दल-बदल कानून की भ्रान्त धारणा

Afeias
24 Jul 2019
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Date:24-07-19

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संविधान की दसवीं अनुसूची दलबदल विरोधी कानून से जुड़ी हुई है। अपने अस्तित्व के 34 सालों में अभी यह कानून सबसे ज्यादा गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है। अनेक विधायक इस कानून को धता बताकर सत्तासीन दल मिल रहे हैं। हाल ही में तेलंगाना के विधायकों का टी आर एस दल में आना, और गोवा के विधायकों का भाजपा में शामिल होना इसके उदाहरण हैं। कर्नाटक में भी विधायकों के बड़ी संख्या में इस्तीफे से घोर संकट उत्पन्न हो गया है। हैरानी की बात तो यह है कि मीडिया भी इस कानून की गलत व्याख्या करते हुए दलबदलू नेताओं का साथ दे रही है।

दरअसल, दलबदल के संकट से निपटने के लिए ही 10वीं सूची को अधिनियमित किया गया था। राजनैतिक दलों के लिए दलबदल का प्रचलन इतना बड़ा सिरदर्द बन गया था कि अंततः इसे संवैधानिक कानून का दर्जा दिया गया। राज्य सभा के उपसभापति और लोकसभा के अध्यक्ष को इस प्रकार के मामलों के निपटान में न्यायाधिकरण की भूमिका निभानी होती है। आज तक उन्होंने अपनी भूमिका को ईमानदारी से निभाते हुए इस कानून की आत्मा की रक्षा की है।

देश के तीन राज्यों में हाल ही में उपजे इस संकट ने एक बार फिर से यह प्रश्न उठाने पर मजबूर कर दिया है कि क्या इस कानून का कोई भी भाग किसी विधायक को कानूनी अड़चन के बिना अपनी पार्टी छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में शामिल होने की छूट देता है?

  • 10वीं अनुसूची के पैरा 2(1) में स्वेच्छा से पार्टी की सदस्यता छोड़ने वाले विधायक को अयोग्य ठहराने का प्रावधान है।
  • पैरा 4 में इस मामले में छूट दी गई है। छूट दो शर्तों पर पर आधारित है। (1) विधायक की पार्टी का किसी अन्य राजनैतिक दल के साथ विलय हो गया हो। (2) इस विलय के लिए पार्टी का दो-तिहाई बहुमत तैयार हो। इन दो शर्तों पर सदन का अध्यक्ष, किसी विधायक को अयोग्य होने से बचा सकता है।

पूरी 10वीं अनुसूची विधायकों के दलबदल से संबंधित है। इस पूरी प्रक्रिया में विधायकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। अगर पार्टी के दो-तिहाई विधायक किसी अन्य पार्टी में विलय के लिए तैयार हैं, तभी इसे वैध माना जा सकता है। अन्यथा पैरा 4 के अनुसार यह गैरकानूनी माना जाएगा। एक और तथ्य स्पष्ट होना चाहिए कि इसमें विधायक अपनी मूल पार्टी के दूसरी पार्टी में विलय की सम्मति देते हैं। इसके बाद ही किसी पार्टी का विलय हो सकता है।

कर्नाटक संकट में तो उच्चतम न्यायालय को हस्तक्षेप करते हुए अध्यक्ष को उनके दायित्व का स्मरण कराना पड़ा है।

वर्तमान में चल रहे संकट में सदन के अध्यक्ष ने 10वीं अनुसूची का संज्ञान न लेते हुए, मूल पार्टी के विलय के बिना ही विधायकों के दल बदलने को स्वीकार कर लिया।

कानून की सही व्याख्या के साथ उसको अनुपालन अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा देश मे संवैधानिक संकट खड़ा होने में देर नहीं लगेगी।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित पी डी टी अचारे के लेख पर आधारित। 27 जून, 2019