प्रतिशत के स्तर पर पहुँच जाना चिंताजनक है। अधिकांश रिपोर्ट के अनुसार विकास दर में बढ़ोत्तरी बहुत धीमी गति से हो रही है।
कुछ लोग विमुद्रीकरण को इसका कारण मानते हैं। इस अनुमान के समर्थन में कोई प्रमाण नहीं हैं। दूसरा कारण वस्तु एवं सेवा कर और उससे जुड़े विघटन को माना जाता है। इस तथ्य को एक सीमा तक सत्य भी माना जा सकता है। परन्तु यह दूर का कारण है। फिलहाल आई मंदी का सबसे बड़ा कारण वित्तीय क्षेत्र की कमजोरी है। इससे जुड़े कुछ बिन्दुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
- मंदी की शुरुआत 2017-18 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर निष्पादित सम्पत्ति के बढ़ने के साथ ही हो गई थी। गैर बैंकिंग क्षेत्र की वित्तीय कंपनियों के ऋण के द्वारा कुछ समय तो संकट को संभाला गया, परन्तु स्थिति बिगड़ती गई।
- हाल ही में सरकार ने धनी वर्ग के आयकर पर सरचार्ज, अनेक उत्पादों पर सुरक्षात्मक सीमा शुल्क और कार्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के पूरा न होने पर जेल की सजा की जो घोषणा की है, उसने भी बाजार को झटका दिया है। इस घोषणा ने निवेशकों के मन में सरकार की उन्मुक्त व्यापार नीति के प्रति संदेह पैदा कर दिया है।
लेबर कोड में सुधार के बिना ही आगे बढ़ जाने की सरकार की नीति ने संदेह को बल दिया है।
कुछ समाधान
- दिवालियापन कानून में सुधार के साथ गैर निष्पादित सम्पत्ति के संबंध में कुछ कदम उठाए जा सकते हैं।
- राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग कानून से चिकित्सा शिक्षा और इससे जुड़े स्वास्थ्य क्षेत्र में कई सुधार किए जा सकते हैं।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण करना भी एक उपाय है।
- बजट में उच्च शिक्षा आयोग और राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद् की घोषणा से शिक्षा क्षेत्र में सुधार की उम्मीद की जा सकती है।
चालू वित्त वर्ष में दो कारण ऐसे हैं, जो निजी कार्पोरेट निवेश की दृष्टि से चुनौती बने हुए हैं। (1) प्राप्त डाटा बताते हैं कि एक बार जब हम सरकार के बजट को ध्यान में रखते हैं, तो केन्द्र और राज्यों का संयुक्त राजकोषीय घाटा लगभग सभी घरों की वित्तीय बचत को रोक देता है। (2) उपलब्ध वित्तीय बचत की मध्यस्थता को कम करके देखा जाए, तो इसके अलावा वित्तीय बाजार कमजोर हैं।
इस हेतु आरबीआई के दायरे में दो सुधारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए।
- ब्याज दरों में कटौती। इससे बैंकों की स्थिति सुधरेगी।
- रुपये में गिरावट भी एक सुधारात्मक कदम हो सकता है। 2014 से वास्तविक स्थितियों में इसमें मात्र 15 प्रतिशत की गिरावट आई है। इस अवधि में भारतीय उद्योगों की उत्पादकता दर, विदेशी उद्योगों की उत्पादकता दर की तुलना में 15 प्रतिशत से अधिक नहीं बढ़ी थी। अतः भारतीय उत्पाद अपने प्रतिस्पर्धी विदेशी उद्योगों की तुलना में पीछे रहे। रुपये की गिरावट से प्रतिस्पर्धा की गति बढ़ सकेगी। इससे घरेलू उत्पादों को विस्तार मिलेगा।
उत्पादकता और निवेश को बढ़ाए बिना विकास दर को तेज करने का कोई शार्टकट नहीं है। दोनों ही आयामों को बाजारोन्मुखी कदमों की आवश्यकता है।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित अरविंद पन्गढ़िया के लेख पर आधारित। 7 अगस्त, 2019