वृद्ध जनसंख्या को प्राथमिकता देते हुए स्वास्थ नीति बनाएं
To Download Click Here.
किसी भी देश के लिए अगर युवा वर्ग को लाभांश की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, तो वहीं वृद्ध जनसंख्या को भी अनुभवी और जानकार लोगों के विशाल संसाधन की तरह समझा जाना चाहिए। उन्हें आश्रित के बजाय समाज के उत्पादक सदस्यों में परिवर्तित करने के लिए स्वास्थ्य और उनकी क्षमताओं को यथावत बनाए रखना, दो प्राथमिक कारकों पर निर्भर करता है। भारत की वृद्ध जनसंख्या से जुड़े कुछ ध्यान रखने योग्य तथ्य –
- 1970-75 की तुलना में जीवन प्रत्याशा, 50 वर्ष से बढकर 2014-18 में 70 वर्ष हो गई है।
- देश में बुजुर्गों की संख्या 13.7 करोड़ है, जिसके 2031 तक 19.5 करोड़ हो जाने का अनुमान है।
- भारत के पहले लॉन्गीदयूडनल एजिंग स्टडी के अनुसार देश् के 11% बुजुर्ग चलने, दृश्य और श्रव्य या मानसिक विकार में से कम-से-कम एक से पीड़ित हैं।
- हमारे वृद्धों को स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच की उत्तम सुविधा की आवश्यकता है। एक ऐसा स्वास्थ तंत्र हो, जो वहनीय और देखभाल से भी जुड़ा हो।
2016 के हैल्थकेयर एक्सेस एण्ड क्वालिटी इंडेक्स या एचएक्यू के अनुसार 2016 में इसे हमने 41.2 तक बढ़ा लिया है, परंतु वैश्विक औसत से हम काफी पीछे है।
कारण क्या हैं ?
- छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में बुनियादी गुणवत्ता वाली स्वास्थ सेवाएं अपर्याप्त हैं।
- पारिवारिक उपेक्षा, शिक्षा स्तर निम्न होना, सामाजिक-सांस्कृतिक विश्वास एवं संस्थागत स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं पर कम विश्वास और खर्च करने के सामर्थ्य में कमी से स्थिति बिगड़ जाती है।
- शारीरिक रूप से कमजोर हो चुके वृद्धों के लिए स्वास्थ्य खर्च बड़ी समस्या है। उपेक्षित जीवन उन्हें मानसिक और भावनात्मक समस्याओं से घेर लेता है। देश के लगभग 40 करोड़ लोगों के पास स्वास्थ्य पर खर्च को वहन करने की क्षमता नहीं है।
समाधान –
- सरकार की ओर से आयुष्मान भारत और स्वास्थ्य बीमा योजना का विस्तार होना चाहिए।
- वृद्धावस्था पेंशन योजना की राशि बढ़ाई जानी चाहिए।
- प्रत्येक जिला अस्पताल में वृद्धों की देखभाल की उचित व्यवस्था के लिए बने 2007 के कानून का अनुपालन सही तरीके से किया जाए।
- नेशनल प्रोग्राम फॉर हैल्थ केयर ऑफ द एल्डरली के कार्यान्वयन में तेजी लाई जानी चाहिए।
जनसांख्यिकीय प्रवृत्तियों को ध्यान में रखते हुए, भारत को अपनी स्वास्थ देखभाल नीति में बुजुर्गों को प्राथमिकता देने वाले दृष्टिकोण के साथ फिर से विचार करना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित किरण कार्निक के लेख पर आधारित। 27 दिसम्बर, 2021