विश्वविद्यालय की अवधारणा कैसी हो ?
Date:27-07-21 To Download Click Here.
वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में संस्थानों की रैंकिंग का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। उच्च शिक्षा संस्थानों के संदर्भ में भी ऐसा चलन बहुत मायने रखता है। लेकिन उत्कृष्टता के पैमाने के रूप में रैंकिंग का देखा जाना कितना उचित कहा जा सकता है ?
विश्वविद्यालय की अवधारणा –
प्राचीन काल में नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की तुलना में आधुनिक युगीन विश्वविद्यालय की अवधारणा में एक आदर्श बदलाव आया है। अपनी 1852 की पुस्तक “द आइडिया ऑफ ए यूनिवर्सिटी” में जॉन हेनरी न्यूमैन ने माना कि ज्ञान को ‘स्वयं के लिए’ अपनाना चाहिए। उन्होंने लिखा है – “एक विश्वविद्यालय अपने सार में, व्यक्तिगत समागम के माध्यम से, विचारों के संचार और प्रसार के लिए एक स्थान प्रतीत होता है।’’
एशिया के विल्हेम वॉन हंबोल्ट के सुधारों के माध्यम से विश्वविद्यालय के विचार को आकार दिया गया था। इसके पश्चात् जब वर्ष 1810 में बर्लिन विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, तब वहाँ का हंबोल्टियन विश्वविद्यालय यूरोप के लिए और बाद में अमेरिका के अनुसंधान विश्वविद्यालयों के लिए एक मॉडल बन गया। इस विश्वविद्यालय का केंद्रीय सिद्धांत, शिक्षण का संलयन और व्यक्तिगत विद्वता के आधार पर अनुसंधान को बढावा देना था। विश्वविद्यालय का उद्देश्य, अतीत की विरासत को प्रसारित करने या कौशल सिखाने से ऊपर उठकर मूल और आलोचनात्मक खोज द्वारा उन्नत ज्ञान का प्रसार करना था।
भारत में कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास विश्वविद्यालय की स्थापना 1857 में हुई थी। औपनिवेशिक शासन के मद्देनजर नए वेतनभोगी पदों को भरने के लिए स्नातकों को तैयार करने की जरूरत थी। कहने को तो इन विश्वविद्यालयों के आदर्श वाक्य ‘ज्ञान की उन्नति’ जैसे हुआ करते थे, लेकिन वास्तविक उद्देश्य क्लर्क पैदा करना ही था। 1919 में टैगोर ने कहा था – “हमारे विश्वविद्यालय का प्राथमिक कार्य ज्ञान की रचनात्मकता होना चाहिए।”
वर्तमान में, विश्वविद्यालयों की रैकिंग के लिए कई प्रदर्शन संबंधी मानदंडों पर आधारित अंकों के औसत पर विचार किया जाता है। मानदंड और उनका वजन रैंकिंग में आए संगठनों के बीच एक-दूसरे से भिन्न हो सकते हैं। इस प्रकार की भिन्नता से एक अलग सूची भी तैयार की जा सकती है। यही कारण है कि मानदंडों की इस दौड़ में छोटे लेकिन महत्वपूर्ण संस्थान पीछे रह जाते हैं।
रैंकिंग पद्धति का सबसे विवादास्पद हिस्सा, प्रतिष्ठित सर्वेक्षण या अकादमिक सहकर्मी समीक्षा हो सकता है, जहां शिक्षाविदों की राय को महत्व मिलता है। इस प्रक्रिया की अपारदर्शिता के आधार पर गत वर्ष देश के सात आई आई टी ने रैंकिंग का बहिष्कार किया था।
रैंक बढ़ाने के लिए शोधपत्रों का प्रकाशन महत्वपूर्ण है। शिक्षाविदों से अपेक्षा की जाती है कि वे पत्र प्रकाशित करते रहें। कोई भी संस्थान हमेशा अपने संकाय से वर्ष में एक या दो बार हाल में प्रकाशित पत्रों की सूची मांगता है। लेकिन सवाल यह है कि इसे शोध की गुणवत्ता का पैमाना कैसे माना जा सकता है। 2013 में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित पीटर हिग्स का मानना है कि आज की शैक्षणिक प्रणाली में उन्हें नौकरी नहीं मिल सकती, क्योंकि वे इसके लिए पर्याप्त ‘उत्पादक’ नहीं हैं। आज के ज्यादातर शिक्षाविद् ऐसे अनिवार्य शोध और प्रकाशन की दुनिया में केवल अस्तित्व बचाए रखने तक ही सीमित हैं।
विश्वविद्यालय की अवधारणा हर जगह एक जैसी नहीं होनी चाहिए। शिकागो, हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय अपने छात्रों और प्रोफेसरों की उपलब्धियों को उत्कृष्टता का पैमाना बना सकते हैं। ऐसे भी विश्वविद्यालय हैं, जो उच्च शिक्षा के दृष्टा और ज्ञानोदय के प्रिज्म बनकर स्थानीय लोगों की ही आवश्यकताएं पूरी करते हैं। इससे इनकी महत्ता कम नहीं हो जाती है।
एक विश्वविद्यालय को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य में आंका जाना चाहिए। बदलते सामाजिक परिप्रेक्ष्य और आवश्यकता के ढांचे के भीतर एक विश्वविद्यालय के विचार को समय-समय पर परिभाषित किया जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित अतानु विश्वास के लेख पर आधारित। 30 जून, 2021