संसद अपनी भूमिका संपन्न करे

Afeias
31 Aug 2021
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Date:31-08-21

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हाल ही में समाप्त हुआ संसद का मानसून सत्र कई मायनों में निराशाजनक रहा। शीतकालीन सत्र 2020 को रद्द किए जाने के अलावा यह लगातार चौथा सत्र था, जो अपने मूल कार्यक्रम से पहले ही समाप्त हुआ। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि कोविड-19 की प्रतिक्रिया और रणनीति, लद्दाख में चीनी घुसपैठ, आर्थिक स्थिति तथा किसानों की समस्याओं आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर संसद में चर्चा नहीं की गई।

संसद की कार्यवधि का कम होना –

पूरे मानसून सत्र में संसद मुश्किल से चली। सरकार और विपक्षी दल के बहस के विषयों पर सहमत नहीं होने से दोनों सदनों के कामकाज को बाधित किया जाता रहा। लोकसभा ने अपने निर्धारित घंटों में से मात्र 19% और राज्यसभा ने 26% काम किया।

जांच का अभाव –

सरकार ने इस सत्र में 20 विधेयक पारित किए। लोकसभा द्वारा पारित 18 विधेयकों में से केवल एक पर 15 मिनट बहस की गई। राज्यसभा में भी लगभग यही स्थिति रही।

सत्र के दौरान ही विधेयकों के पारित होने का अर्थ है कि किसी भी विधेयक को जांच-पड़ताल के लिए संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया। ज्ञातव्य हो कि इस प्रकार की समिति से अनेक हितधारक, विशेषज्ञ और सरकारी अधिकारी जुड़े होते हैं, जो विधेयक के कानून बनने से पहले बारीकी से प्रत्येक बिंदु की जांच करते हैं, पक्ष-विपक्ष पर विचार करते हैं, उसके प्रभावों की समालोचना करते हैं। तत्पश्चात् आवश्यकता होने पर वे संशोधन की मांग करते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में विधेयकों को जल्दबाजी में पारित किए जाने पर उच्चतम न्यायालय ने भी चिंता व्यक्त की है। विधेयक का कानूनी बारीकियों पर खरा न उतरने का नतीजा यह होता है कि अदालतों में मामले बढ़ते जाते हैं। अतः संसद से पारित किसी भी कानून में स्पष्टता का होना बहुत जरूरी है।

दिवालिया कानून व मोटर वाहन (संशोधन) कानून कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जिन्हें संसदीय समिति की सिफारशों पर संशोधित करके अनेक सुधारों के साथ खरा बनाया गया था।

सांसदों की अनुपस्थिति की समस्या –

सत्र के दौरान ट्रिब्यूनल रिफॉर्म बिल को समिति के पास भेजने हेतु राज्य सभा में मतदान किया गया, जिसमें 79 विपक्ष व 44 मत पक्ष में थे। राज्यसभा के कुल 232 सदस्यों में से 123 का ही उपस्थित रहना प्रक्रिया को कमजोर बनाता है।

कुल मिलाकर, संसद अपने सभी कार्यों में अप्रभावी कही जा सकती है। कार्यकारिणी से अलग विधायिका के अस्तित्व का अर्थ था कि वह कार्यपालिका के कार्यों पर नियंत्रण रख सके। परंतु वर्तमान में यह संभव होता दिखाई नहीं देता। संसद की कार्यपद्धति की कमियों पर एक संक्षिप्त नजर –

  • सत्र में सरकार ने प्रत्येक विधेयक को बिना चर्चा, वाद-विवाद के अधिनियम बनाने में सफलता पाई।
  • विधेयकों को संसदीय समिति के पास नहीं भेजा गया।
  • प्रश्नकाल शायद ही कभी चला।
  • नीति-निर्धारण पर राज्य सभा में, केवल एक विषय पर चर्चा हुई। लोकसभा में इतना भी नहीं हुआ।
  • 10 मिनट से भी कम समय में एक बड़ा अनुपूरक बजट पारित कर दिया गया। इस पर एक भी सदस्य ने कुछ नहीं कहा।

अगले वर्ष संसद की 70वीं वर्षगांठ होगी। संसद को एक बड़े भवन में ले जाने की योजना है। इस अवसर का जश्न मनाते हुए कई भाषण दिए जाएंगे। लेकिन जब तक सांसद एकजुट होकर अपनी ड्यूटी नहीं करते, तब तक नए भवन में खाली शब्द ही गूंजेंगे ।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित एम. आर. माधवन के लेख पर आधारित। 13 अगस्त, 2021

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