गैर निष्पादित सम्पत्ति के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
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हमारी केन्द्र सरकार, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को उम्मीद है कि हाल ही में लाए गए दिवालियापन सुधार कानून (Insolvency and Bankruptcy), 2016 के माध्यम से गैर निष्पादित सम्पत्तियों से निपटा जा सकेगा। यद्यपि यह कानून गत वर्ष मई में लाया गया था, परन्तु इससे जुड़ा अध्यादेश मई 2017 में लाया गया है। इसके द्वारा सरकार ने रिजर्व बैंक को बैंकों को लेनदारों से सीधे निपटने का अधिकार दिया है। गैर निष्पादित सम्पत्ति का लगभग 25 प्रतिशत इस कानून के अंतर्गत आता है। ऐसा कानून बनने के बाद भी गैर निष्पादित सम्पत्ति से निपटना एक जटिल और लंबी प्रक्रिया है।
इन सबके बीच एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इस कानून को लाने में इतने वर्ष क्यों लग गए? सन् 1999 से ही इस पर विचार किया जा रहा है। अगर हम विदेशों की ओर देखें, तो पाते हैं कि उनकी गैर निष्पादित सम्पत्ति बहुत ही कम है। वहाँ ऐसे मामलों को प्राथमिक स्तर पर पहचानकर उन पर तुरंत और सख्त कार्यवाही की जाती है।दूसरा प्रश्न उठता है कि क्या दिवालियापन कानून को गैर निष्पादित संपत्ति से निपटने के लिए ही बनाया गया है? हमारे वित्तमंत्री ने इस बारे में कुछ स्पष्ट संकेत देते हुए कहा है कि इस कानून को व्यापार-मित्र कानून की तरह देखा जाना चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर के बाद यह दूसरा बड़ा आर्थिक सुधार है। एक आधिकारिक वक्तव्य में कहा गया है कि ‘इस नए कानून का उद्देश्य उद्यमों और अन्वेषणों को बढ़ावा देना है।’’ उद्यम के प्रयास विफल होते ही रहते हैं। लेकिन इस कानून के द्वारा उन्हें जल्द से जल्द ऊबार लिया जाएगा?
गैर निष्पादित सम्पत्ति से संबंधित दो तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें समझने की आवश्यकता है।
- सभी गैर निष्पादित सम्पत्तियाँ बुरी नहीं होतीं। इन सम्पत्तियों के प्रति सामान्य धारणा यही होती है कि किसी उद्यमी और बैंक ने मिलकर किसी व्यावसायिक असफलता को दिखाकर धोखा किया और कर्ज के धन को डुबो दिया। अक्सर ऐसा होता भी है। परन्तु बाजार अर्थव्यवस्था में विफल होने का खतरा अक्सर रहता है। इन खतरों से मुंह मोड़कर उद्यमों को बंद नहीं किया जा सकता, बल्कि इनके प्रति एक व्यावसायिक विवेकपूर्ण नीति अपनाने की जरूरत होती है। यह अवश्य है कि जानबूझकर धोखा करने वाले उद्यमी और एक विफल उद्यमी को अलग-अलग ढंग से देखा जाना चाहिए। ऐसी समझ बैंकों को अपने अंदर लानी होगी।
- दूसरे, गैर निष्पादित सम्पत्तियों की संयमित और संतुलित समीक्षा की जानी चाहिए। अमेरिका में इन सम्पत्तियों के कारण बैंकों का जैसा बुरा हाल हुआ है, वैसी स्थिति भारतीय बैंकों की नहीं है। अतः गैर निष्पादित सम्पत्तियों को लेकर रोने की बजाय इनके प्रति नरमी और शांत तरीके से विचार किया जाना चाहिए।
रिजर्व बैंक के आंकड़े बतामं हैं कि सन् 2003-04 की तुलना में 2013-14 में गैर निष्पादित सम्पत्तियों में काफी कमी आई है।
गैर निष्पादित सम्पत्तियों के मामलों का निपटान जल्दी और कुशलता से किया जाना चाहिए। लेकिन साथ ही लाभ और हानि के प्रति सामान्य दृष्टिकोण बदलने की भी जरूरत है। विफलता और हानि के खतरे उठाए बगैर भारतीय अर्थव्यवस्था प्रगति नहीं कर सकती। भारत को आगे बढ़ाने के लिए सरकार, जनता एवं व्यावसायियों को विफलता की आशंका को मन से निकालना ही होगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित परसा वेंकटेश्वर राव जे.आर. के लेख पर आधारित।