कॉपीराइट के पीछे छिपे चार सच

Afeias
24 Oct 2016
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Date: 24-10-16

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कॉपीराइट एक्ट के संबंध में हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बारे में हम सब जानते हैं। इस निर्णय के विरोध में अपील भी की गई है। अंतिम निर्णय होने में अभी वक्त लग सकता है। फोटोकॉपी का यह मामला कॉपीराइट के संबंध में कुछ ऐसे तथ्य रखता है, जिसे हम सबके लिए जानना आवश्यक है।

  • जितने भी अकादमिक प्रकाशन हैं, वे सामान्य रूप से व्यावसायिक नहीं कहे जा सकते। जितने भी अकादिमिक प्रकाशक हैं, वे किसी भी कृति या पांडुलिपि की न्यूनतम कीमत भी नहीं देते हैं। इन कृतियों को पुस्तक बनाने की प्रक्रिया में पू्रफ रीडिंग और संपादन की जो सेवाएं ली जाती हैं, उनका मेहनताना भी नहीं के बराबर दिया जाता है। कारण यही है कि जितने भी बुद्धिजीवी लेखक हैं, वे किसी न किसी संस्थान से संबद्ध होते हैं और वे नाममात्र की राशि के बदले अपनी कृति प्रकाशक को सौंप देते हैं। ये प्रकाशक इन पर पूरा कॉपीराइट अधिकार जताते हैं, और पूरी रायल्टी भी डकार जाते हैं। एक प्रकाशक को व्यवासायिक तौर पर पुस्तक के संपादन, वितरण तथा अलग-अलग मूल्यों में पुस्तक की उपलब्धता पर तो ध्यान देना चाहिए, परंतु इस ओर भी वह ढीला रवैया अपनाता है।
  • उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों की अध्ययन सूची काफी लंबी होती है। नए-नए शोधों के साथ यह बढ़ती जाती है। इनकी अध्ययन सामग्री की बराबरी स्कूल के स्तर से नहीं की जा सकती। उच्च शिक्षा की अध्ययन सामग्री का बाजार बहुत व्यापक है। हर पुस्तक को बाजार भाव पर लेकर पढ़ना विद्यार्थी के लिए बहुत मंहगा पड़ता है। अगर ऐसा हो, तो स्नात्तकोत्तर स्तर पर आते-आते एक विद्यार्थी के लिए इसकी कीमत लाखों में आ जाएगी। कुछ देशों ने इसके विकल्प के रूप में पुस्तकों की फोटोकॉपी को लाइसेंस देना शुरू किया है। परंतु भारत में अभी यह संभव नहीं लगता।
  • कृतियों का तकनीकी रूपातंरण कॉपीराइट के अधिकार के पीछे छिपा तीसरा महत्वपूर्ण तथ्य है। अभी तक सभी तरह के प्रकाशनों पर प्रकाशक का एकाधिकार जैसा होता था। वे मनचाही प्रतियां निकाल सकते थे, मनचाहें मूल्य रख सकते थे, मनचाहा वितरण कर सकते थे। परंतु डिजीटलीकरण एवं इंटरनेट आधारित वितरण से प्रकाशकों का यह अधिकार छिन गया है। इससे वे घबड़ा से गए हैं। कई विश्वविद्यालयों ने स्पाइरल बाइडिंग के जरिए पुस्तकों का वितरण प्रारंभ करके प्रकाशकों को एक प्रकार से चुनौती दे दी है। अतरराष्ट्रीय स्तर पर हार्वर्ड, एमआईटी, स्टैनफोर्ड और कोलंबिया जैसे विश्वविद्यालयों ने स्कॉलरली पब्लिशिंग एण्ड एकेडेमिक रिसोर्सेज़ कोएलीशन (SPARC) का गठन किया है। यह संगठन अकादमिक प्रकाशन को नियमित करने के लिए ही बनाया गया है। भारत में भी इस ओर प्रयास किया जा रहे हैं।
  • हमारे देश में अकादमिक प्रकाशन कॉपीराइट एक्ट के इर्द-गिर्द घूमते हैं। इस कॉपीराइट का बाजार मूलतः सॉफ्टवेयर, फिल्म, लोकप्रिय संगीत जैसी बौद्धिक संपदा का बाजार है। इसकी कीमत बहुत ज्यादा है। अफसोस इस बात का है कि इस बौद्धिक संपदा को रचने वाल लोगों की दशा दयनीय है, जबकि इसके कॉपीराइट- धारक मालामाल हो रहे हैं। शहनाई वादक विस्मिलाह खान भी पाई-पाई को तरसे रहे, जबकि उनकी शहनाई की सीडी का बाजार बहुत बड़ा था। अन्य सभी आकादमिक प्रकाशनों में यही हो रहा है। गनीमत यह है कि भारतीय कॉपीराइट एक्ट ने शैक्षणिक उपयोग से जुड़े सभी प्रकाशनों को कुछ छूट दे रखी है। प्रकाशकों को यह तक बर्दाश्त नहीं हो रहा है। इसीलिए यह सारा विवाद सामने आया है।

इन सभी तथ्यों को देखते हुए निष्कर्ष यही निकलता है कि फोटोकॉपी के मामले में याचिका दायर करने वाले अभियोगी अरबपति हैं और उन्हें विश्वविद्यालय की किसी एक छोटी सी दुकान से कुछ फोटोकॉपी की सामग्री बिक जाने से कोई नुकसान नहीं होने वाला। दरअसल, अकादमिक प्रकाशन सदैव की तरह ही व्यक्ति पर आधारित न होकर संस्थाओं पर चलने वाला औसत गति का बाजार है, और यह वही रहे तो अच्छा है।

इंडियन एक्प्रेसमें प्रकाशित  सतीश देशपाण्डे के लेख पर आधारित।