विज्ञान को बहुआयामी दृष्टिकोण से देखने की जरूरत

Afeias
10 Jun 2021
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Date:10-06-21

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उद्योगपति और समाजसेवी अजीम प्रेमजी ने हाल ही में एक मंच से महामारी से लड़ाई के लिए ‘अच्छे विज्ञान’ और ‘सच्चाई’ को आवश्यक बताया है। वर्तमान समय में अच्छे या उन्नत विज्ञान के लिए किया जाने वाला यह आह्वान केवल अंधविश्वास और रूढिवाद को ही नहीं, बल्कि विज्ञान की एक संकीर्ण, एकआयामी परिभाषा को भी चुनौती देता है।

यदि हम विज्ञान की सबसे प्रारंभिक परिभाषा पर टिके रहते हैं, तो यह भौतिक संसार और प्राकृतिक नियमों का अध्ययन और ज्ञान मात्र है। सहस्राब्दियों से इसे विविध ज्ञान प्रणालियों द्वारा प्राप्त किया जाता रहा है। समस्या तब उत्पन्न होती है, जब ज्ञान की किसी भी प्रणाली में चिकित्सक, कोविड-19 जैसे नए और घातक रोगजनक से लड़ने के बारे में व्यापक या निराधार दावे करते हैं। सोशल मीडिया मंच इस प्रकार के असंख्य दावों से भरे पड़े हैं। हम यानि आम जनता कैसे तय करे कि इनमें से कौन सी प्रणाली सही है या गलत ? हम कैसे समझें कि किस प्रणाली को आधुनिक विज्ञान स्वीकार करता है, और किसे नहीं ? अंधविश्वास, झूठ और अज्ञानता के दलदल में से अच्छे विज्ञान को निकालने के लिए हम कितने खुले विचार रखते हैं ? ये वस्तुतः हमेशा से ही जीवन-मृत्यु से जुड़े प्रश्न रहे हैं, जो इस महामारी के आने से बहुत पहले ही पूछे जाने थे।

महाराष्ट्र में ‘अंधश्रद्धा उन्मूलन समिति’ चलाने वाले एक कार्यकर्ता की इसलिए हत्या कर दी गई थी, क्योंकि वह भय और आशंकाग्रस्त लोगों के जीवन में अंधविश्वास का जहर घोलने वालों का पर्दाफाश करना चाहता था।

हिंदुत्व का ढोल बजाने वाले बहुत से जनसामान्य के बीच आज की स्थिति बदली नहीं है। इस्लाम में भी अंधश्रृद्धा पर प्रश्न उठाने वालों का हश्र बुरा ही होता है।

इस प्रकार के मामलों में पश्चिम और पश्चिमी विज्ञान ही दुश्मन होता है। यहाँ तक कि गांधीजी को भी इस विवाद में एक बार गलत तरीके से फंसाया गया था। उनसे सवाल किया गया था, “आप आधुनिक सभ्यता के बारे में क्या सोचते हैं ?” गांधीजी ने अपने दृढ़ विश्वास के आधार पर कहा था कि वे आधुनिक युग को ‘सभ्यता’ नहीं मानते हैं, क्योंकि इसने विज्ञान, राजनीति और वाणिज्य के किसी भी उच्च नैतिक उद्देश्य की पूर्ति में मदद नहीं की है।

यह आधुनिकता ही है, जो ज्ञान के उन रूपों की उपेक्षा या दमन करती है, जिनका प्रयोगशाला में परीक्षण नहीं किया जा सकता है। तीन सौ साल पहले तक यह केवल यूरोप तक सीमित था। इसके बाद, उपनिवेशवाद और संज्ञानात्मक साम्राज्यवाद ने इसे वैश्विक रूढ़िवाद बना दिया। इस रूढिवादिता के तहत, गंगा में निश्चित तिथि और समय पर डुबकी लगाने वाले साधुओं को आदिम अतीत के अवशेष के रूप में देखा जाता है। आधुनिक ज्ञान के प्रति उत्सुक ऐसे लोगों को,  जो खगोलीय गणनाओं के आधार पर कुंभ मेलों में भी रूचि लेते हैं, उन्हें किनारे कर दिया जाता है। उन्हें नए जमाने के हिप्पी से ज्यादा और कुछ नहीं समझा जाता।

इसके कारण विभिन्न ज्ञान के स्रोतों और प्रणालियों के बीच खींचा तानी चलती रहती है।

बहुआयामी तरीके से ‘अच्छे विज्ञान’ की पहचान करना, एक महत्वपूर्ण समकालीन कार्य है। इस कार्य की प्रगति से हमारे समय के बेहतरीन मस्तिष्क लगे हुए हैं। उनका कार्य, उस व्यावहारिकता का प्रतीक है, जिसके अंतर्गत लाखों हिंदू मंदिर जाकर देवता की परिक्रमा करते हैं।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित रजनी बक्शी के लेख पर आधारित। 17 मई, 2021

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