विकास में महिलाओं की समान भागीदारी आवश्यक

Afeias
10 Oct 2018
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Date:10-10-18

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भारत के विकास में महिलाओं की समान भागीदारी की आवश्यकता को एक लंबे अरसे से महसूस किया जा रहा है। समानता का आधार आर्थिक हो या सामाजिक, इस पर बहस निरंतर जारी है। गहराई से देखने पर ही इस बात को समझा जा सकता है कि देश को समृद्ध बनाने के लिए महिलाओं को दोनों ही स्तरों पर भेदभाव से मुक्त करना होगा।

अधिकांशतः महिलाओं से पक्षपात को आर्थिक या स्त्री-पुरूष के पारस्परिक संबंधों से जोड़कर देखा जाता है। वास्तव में तो लैंगिक भेदभाव एक ऐसा विषय है, जिसमें सोचे-समझे ढंग से ऐसी व्यवस्था निर्मित की जाती है, जिससे महिलाओं को अलग, वंचित और हाशिए पर रखा जा सके।

भारत में महिलाओं की स्थिति को भेदभाव से मुक्त करने का बीड़ा सबसे पहले राजा राममोहन राय ने उठाया था। समाज में महिलाओं की भूमिका को पहचानने का दूसरा अवसर तब आया,जब गांधीजी ने स्व्तंत्रता आंदोलन को ‘एक टांग पर खड़ा’ बताया था। सन् 1947 में महिलाओं को मत का समानाधिकार देकर उनके महत्व को स्थापित किया गया। इसके बाद 2014 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ; उज्जवला, मातृत्व अवकाश विधेयक एवं अन्य साधनों से महिलाओं को शक्तिसंपन्न करने का काम शुरू हुआ। इसका अगला कदम पुरूषों की मानसिकता को बदलने, तीन तलाक, अधिक रोजगार, अधिक महिलाओं को स्वउद्यमी बनाने, स्कूलों में लड़कियों की भर्ती को बढ़ाने पर काम करने के मार्ग से होकर भारत की समृद्धि के द्वारा खोलेगा।

विचार और नीतियों के स्तर पर महिलाओं के लिए बहुत कुछ किया जा रहा है। परन्तु इनमें से कोई भी एजेंडा महिला सशक्तिकरण को तब तक सफल नहीं बना सकता, जब तक कि अध्ययनों से जुड़े इन तीन कारणों पर ध्यान नहीं दिया जाता। (1) महिलाओं को वैतनिक काम की गारंटी मिले। अभिभावक भी लड़कियों पर तभी अधिक खर्च करेंगे, जब उन्हें उनसे आर्थिक संबल मिलने की उम्मीद होगी। (2) आरक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इस क्षेत्र में किए गए अध्ययन बताते हैं कि राजनीति में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने से माता-पिता की मानसिकता में बहुत बदलाव देखा गया। इससे कुछ राज्यों में तो शैक्षिक स्तर पर लैंगिक अंतर समाप्त ही हो गया। (3) ग्रामीण युवा पुरूषों के लिए कई मुद्दे विषम लिंगानुपात से जुड़ी सामाजिक समस्याओं से संबंधित हैं। यह समस्या उत्तर भारतीय राज्यों में अधिक है।

इन तीन बिन्दुओं पर काम करने के अलावा नीति के स्तर पर भी हमें सामाजिक मान्यताओं के चलते मिलने वाली असफलताओं पर काम करना हागा।

  • रोजगार के लिए महिलाओं को प्रेरित करने के लिए सूचना तंत्र को मजबूत करना होगा, जिससे वे ज्यादा से ज्यादा संख्या में अपना पंजीकरण कराएं।
  • महिला प्रशिक्षार्थियों के लिए हॉस्टल और बच्चों की देखरेख की सुविधा हो।
  • भेदभाव करने वाले श्रम कानूनों, जैसे फैक्टरी अधिनियम, 1948 को हटाने का प्रयास करना होगा। ये ऐसे कानून हैं, जो महिलाओं की कार्यशक्ति को सीमित करते हैं।
  • आने वाले दशक में पर्यटन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में ही सबसे अधिक रोजगार उत्पन्न होने वाले हैं। इन क्षेत्रों में कई कारणों से महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है। परन्तु महिलाओं को अपने आवास के निकट काम करना सुविधाजनक लगता है।

मेकिंस्से की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत के कार्यबल में महिलाओं की संख्या को बढ़ाकर, 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद में  490 अरब डॉलर की वृद्धि की जा सकती है। परन्तु हमारा ढांचा आर्थिक नहीं सामाजिक है। अनेक महिलाओं को कहीं आने-जाने की स्वतंत्रता नहीं है। 50 प्रतिशत से अधिक महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें किराना दुकान तक जाने के लिए भी अनुमति लेनी पड़ती है। नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार घरेलू कामों तक सीमित रहने वाली 31 प्रतिशत महिलाएं एक निश्चित वेतन पर काम करना पसंद करती हैं। आर्थिक शक्ति रखने वाली महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा में भी कमी देखी गई है। परन्तु हमारा सामाजिक परिवेश महिलाओं को आगे बढ़ने से रोकता है।

नेल्सन मंडेला ने कहा था, ‘‘दासता और रंगभेद की तरह गरीबी भी प्राकृतिक नहीं है। यह मनुष्य की अपनी देन है, और मानव जाति के प्रयासों से इसे दूर किया जा सकता है।’’ इसी प्रकार लिंग भेद भी मानवजन्य है। एक राष्ट्र वैसा ही आकार लेता है, जैसा उसके बारे में लगातार कहा जाता है। भारत भी अपने बारे में कही जाने वाली कहानियों को बदल रहा है। दृढ़ता, हिम्मत और निरंतरता से भारत के स्त्री-पुरूषों के स्तर में समानता लाने की उम्मीद की जा सकती है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित वसुंधरा राजे के लेख पर आधारित। 29 अगस्त, 2018.

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