आत्म-निरीक्षण करे संसद

Afeias
24 Feb 2021
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Date:24-02-21

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हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने सरकार द्वारा पारित कृषि कानूनों को एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया है। न्यायालय के इस आदेश ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच के विभाजन को समाप्त कर दिया है। न्यायालय का यह आदेश संसद के लिए भी आत्म निरीक्षण का संदेश लेकर आया है। 2019 के बाद से, इसके द्वारा पारित कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती दी जा रही है। अनुच्छेद 370 को रद्द करने और कृषि कानूनों पर मिली इस चुनौती ने संसद को स्वयं से यह सवाल करने पर मजबूर कर दिया है कि वह विधेयकों की संवैधानिकता की जांच सख्ती से करता है या नहीं। यह जांचने के लिए संसद के पास तीन तंत्र हैं –

  • संसद का कोई भी सदस्य, संसद की विधायी क्षमता के बाहर कानून बनाने की बात कहते हुए विधेयक पेश करने का विरोध कर सकता है।

बहस सीमित होती है। और जिस सदन में विधेयक प्रस्तुत किया जाता है, वह संवैधानिक बारीकियों में नहीं उलझता।

लोकसभा और राज्यसभा में बहस करते हुए किसी विधेयक की संवैधानिकता पर चर्चा के लिए सांसदों को अवसर मिलता है। परंतु इन दोनों अवसरों पर तर्क से विधायी परिणाम का निर्धारण नहीं किया जाता है। संसद का निर्णय सदन के पटल पर रखे गए पक्ष और विपक्ष की संख्या पर निर्भर करता है। जब सरकार के पास बहुमत होता है , तो उसे प्रस्तावों को पारित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।

  • दूसरा अवसर तब मिलता है, जब कोई संसदीय समिति विधेयक की जांच कर रही होती है। उदाहरण के लिए , भूमि अधिग्रहण कानून 2011 की जांच समिति राज्य सरकारों की शक्ति का उल्लंघन करने वाले कानून को लेकर चिंतित थी। इसी प्रकार 2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक पर विचार-विमर्श के दौरान संयुक्त समिति ने सरकार से स्पष्ट रूप से पूछा था कि क्या विधेयक संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 की भावना का उल्लंघन करेगा। इन दोनों ही अवसरों पर कानून मंत्रालय ने आश्वासन दिया था कि सरकार का प्रस्ताव संवैधानिक जांच के लिए तैयार है।

समिति की जांच प्रक्रिया में कानून मंत्रालय से बाहर जाने का भी अवसर दिया जाता है।

इस प्रक्रिया में एक बहुत बड़ी कमी है। सरकारी विधेयकों को समिति के पास भेजने के लिए मंत्री को विकल्प दिया जाता है। इसका लाभ उठाते हुए कई बार मंत्री इसे संबद्ध विभाग की समिति के लिए जांच के पास नहीं भेजते हैं। कृषि कानूनों में भी सरकार ने यही रवैया अपनाया है।

स्वीडन और फिनलैण्ड जैसे देशों में दो संसदीय समितियों की जांच के बाद विधेयक को पारित किया जाता है।

  • संसद में विधेयक का प्रस्ताव लाने से पहले, सरकार इसे वैधानिक और अंतर-मंत्रालयी सुझावों के लिए भेजती है। फिर, विधायिका की जिम्मेदारी है कि वह कानून की संवैधानिकता से सबसे पहले खुद को संतुष्ट करे।

मजबूत जांच प्रक्रियाओं के अभाव से सरकार की छवि धूमिल होती है। इससे कानूनों को न्यायालय में चुनौती के लिए अवसर बढ़ जाते हैं। अतः कानून बनाने की प्रक्रिया को यांत्रिक नहीं बनाया जाना चाहिए। संसद द्वारा इसकी सावधानीपूर्वक परीक्षा होती चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित चक्षु रॉय के लेख पर आधारित। 10 फरवरी, 2021

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