दंगों के पीछे की मानसिकता

Afeias
20 Mar 2020
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Date:20-03-20

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भारत जैसे धर्म की प्रमुखता वाले देशों में एक हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और जैन के रूप में हमारी धार्मिक पहचान, हमारे जीवन के विभिन्न सोपानों में हमारे विचारों, मनोभावों और व्यवहार पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालती है। किसी बच्चे की धार्मिक पंथ से पहचान, उसके माता-पिता और परिवार द्वारा ही कराई जाती है। अवधारणा के स्तर पर ऐसा कहा भी जाता है कि ‘एक बच्चे का अपना कोई अतीत नहीं होता। उसके माता-पिता उसे अपना दे देते हैं।’

बच्चे के मन में किसी धार्मिक समुदाय की छवि उन कथाओं के माध्यम से बनती है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाई जाती है। ये कथाएं प्रायः सभी युगों के अनुष्ठानों और सांप्रदायिक सम्मेलनों के साथ परंपरागत रूप से आती हैं। ये मानस में धार्मिक पहचान को गहरा कर देती हैं। बढ़ता हुआ बच्चा, अपने परिवार के भावनात्मक निवेशों और धार्मिक समुदायों के प्रतीकों और परंपराओं में बड़ों से प्यार करता है। वह समुदाय के इन आदर्शों को अपने जीवन में शामिल करता है, जिन्होंने उसे यहाँ तक पहुँचाने में सहायता की है। वह ऐसा मानकर चलता है कि आगे भी वे उसके अस्तित्व के निर्माण में और आत्मसम्मान की वृद्धि में सहायक होते रहेंगे।

धार्मिक समूह की पहचान का एक स्याह पक्ष भी है, जिसके बारे में हम जागरूक नहीं रहते। यह बढ़ते बच्चे के मानस में साथ-साथ जन्म लेकर बढ़ता जाता है, और जीवन भर उसकी छाया बना रहता है। भारत में हम इसे ही ‘सांप्रदायिक पहचान’ कहते हैं। इसमें असहिष्णुता और हिंसा की संभावना बनी रहती है। यह स्याह, सांप्रदायिक पहचान उस वक्त सामने आ जाती है, जब धार्मिक गुट आमने-सामने आ खड़े होते हैं। यह खतरा इस प्रकार से प्रक्षेपित किया जाता है कि वास्तविक घटना तो गौण हो जाती है, और धार्मिक समुदाय के लोग हिन्दू और मुस्लिम जैसे शब्दों और कार्यों में उलझ जाते हैं। इस प्रकार धार्मिक पहचान रखने वाले प्रत्येक समूह के सदस्य अपनी पहचान को बचाए रखने के लिए उठ खड़े होते हैं। बस, फिर मिथ्या खतरों का एक सिलसिला सा शुरू हो जाता है, और दोनों धार्मिक समूहों के बीच तनाव बढ़ता जाता है।

किसी की आस्था और धार्मिक पहचान के संबंध में उदासीनता रखना, हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है। इसमें हलचल तब उत्पन्न होती है, जब किसी समूह की धार्मिक पहचान को खतरा समझा जाने लगता है। फिर भी हिंसा नहीं पनपती। हिंसा के पनपने के लिए खतरे को काफी व्यापक रूप देने की जरूरत पड़ती है। इस आग को तब हवा मिलती है, जब धार्मिक-राजनीतिक दलों या समूहों के प्रति निष्ठा रखने वाले प्रजानायकों का आगमन होता है।

एक ओर तो वे दुश्मन की ताकत से समुदाय के उत्पीड़न की चिंता का दिखावा करते हैं, तो दूसरी ओर वे समुदाय की महिमा का गुणगान करते हुए उसके अहंकार को जगाते हैं, और दुश्मन समूह का उपहास करते हैं। अब स्थिति यह हो जाती है कि प्रजातांत्रिक वास्तविकता को भुलाकर दोनों ही समूह स्वयं को दूसरे समूह की आसन्न हिंसा के संभावित लक्ष्य के रूप में अनुभव करने लगते हैं।

हमें धार्मिक खतरों, और इसके स्याह पक्ष यानि सांप्रदायिक पहचान से अवगत होने की जरूरत है। हम में से प्रत्येक के कई पहचान हैं, जैसे-परिवार, क्षेत्र, व्यवसाय, भाषा, राष्ट्र इत्यादि। धर्म के शामिल होने से संघर्ष में हिंसा बढ़ जाती है और फिर समूह की पहचान के अन्य चिह्नों की तुलना में धार्मिक आवेग एक गहरा कारण बन जाता है।

दरअसल, संघर्ष के धार्मिक औचित्य में मौलिक मूल्य शामिल हैं, और ये हमारे कुछ उग्र जुनून का निस्तार करते हैं।

हिंसा का अपराधी जब तक अपनी धार्मिक प्रतिबद्धता को बनाए रखता है, तब तक वह शायद ही कभी अपने अपराध के लिए शर्म प्रदर्शित करता है। दंगों में हिंसा के अपराधियों को, सामान्य समय में उपेक्षित सा माना जाता है, जिन्हें कथित तौर पर गुण्डा या असामाजिक तत्व कहा जाता है। हिंसा के दौरान इन्हें ही समुदाय के रक्षक के रूप में देखा जाता है।

दुनिया भर में समय-समय पर हुए दंगों के अध्ययन से यह जाना जा सकता है कि इनकी रोकथाम के लिए पहली घटना के तुरंत बाद ही पुलिस बल की प्रभावी तैनाती महत्वपूर्ण है। जहाँ यह शक्ति कमजोर होती है, वहाँ नियंत्रण के प्रयास विफल हो जाते हैं। हिंसा की अग्नि फिर इतनी विकराल होती है कि इसे भड़काने वाले स्वयं भी इसे रोक नहीं पाते हैं।

दीर्घावधि में, हमें अपने बच्चों के लिए बड़े पैमाने पर ऐसे शैक्षिक प्रयास करने की आवश्यकता है, जो खुले तौर पर हमारी धार्मिक पहचान के स्याह पक्ष के मुद्दे को संबोधित करें। यह तभी नष्ट हो सकता है, जब इसके माध्यम से फूट और भेदभाव की राजनीति करने वाले नेताओं का तिरस्कार किया जाए। इससे निपटने के लिए जो शिक्षा दी जानी है, वह केवल सूचना के प्रावधान तक सीमित नहीं रहनी चाहिए। उसमें मानस की गहराई तक पहुँचने के लिए कला-संगीत, दृश्य और श्रव्य, सभी संसाधनों का उपयोग किया जाना चाहिए।

इस प्रकार के उपायों के अभाव में गांधीजी का 1924 का निदान हमें भविष्य के पथ के लिए मार्ग दिखाता रहेगा। उन्होंने कहा था कि, ‘मैं इस पीड़ित देश में हिन्दू और मुसलमानों की हृदयगत एकता के बगैर कुछ भी हासिल करने का कोई रास्ता नहीं देखता हूं। इससे अधिक महत्वपूर्ण और दबाव डालने वाला कोई प्रश्न नहीं हो सकता। मेरे विचार में, यह सभी प्रकार की प्रगति को अवरूद्ध करता है।’

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सुधीर कक्कड़ के लेख पर आधारित। 4 मार्च, 2020

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