मतभेदों की प्रकृति को समझें

Afeias
11 Oct 2018
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Date:11-10-18

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एक दूसरे से असहमति रखना, मानव की मूलभूत विशेषता है। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा, जो किसी न किसी बात पर असहमति न रखता हो। इस व्यवहार के पक्ष में दार्शनिक तर्क देते हैं कि एक बच्चा जब ‘ना’ कहना सीख जाता है, तब वह ‘स्वयं’ या ‘मैं’ और ‘मेरा’ की एक अपनी पहचान बना लेता है। प्रारंभिक स्तर पर अपनी असहमति दिखाकर ही हम एक अलग व्यक्तित्व बनते हैं। ऐसा कोई परिवार नहीं होगा, जहाँ माता-पिता और बच्चों या बच्चों में ही आपसी असहमति न हो। ऐसा परिवार जहाँ असहमति को अधिकारों से दबाने की बजाय ग्राह्य बना लिया जाता है, वहाँ सामंजस्य रहता है।

हम घर में, दफ्तर में और दोस्तों के बीच भी कई बार अपनी असहमति प्रकट करते हैं। इस माध्यम से हम उनके साथ एक संबंध स्थापित करते हैं। मित्रों के साथ हमारे संबंध इस पर निर्भर करते हैं कि मतभेदों के होते हुए भी हम उसे कैसे लेते हैं। दाम्पत्य जीवन में भी बहुत मतभेद होते हैं। अगर हमारा परिवार और मित्र-मंडल केवल उन लोगों से भरा हो, जो हमसे हर समय सहमत हों, तो वास्तव में वह परिवार और मित्र है ही नहीं। दूसरों के साथ जीवन जीने या सामाजिक अस्तित्व को बनाने के लिए पहली शर्त यही है कि हम दूसरों के मतभेदों के साथ जीना सीखें।

मतभेद तो हमारे अंदर ऐसे पैठे हुए हैं कि हमें असहमति के लिए दूसरों की जरूरत ही नहीं है। हम स्वयं ही अपने आपसे जूझते रहते हैं। हम अपने आपमें ही निरंतर ऐेसे उलझते रहते हैं, मानों हमारा व्यक्तित्व ही भिन्न-भिन्न रूपों से बना हुआ हो। जब हम अपने आप से जूझते हैं, या दिमागी उलझनों में फंस जाते हैं, तब सोचना बंद कर देते हैं। हमारे इस अंतर्द्वंद का नतीजा हमारे एक सार्थक रूप में सामने आता है।

सामाजिक मतभेद

मतभेद होना तो अस्तित्व का सूचक है, और समस्या असहमति या मतभेद से नहीं, बल्कि मौन सहमति से उत्पन्न होती है। जब हम सामूहिक रूप से सहमति दिखाते हैं, उसका अर्थ भी यही होता है कि हम उस कथन और कृत्य के प्रति सहमत हैं। यह किसी मनुष्य के अस्तित्व को नहीं, बल्कि उसके बंधुआ मस्तिष्क को परिलक्षित करता है। कुछ लोग सहमति को, समाज को जोड़ने का साधन और उसके स्थात्वि के लिए आवश्यक भी मानते हैं। यह गलत तर्क है। जैसे एक बच्चा अपनी असहमति दिखाकर ‘स्वयं’ की पहचान प्राप्त करता है, उसी प्रकार से एक समाज भी अपने मतभेद दिखाकर अपनी पहचान बनाता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अलग-अलग रूपों में अपनी असहमति को प्रकट करके हम अपेक्षाकृत सशक्त समाज और राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।

दूसरे, समाज के निर्माण की प्रत्येक प्रक्रिया में असहमति की भूमिका होती है। हर एक पल, अगर हर एक पक्ष पर लोग सहमत ही हों, तो ऐसे लोगों के समूह को समाज नहीं कहा जा सकता। इसे तो मात्र कुलीन तंत्र ही कहा जा सकता है। असहमति और मतभेदों के साथ ही कोई समूह वास्तविक समाज बनता है। एक सभ्य समाज के निर्माण के लिए मतभेद लेई का काम करते हैं।

एक परिपक्व समाज वह होता है, जिसमें आपसी मतभेदों को सुलझाने की क्षमता होती है।  समाज के सदस्य तो एक-न-एक बात पर टकराते ही रहेंगे। इस मामले में प्रजातांत्रिक समाज सर्वोपरि हैं; जिनमें मतभेद रखने वाले पर आँच नहीं आती। यह प्रजातंत्र का मुख्य धर्म है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ही चुनावों और मतदान की व्यवस्था की गई है। प्रजातंत्र में नैतिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए चर्चाओं और वाद-विवाद के द्वारा मतभेदों को दूर किया जाना ही उसका सत्व है। एक प्रजातांत्रिक समाज की यह विशेषता है कि वह व्यक्तिगत मतभेदों को सामाजिक रूप प्रदान करता है। शोध एवं शिक्षा, दो ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ मतभेद केन्द्र में होते हैं। अपने आपमें परिवर्तन लाए बिना कोई समाज टिक नहीं सकता। अच्छे और बुरे के लिए, नई सोच और नए रास्तों से विश्व को जानने की समझ हर समाज का हिस्सा रही है।

यह नई सोच और नई समझ कहाँ से विकसित होती है? पहले से स्थापित मूल्यों और सत्य के विरोध में जाकर ही नए विचारों का प्रतिपादन हो सका है। यदि व्यापक रूप में देखें, तो पता चलता है कि विज्ञान की संभावना भी मतभेदों से ही जन्म लेती है। नए विज्ञान का उद्भव ही दूसरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का खंडन करके होता है। कभी भी दो दार्शनिक किसी एक मत पर सहमत नहीं होते। इसी प्रकार दो समाज विज्ञानी भी एक दूसरे के विचारों के प्रति कभी भी पूर्ण आश्वस्त नहीं होते हैं। कलाकार तो हमेशा ही अपने साथियों द्वारा निर्मित सीमाओं को तोड़ते रहते हैं। बुद्ध और महावीर भी भिन्न-मतावलंबी थे इसके कारण वे दार्शनिक थे। रामायण और महाभारत, मतभेदों और उत्तरदायी तरीके से उन्हें संभालने की कथाओं से भरे पड़े हैं।

अतः अगर शिक्षाविद् मतभेद रखते हैं, तो यह उनके काम का एक हिस्सा है। मतभेद का अर्थ केवल आलोचना नहीं है। यह तो नए दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का एक तरीका है। मतभेदी विचारों  को प्रस्तुत करने पर वैज्ञानिकों को जेल में बंद नहीं कर दिया जाता, जबकि हम आए दिन देख रहे हैं कि किस प्रकार मतभेद के नाम पर समाजशास्त्रियों और कलाकारों को निशाना बनाया जा रहा हे। केवल प्रजातंत्र के लिए मतभेदों का होना आवश्यक नहीं है, वरन् समूची मनुष्य जाति के जीवित रहने के लिए यह आवश्यक है। जिस किसी समाज ने मतभेदों के उन्मूलन का प्रयत्न किया, वह स्वयं नष्ट हो गया। इस संदर्भ में स्टालिन के समय के रूस और नाज़ी जर्मनी के उदाहरण देखे जा सकते हैं। एक सतत् और सामंजस्यकारी समाज का निर्माण वहीं हो सकता है, जहाँ मतभेदों को सम्मान एवं नैतिकतापूर्वक देखा जा सके।

मतभेद और नैतिकता

मतभेदों का होना केवल प्रजातंत्र के लिए ही जरूरी नहीं है, बल्कि इसमें कुछ मूलभूत नैतिक मूल्य भी शामिल हैं। मतभेदों का मुँह बंद करने वाला समाज अनैतिक ही कहा जा सकता है। मतभेदों से जुड़े दो नैतिक सिद्धांतों में से एक अहिंसा है। यह ऐसा सिद्धांत है, जो गांधी और आम्बेडकर के समय से भारतीय आत्मा का अभिन्न हिस्सा बन गया है। दूसरे, मतभेद रखना समाज के उन लोगों को सुरक्षा देने का नैतिक माध्यम है, जो अन्य लोगों की तुलना में गरीब, वंचित और दबे हुए हैं। मतभेद रखना कोई शिकायत नहीं है। सामाजिक मतभेद तो समाज के सभी पीड़ित, शोषित और वंचितों के लिए एक आवश्यकता है। इस संसार में जहाँ उन्हें सदा उपेक्षित रखा गया, एक यही तो है, जो उनकी सामाजिक गरिमा को बनाए रखने का साधन है।

नैतिकता तो यही कहती है कि समाज के दमित लोगों को मतभेद रखने का अधिकार अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा है, चाहे उनके इस अधिकार से अन्य लोग सहमत हों या न हों। ऐसा तो एक परिपक्व समाज में ही संभव हो सकता है। अतः जब भी कभी हम समाज के उपेक्षित और पीड़ित जनों की असहमतिपूर्ण आवाज सुनें, हमारा कत्र्तव्य बनता है कि इस वर्ग के मतभेदों को ऊजागर होने के लिए उदार वातावरण और विस्तृत आकाश दें। अन्याय के विरोध में उठने वाली आवाजों को दबाने वाली सरकार का साथ देकर हम भी इस अनैतिक कर्म में भागीदार बन जाते हैं। कई बार ऐसा होता है कि हम अपने घरों में आरामदायक सोफों पर बैठे हुए, उन लोगों की आलोचना करते हैं, जो गरीबों और दमितों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। अगर हम देश में अशांति फैलाने के नाम पर इनकी आलोचना करते हैं या कर रहे हैं, तो निश्चित समझ लीजिए कि हम सब वंचितों को और दबाने के एक अनैतिक कार्य का हिस्सा बन रहे हैं।

‘द हिन्दू’ प्रकाशित सुंदर सरूकई के लेख पर आधारित। 4 सितम्बर, 2018

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