अपशिष्ट जल हमारी सम्पत्ति है

Afeias
07 Sep 2017
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Date:07-09-17

 

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हाल के कुछ वर्षों में शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक विकास के चलते अपशिष्ट जल की मात्रा में वृद्धि हुई है। प्रदूषण के कारण हमारे शुद्ध जल-स्रोतों पर खतरा मंडरा रहा है। जिस स्तर पर प्रदूषण है, उस स्तर पर जन-जागरूकता में कमी है। इससे हमारा स्वास्थ्य बुरी तरह से प्रभावित है। हांलाकि इसके सबसे ज्यादा शिकार असहाय और गरीब लोग होते हैं, परन्तु इसका बोझ समस्त समुदाय एवं सरकार को उठाना पड़ता है।

 

 

जल से जुड़े कुछ तथ्य

  • पूरे विश्व में लगभग 80 प्रतिशत अपशिष्ट जल बिना किसी उपचार के पारिस्थितिकी तंत्र में चला जाता है।
  • अपशिष्ट जल का इस्तेमाल भी होता रहता है। 1 अरब 80 करोड़ लोग दूषित जल का सेवन करते हैं, जिससे हैजा, टायफायड जैसी अनेक बीमारियाँ फैलती हैं।
  • 2030 तक विश्व मेंं पानी की मांग 50 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। यह मांग अधिकतर शहरों में ही बढ़ेगी।
  • अधिकांश विकासशील देशों में अपशिष्ट जल का अधिकतर भाग सीधे नालों में जाकर मिल जाता है। परंपरागत लगे जल-शोधन संयंत्र काफी सारे प्रदूषकों को नहीं निकाल पाते हैं।
  • भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। हम 4 प्रतिशत जल-स्रोतों और 2.4 प्रतिशत भूमि क्षेत्र से अपने सभी विकास कार्यों के लिए जल खींच रहे हैं। इससे ताजे जल स्रोतों की क्षमता बहुत घट गई है।
  • हमारे श्रेणी-1 और श्रेणी-2 शहरों से सबसे ज्यादा अपशिष्ट जल निकलता है। इसमें से 45 प्रतिशत जल केवल महानगरों की देन है।
  • हमारे औद्योगिक क्षेत्रों से भी अपशिष्ट जल का बहुत बड़ा हिस्सा सीधे जल-स्रोतों में मिल जाता है।

अभी तक के अनुभव यह बताते हैं कि जल-प्रदूषण से जुड़ी नीतियाँ एवं कानून बनाए जाने के बावजूद इस क्षेत्र में कोई खास सुधार नहीं किया जा सका है। आज भी राजनैतिक चर्चाओं में जल-प्रदूषण कोई मुद्दा नहीं बन पाया है।

प्रबंधन नीति क्या हो?     

जल-प्रदूषण की समस्या जटिल होते हुए भी निराकरण के योग्य है। यद्यपि इसे शून्य की स्थिति पर नहीं लाया जा सकता, परन्तु हमारे पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षित सीमा तक लाना संभव है।

  • सर्वप्रथम, राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर कृषि व्यवसाय, उद्योग, ऊर्जा एवं शहरी विकास जैसी जल से जुड़ी अप्रत्यक्ष नीतियों को जल-प्रदूषण नीति से जोड़ा जाना चाहिए।
  • जल-प्रदूषण को दण्डनीय अपराध की श्रेणी में लाया जाना चाहिए।
  • जल-स्रोतों की सुरक्षा के लिए बनाई जाने वाली नीतियों, योजनाओं एवं कार्यक्रमों में सरकार, उद्योगों एवं जनता की भागीदारी होनी चाहिए।
  • स्थानीय स्तर पर इसे स्थानीय समुदायों पर छोड़ दिया जाए, जिसे बाद में राजनैतिक मंत्रणा से अनुपालन में लाया जाए।
  • पर्यावरण एवं प्रदूषण टैक्स जैसी रणनीतियां अपनायी जाएं।
  • प्रदूषण प्रबंधन संबंधी उपकरण लगाने के लिए सब्सिडी, आसान ऋण एवं कर में छूट आदि की व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • औद्योगिक प्रदूषण के क्षेत्र में ऐसी उन्नत तकनीकें लाई जाएं, जो जल-प्रदूषण को कम कर सकें। विदेशों में तैयार एवं उपयोग में लाई जाने वाली ऐसी तकनीकें भारत के लिए लाभप्रद हो सकती हैं।
  • कृषि में बायो खाद एवं आर्गेनिक कीटनाशकों का उपयोग बढ़ाया जाना चाहिए।
  • कपड़ा उद्योग में प्राकृतिक डाई का प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए।

शहरी क्षेत्रों से निकले अपशिष्ट-जल को उपचारित करके उसका उपयोग कृषि, उद्योग, स्वच्छता एवं कई घरेलू कामों में हो सकता है। अपशिष्ट जल को बोझ नहीं वरन् अपनी सम्पत्ति मानना चाहिए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रकाश नेलियत के लेख पर आधारित।

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