मूल आवश्यकताएं, मूल अधिकार

Afeias
25 Jul 2019
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Date:25-07-19

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हाल ही में मुजफ्फरपुर में स्वास्थ्य सेवा की कमजोरी से हुई अनेक बच्चों की मृत्यु कुछ अहम् प्रश्न खड़े करती है। इनके उत्तर में कुछ ऐसे बिन्दुओं पर प्रतिक्रिया भी प्रस्तुत करती है, जो भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों से इतर मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की मांग करते हैं। इनकी व्यवस्था कुछ ऐसी हो कि जिस प्रकार कानून तोड़ने पर नागरिकों के लिए दण्ड की व्यवस्था है, उसी प्रकार इनकी पूर्ति न कर पाने पर सरकार को दण्डित किया जाए। इसके लिए तत्काल दण्ड की व्यवस्था हो। चुनावों तक विलम्ब न किया जाए। दोषी सरकारें कानूनी रूप से जिम्मेदार ठहराई जाएं।

मूल अधिकार क्या हैं?

जरूरतें, इच्छाओं से अलग होती हैं। इच्छाएं व्यक्तिपरक भी होती हैं। जरूरतें तो मानव जीवन को चलाने हेतु आवश्यक होती हैं। इनकी पूर्ति के बिना जीवन चल ही नहीं सकता। इनका कोई विकल्प भी नहीं होता। जैसे पानी, हवा और खाने के बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता।

आवश्यक होते हुए भी ये वह वस्तुएं नहीं हैं, जिनके लिए हम जी रहे हैं। ये हमारे जीवन को जीने योग्य नहीं बनाती हैं। लेकिन जीवन में हम जो पाना चाहे हैं, उसका मिलना जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति पर ही निर्भर करता है। उनकी कल्पना करके देखिए, जो एक बाल्टी पानी के लिए घंटों लाइन में खड़े रहते हैं। अगर ये रोजमर्रा की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं या देर से होती हैं, तो लोगों के जीवन में त्रास हो जाता है। इसके साथ ही उनके लिए साफ-सुथरे जीवन की कल्पना भी दूभर हो जाती है।

मूल आवश्यकताएं पूरी न होने पर लोग वंचित और असहाय महसूस करते हैं। रोते हैं, दुखी होते हैं और मदद के लिए चिल्लाते हैं। सरकार से प्राथमिक न्याय की गुहार लगाते हैं। सरकार का दायित्व भी है कि वह कुछ और करने से पहले अपने नागरिकों, विशेषतः कमजोर वर्ग के लोगों की मूल आवश्यकताओं को पूरा करे। जब सरकार इन जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर पाती है, तो हम पीड़ित महसूस करते हैं।

सुरक्षा और जीवन निर्वाह

अधिकारों की भाषा मूल आवश्यकताओं के विचार में क्या जोड़ती है? अधिकार कुछ ऐसा है, जो हमें बकाए के तौर पर दिया गया है। यह हम पर कोई एहसान नहीं है। अधिकार किसी भी ऐसी वस्तु की पहचान में हमारी मदद करते हैं, जो कि हमारी पात्रता के अनुरूप हमारी बुनियादी जरूरतों को पूरा करती हैं। ये मूल अधिकार सरकार के ऊपर हमारा दावा सिद्ध करते हैं कि वह हमें वस्तु और सेवाएं प्रदान कर, हमारी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करे।

दूसरे, मूल अधिकार की श्रेणी में आने वाली प्रत्येक सुविधा, सरकार के दायित्व में जुड़ जाती हैं। सरकार उसकी गारंटी देने वाली बन जाती है। उदाहरण के लिए, लोगों की सुरक्षा एक मूल अधिकार है। इसकी गारंटी लेते हुए सरकार एक कुशल और प्रशिक्षित पुलिस बल को तैनात करती है। ऐसा नहीं करने पर सरकार और समाज को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। मूल अधिकार, उन वंचितों और कमजोर लोगों के लिए भूख, महामारी और बीमारियों का सामना करने के लिए एक सुरक्षा कवच हैं। दार्शनिक हेनरी शू इसे एक कमजोर को हानि पहुँचा सकने वाली आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक शक्तियों के विरूद्ध वीटो पावर देने जैसा मानते हैं।

इन अधिकारों को जरूरी इसलिए भी कहा जा रहा है, क्योंकि इन पर ही कई मूल्यवान अधिकारों का अस्तित्व निर्भर करता है। मान लीजिए कि हमें सार्वजनिक स्थान पर इकट्ठा होने का अधिकार है। परन्तु अगर ऐसा करने पर कुछ गुंडे हमें तरह-तरह से हानि पहुँचाने की धमकी देना शुरू कर देते हैं, तो अधिकतर लोग पीछे हट जाएंगे। अपने अस्तित्व की सुरक्षा हमारा पहला मूल अधिकार है।

दूसरा अधिकार, आर्थिक सुरक्षा और जीवन-निर्वाह का है। इसमें शुद्ध वायु, स्वच्छ जल, पोषक भोजन, वस्त्र एवं आश्रय का अधिकार आता है। मुजफ्फरपुर की त्रासदी इस सूची में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा को भी जोड़ देती है। एक अध्ययन बताता है कि कुपोषण की अवस्था में लीची खाने से एन्सेफ्लोपैथी नामक वह बीमारी होती है, जिससे मुजफ्फरपुर के कई बच्चों की मृत्यु हुई। इसी प्रकार का संबंध बीमारी, बेरोजगारी और गरीबी के बीच है।

इन मूल अधिकारों के हनन की रक्षा के लिए सरकार चाहे तो संस्थाओं का गठन और कार्यप्रणाली में बदलाव कर सकती है। यदि उदाहरण के रूप से स्वास्थ्य सेवाओं को लें, तो स्वास्थ्य केन्द्रों में पर्याप्त संख्या में डॉक्टर, नर्स, चिकित्सकीय संसाधान आदि की उपलब्धता रखना सरकार का दायित्व है। इसके लिए बजट में प्रावधान भी रखा जाना चाहिए। यह तब संभव होगा, जब सरकार इसे अपनी प्राथमिकता और प्रतिबद्धता समझे।

इन दो मूल अधिकारों के साथ, अधिकारों की पूर्ति न होने की दशा में अपनी कुंठा और असहायता की अभिव्यक्ति का भी अधिकार होना चाहिए। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार विस्तृत है, और सभी प्रकार की अभिव्यक्तियों को मूल अधिकार से जोड़ा नहीं जा सकता। सरकार की कुछ ऐसी करतूतें; जिनसे मूल आवश्यकताओं की पूर्ति पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो, को इसमें स्थान दिया जा सकता है। जनता को पूरा अधिकार होना चाहिए कि वह इन विपरीत नीतियों को सार्वजनिक करके सरकार को इसके लिए जिम्मदार ठहराए। ऐसा प्रबंध भी सरकार को ही करना होगा कि जनता खुलकर अपना विरोध जता सके।

मूल आवश्यकताओं में इन तीन मूल अधिकारों को जोड़ने के बाद ही हम एक सम्माननीय जीवन के अधिकार की पूर्ति मान सकते हैं। अच्छे जीवन के लिए मांगों की कोई सीमा नहीं है। लेकिन इस जीवन को उचित तरीके से जीने की न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हमारा अधिकार है। भारत की अनेक सरकारें, जनता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से होने वाले कष्ट से पल्ला झाड़ती रही हैं। इसके लिए सरकारों को दण्डित किए जाने का प्रावधान होना चाहिए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित राजीव भार्गव के लेख पर आधारित। 25 जून, 2019

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