सरकारी चाबुक का प्रयोग

Afeias
17 Sep 2019
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Date:17-09-19

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सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को समाप्त करना भले ही अच्छा माना जा रहा हो, परन्तु यह कदम पूर्णतः अवैध कहा जाना चाहिए। यह संविधान की आत्मा का विरोधी है।

पूर्व गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा के शब्दों में कहें, तो भारतीय संविधान में केवल 370 ही एक ऐसी धारा है, जो जम्मू-कश्मीर को इससे जोड़ती है। सरकार ने इस कड़ी को तोड़ दिया है, और भारतीय संविधान को एकदम से जम्मू-कश्मीर पर लाद दिया है।

सरकार के इस कदम की जांच धारा 370 के इतिहास औैर इसकी भाषा, दोनों के आधार पर की जानी चाहिए।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947, जिसने भारत को एक स्वतंत्र अधिराज्य घोषित किया था, ने 1955 के भारत सरकार अधिनियम को ही अंतरिम संविधान की तरह स्वीकार करने का प्रावधान दिया था। इस अधिनियम के भाग 6(1) में भारतीय रियासतों को परिग्रहण के साधन के अंतर्गत भारतीय गणराज्य में शामिल होने का प्रावधान दिया गया था। जम्मू-कश्मीर के मामले में यह सिफ; रक्षा, विदेशी मामलों और संचार के माध्यम में किया गया था।

धारा 370 ने इस अनुबंध को ठोस आधार प्रदान किया था। इसमें संसद को केवल वर्णित मामलों में ही हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया था। धारा 370(1)(डी) के द्वारा राष्ट्रपति को यह अधिकार था कि वे मामलों से जुड़े संविधान के अन्य प्रावधानों या परिग्रहण के साधन के अंतर्गत दिए गए मामलों में राज्य पर कुछ नियम लागू कर सकते हैं। परन्तु ऐसा करने के लिए उन्हें राज्य सरकार की सहमति लेनी होगी। जबकि सरकार का यह कदम राज्य सरकार की सहमति और राज्य विधान सभा के समर्थन, दोनों से ही परे चला गया है।

अचंभे की बात यह है कि इस प्रावधान में उसके अपने निषेध का भी तंत्र है। इसकी धारा तीन राष्ट्रपति को यह अधिकार देती है, वह धारा 370 को अप्रभावी कर सकता है। परन्तु राज्य की संविधान सभा की अनुशंसा पर ही वह ऐसा कर सकता है। 1956 तक राज्य का अपना संविधान अंतिम रूप ले चुका था, और राज्य की संविधान सभा को भंग कर दिया गया था। वर्तमान में केन्द्र सरकार ने धारा 370(3) का परित्याग करके इसकी गारंटी को समाप्त कर दिया है। 370 को समाप्त करने का सारा षड्यंत्र रचने के लिए सरकार ने अनुभाग (1) में दिए गए प्रावधान का प्रयोग किया है। इसके माध्यम से धारा 367 को संशोधित किया गया है।

धारा 367 में संविधान की व्याख्या से जुड़े दिशानिर्देश दिए गए हैं। राष्ट्रपति ने धारा 370 के भाग (1)(डी) का उपयोग करते हुए धारा 370 के मूल उद्देश्य को ही बेकार कर दिया। साथ ही जम्मू-कश्मीर के मामले में धारा 367 को भी संशोधित कर दिया। इस संशोधन से राज्य विधान सभा का स्थान राज्यपाल को दे दिया जाता है, जो बिल्कुल काल्पनिक है। हांलाकि सरकार ने अपने इस कदम के पक्ष में 1972 के उच्चतम न्यायालय के आदेश की आड़ ली है। मो.मकबूल दामनू के मामले में न्यायालय ने धारा 367 में संशोधन को स्वीकार किया था।

इसी का लाभ उठाते हुए सरकार ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल को न केवल प्रतिनिधित्व की शक्ति दे दी, बल्कि संघटक शक्ति भी दे दी। पूर्व में किए गए संशोधन से अलग, इस बार के संशोधन के बाद धारा 370 को पूर्ण रूप से निरस्त कर दिया गया।

इस पूरे मामले में राष्ट्रपति ने अपनी शक्ति का संभाव्य इस्तेमाल किया है। यह संविधान की संघीय गुणवत्ता पर प्रहार करता है, और देश के लोगों को नकारता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सुरिथ पार्थसारथि के लेख पर आधारित। 7 अगस्त, 2019

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