‘वॉर ऑन टेरर’ के पीछे छुपी सोच

Afeias
06 Jun 2019
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Date:06-06-19

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हाल ही में श्रीलंका पर हुए आतंकवादी हमले ने वैश्विक स्तर पर चलने वाले ‘आतंक विरोधी युद्ध’ पर एक बार फिर से विचार-विमर्श करने को मजबूर कर दिया है। अमेरिका पर हुए 11/9 के हमलों के बाद जार्ज डब्ल्यू बुका द्वारा दी गई इस अवधारणा के प्रयासों और उपलब्धियों पर प्रश्न उठाने का यह सही समय है।

पूरे विश्व के विद्वान और अधिकारी आतंकी संगठन आई एस से जुड़े तारों की खोज कर रहे हैं। साथ ही वे ‘आतंक विरोधी युद्ध’ या ‘वॉर ऑन टेरर’ के वैश्विक प्रयासों की भी समालोचना करने में जुटे हुए हैं।

एक नजर –

  • ‘वार ऑन टेरर’ से संबद्ध लगभग 60 देशों के संयुक्त सैनिक प्रयासों से भी अफगानिस्तान में आतंकवाद का सफाया नहीं हो सका है। 2001 में तालिबान की पराजय के बाद अब एक बार फिर से ऐसी स्थितियां बन रही हैं कि अफगानिस्तान आतंकियों के हाथों में जा सकता है। इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि 60 देशों के गठबंधन के पीछे हटने के बाद पाकिस्तान की छत्रछाया में रह रहे आतंकवादी वापस अफगानिस्तान न पहुँचें।

अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई के नाम पर पहले भी ऐसे गठबंधन बनाए हैं। ईराक और लीबिया में इसके चलते ही तानाशाह सरकारें गिरी थीं। इस बीच आई एस ने अपने लिए ‘खलीफा’ की हुकुमत का साम्राज्य स्थापित कर लिया है। इसके अधीन विश्व के कई देशों में आतंकवादी हमले हुए हैं। अब ये हमले कुछ नए देशों में किए जा रहे हैं।

  • इस्लामी आतंकी संगठनों से निपटने की बजाय, ‘वॉर ऑन टेरर’ संगठन ने आई एस और अल-कायदा के पैर जमाने में मदद की है। मदद संगठन के कारण पूरे विश्व के मुस्लिम युवा आतंकी संगठनों से जुड़ने लगे हैं। श्रीलंका हमले की जिम्मदारी लेते हुए अब बकर-बगदादी ने इस बात की पुष्टि भी की है।
  • गठबंधन का यह कहना कि यह ‘इस्लाम के लिए लड़ाई’ है, सरासर गलत है। वैश्विक आतंकवाद के डाटा के अनुसार 2001 से लेकर अब तक होने वाले आतंकी हमले, अधिकतर मुस्लिम देशों या मुस्लिम बहुल देशों में हुए हैं। चौंकाने वाली बात यह भी है कि इस्लामी संगठनों द्वारा मस्जिदों पर किए गए 20 हमलों में से 18 हमले मस्जिदों पर किए गए हैं।

यह देखते हुए ऐसा लगता है कि इस्लामी आतंकियों की आड़ में, संपूर्ण विश्व में फैले इस्लामी समूहों ने ही, ‘वॉर ऑन टेरर’ नाम की अवधारणा चलाई है, और ये अन्य धर्मों के चरमपंथियों द्वारा संचालित होकर आतंकी हमले कर रहा है। 2011 में नॉर्वे के उतोया और इस वर्ष न्यूजीलैण्ड की मस्जिद पर हुआ हमला इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।

  • आतंकवाद के विरुद्ध खड़े देशों को इस समस्या की जड़ तक पहुँचने के लिए अलग-अलग देशों में उनकी अलग-अलग स्थितियों से सीखना चाहिए।

यू.के., फ्रांस और बेल्जियम जैसे यूरोपीय देशों में अनेक मुस्लिम शरणार्थी और प्रवासी ऐसे हैं, जो आई एस में भर्ती हुए हैं, जबकि भारत की मुस्लिम जनता यहाँ वर्षों से रह रही है। भारतीय अधिकारियों की मानें, तो इनमें से कुछ ही आई एस में शामिल होने गए थे। इनके वापस आने पर इन्हें कट्टरपंथी विचारधारा से ऊबार लिया गया है, क्योंकि अधिकारियों ने उन लोगों के परिवारों, आस-पड़ोस और मौलवियों को सूचीबद्ध कर लिया था। इन सबकी मदद से आतंकी बने युवाओं को पटरी पर लाया गया। बांग्लादेश ने भी 2016 के हमले के बाद परिवारों की भूमिका को बढ़ाने में जोर लगाया। इससे आतंकी बने युवाओं के लौटने की उम्मीद इस आधार पर रहती है कि उन्हें अभी भी समाज का हिस्सा मानकर स्वीकार कर लिया जाएगा।

यूरोपीय देश ठीक इसके विपरीत कर रहे हैं। वे आतंकी बने युवाओं और उनके परिवारों को बहिष्कृत कर रहे हैं। मध्य एशियाई देश तो हिजाब और दाढ़ी पर प्रतिबंध लगाकर और भी कठोर कदम उठा रहे हैं।

  • आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में विश्व समुदाय को अपने मतभेदों को दूर करना होगा। 20 वर्षों से लगातार संयुक्त राष्ट्र जैसे मंच पर भी विश्व के अनेक देश आतंकवाद की किसी एक परिभाषा पर एकमत नहीं हो सके हैं। इसी के कारण अभी तक आतंकवाद पर एक व्यापक सम्मेलन करने का भारत का प्रस्ताव अधर में लटका हुआ है। जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर ने कई वर्षों तक भारत पर आतंकी हमले करवाए। इसके बावजूद चीन ने भारत पर उसके हमलों का जिक्र हटाने के बाद ही उसे वैश्विक आतंकी घोषित करने दिया। अमेरिका से भी पूछा जाना चाहिए कि वह ईरान को आतंकियों को विश्व का सबसे बड़ा प्रायोजक घोषित करने में क्यों लगा हुआ है, जबकि सऊदी अरब और पाकिस्तान खुलेआम आतंकियों का वित्त पोषण करते रहे, और उन्हें शरण देते रहे। लेकिन अमेरिका इन्हें अभी भी अपने मित्र राष्ट्रों की सूची में अग्रिम स्थान क्यों देता है? अमेरिका, यू.के., कनाड़ा और न्यूजीलैण्ड से भी पूछा जाना चाहिए कि विश्व स्तर पर खुफिया सूचनाओं को साझा करने के बाद भी ये देश श्रीलंका पर मंडरा रहे खतरे का अनुमान क्यों नहीं लगा पाए?

जब तक विश्व इस मामले पर एकजुट नहीं हो जाता, और आतंक फैलाने वालों को धर्म, जाति, समुदाय और लाभ से परे मानव-सभ्यता के दुश्मन की तरह नहीं देखता, तब तक आतंकी मजबूत होते जाएंगे और आतंकवाद पैर पसारता ही चला जाएगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित सुहासिनी हैदर के लेख पर आधारित। 13 मई, 2019

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