भारत और जम्मू-कश्मीर का संबंध
Date:16-09-19 To Download Click Here.
मोदी सरकार ने ऐतिहासिक कदम उठाते हुए जम्मू-कश्मीर राज्य का भारतीय गणराज्य में पूर्ण रूप से विलय कर दिया है। इस हेतु राज्य को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को हटाने के साथ ही राज्य को दो हिस्सों में बांटकर लद्दाख को केन्द्र शासित प्रदेश का दर्जा दे दिया है। विरोधी दलों में से कुछ ने सरकार के इस कदम का जबरदस्त विरोध करते हुए यहाँ तक कहा कि केन्द्र ने कश्मीर को एक खुली जेल में तब्दील कर दिया है। सरकार के इस कदम की संगतता-असंगतता पर विचार अवश्य किया जाना चाहिए।
पहले कानूनी पक्ष की जाँच की जानी चाहिए। धारा 370 का प्रावधान कभी भी स्थायी नहीं था। धारा 370(3) में स्पष्ट कहा गया है कि ‘‘राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह एक जनविज्ञाप्ति के द्वारा कभी भी इस प्रावधान को खत्म कर सकता है। इसके लिए संविधान सभा की सिफारिश अनिवार्य होगी।’’ संविधान सभा को तो 1956 में ही भंग कर दिया गया था। इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि संविधान सभा ने न तो धारा 370 को खत्म करने की सिफारिश की, और न ही इसे स्थायी बनाने की।
कानूनी दांवपेंचों के अनुसार धारा 370 राष्ट्रपति को यह अधिकार प्रदान करती है कि वह राज्य सरकार की सहमति से आदेश दे सकते हैं। यह विषय परिग्रहण के साधन में संलिप्त नहीं है। चूंकि राष्ट्रपति ने राज्य सरकार की सहमति से यह कदम उठाया है, अतः यह वैध ठहरता है।
सत्य यह भी है कि 1956 से लेकर अब तक जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे से जुड़े प्रावधानों में ढील देने के लिए राष्ट्रपति के 40 आदेशों का उपयोग किया गया है। धारा इतनी बार संशोधित की गई है कि यह राज्य को स्वायत्तता प्रदान करने के अपने विशेष प्रारूप का महत्व वैसे ही खो चुकी है।
दूसरे, कश्मीरियों ने तो हमेशा ही दो राष्ट्र वाले सिद्धाँत का विरोध किया है। तभी तो राजा हरिसिंह और भारतीय सरकार ने परिग्रहण के साधन के अंतर्गत समझौता किया था। इसका कारण एक दार्शनिक प्रेरणा रही थी। पाकिस्तान के इस्लामिक राज्य के सांप्रदायिक दृष्टिकोण के साथ कश्मीरियत का निहित अंतद्र्वंद हमेशा ही होने वाला था। विभाजन के दौरान के नेताओं को इस बात का पहले से ही अनुमान था।
कश्मीरियत का उदय सदियों वर्ष पहले की धर्मनिरपेक्षता से संबंधित है, जब वहाँ बौद्ध मठों और हिन्दू भक्तों का जमावड़ा हुआ करता था। यह भी कहा जाता है कि मोक्ष की प्राप्ति हेतु प्रबोधन के लिए गुरूनानक भी वहाँ गए थे। घाटी में इस्लाम के आने के बाद इसने वहाँ पनपी अन्य दार्शनिक परंपराओं को भी समान जगह दी। हजरत बल दरगाह और शंकराचार्य मंदिर इस समन्वयता का जीवित उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
दरअसल, धारा 370 और 35 ए कश्मीरियत के विरोधी हैं। ये धाराएं पुरूष और महिला, बाहरी और निवासी के बीच भेदभाव करती हैं। कुछ लोग तो इन धाराओं को जनोफोबिक या विदेशियों के प्रति घृणा उत्पन्न करने वाली भी करार देते हैं। कश्मीर से बाहर उत्पन्न किसी कश्मीरी महिला की संतान को अलग-थलग क्यों माना जाता है ? पाकिस्तान में सांप्रदायिक दृष्टिकोण से सताए हुए हिन्दू शरणार्थी को राज्य में समान अधिकार क्यों नहीं दिए जाते हैं ? 1957 में वहाँ लाए गए वाल्मीकि समुदाय के लोगों को आज भी छुआछूत की बेड़ियों में क्यों जकड़कर रखा गया है ? इस प्रकार के विकृत प्रावधानों को धारा 370 और 35ए में स्थान देकर राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने का भ्रम पैदा किया जा रहा था। जबकि ये दोनों ही धाराएं आधुनिक प्रजातंत्र में इंसानियत के नाम पर धब्बा थीं। ये धाराएं जम्मू-कश्मीर राज्य को न्यायसंगत और समावेशी समाज बनाने से रोकती रहीं।
1980 और 1990 में आतंकवादी गतिविधियों के बढ़ने के साथ तो कश्मीर से देश का नाता ही टूटने लगा था। इसने कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया था।
एन डी ए ने इस ‘दूसरेपन’ के ढांचे को ढहा दिया है। उम्मीद की जा सकती है कि अब घाटी में हिन्दू, सिख एवं अन्य धर्मों के लोगों को स्थान मिल सकेगा। कश्मीर में कश्मीरियत की रक्षा करना बहुत जरूरी है। प्रवासियों के द्वारा इस नए युग की शुरूआत की कोशिश की जा सकती है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित राहुल शिवशंकर के लेख पर आधारित। 8 अगस्त, 2019