निजता का अधिकार

Afeias
03 Aug 2017
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Date:03-08-17

 

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भारतीय संविधान ने अपने नागरिकों को कई प्रकार के मौलिक अधिकार दे रखे हैं। लेकिन शत-प्रतिशत इन्हें लागू नहीं किया जाता है। वर्तमान में निजता के अधिकार को लेकर चल रही चर्चाओं के लिए भी नागरिकों के मन में यही शंका व्याप्त है कि क्या इसे मौलिक अधिकार का दर्जा दिया जा सकेगा? अगर ऐसा होता है, तो क्या इसे शत-प्रतिशत लागू किया जा सकेगा। ऐसा मौलिक अधिकार मिलने के बाद क्या नागरिक सरकार की निगरानी से बच सकेंगे? ऐसे अनेक प्रश्न लोगों के मन में हैं।

दरअसल निजता के अधिकार का वर्णन संविधान में नहीं किया गया है। परन्तु अगर केवल संविधान के आधार पर ही निजता के अधिकार को देखा जाना है, तो मनमानी करने के विरूद्ध अधिकार एवं प्रेस की स्वतंत्रता जैसे विषय भी समाप्त हो जाने चाहिए। किसी निजी संस्था को अपनी मर्जी से अपने बारे में सूचना देने और सरकार द्वारा नागरिकों को सूचनाएं प्रदान करने की अनिवार्यता में अंतर है। अतः निजता के अधिकार के बारे में निर्णय लेने के लिए स्वयं एपेक्स कोर्ट को भी अग्नि परीक्षा से गुजरना होगा।

क्या हमारा न्यायालय आज सूचना तंत्र के युग में 1963 और 1973 जैसा सशक्त निर्णय ले सकेगा, जब उसने इंदिरा गांधी सरकार को संविधान में संशोधन करने से रोक दिया था? सन् 1954 के सतीश चंद्र मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत निजता के अधिकार के प्रावधान को ठुकरा दिया था। कहीं 1963 में खड़क सिंह के मामले में न्यायालय ने इसे स्वीकार किया था। परन्तु फिर भी एक संक्षिप्त चर्चा के बाद न्यायालय ने यही कहा था कि भारत में निजता का कोई अधिकार नहीं है। दूसरी ओर, न्यायाधीश सुब्बाराव ने इसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का एक महत्वपूर्ण अंग माना था।

निजता का अधिकार दिए जाने के बाद भी सरकार अपने नागरिकों पर कुछ अंकुश लगा सकेगी। निजता के अधिकार का अर्थ इस मामले में पूर्ण अधिकार मिलने से न लगाया जाए। विश्व के धरातल पर इस संदर्भ को देखें, तो पाते हैं कि निजता केअधिकार को खत्म करके न तो राष्ट्रीय सुरक्षा बढ़ाई जा सकी है और न ही आतंकवाद को खत्म किया जा सका है। इससे केवल नागरिकों के व्यक्तिगत निर्णय ले सकने के अधिकार का ही हनन हुआ है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित फैज़ान मुस्तफा

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