विचारहीनता में जकड़ी विधायिका

Afeias
01 Sep 2021
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Date:01-09-21

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विधायिकाओं के घटते कामकाजी घंटों को लेकर हाल ही में सीजेआई एन वी रमन्ना ने टिप्पणी की है कि ‘जल्दबाजी में पारित किए गए कानून, न्यायपालिका के गले की फांस बन जाते हैं।’

  • विधानसभाओं का हाल यह है कि वहाँ विधायकों को प्रस्तावित कानून के विवरण पर बोलने की अनुमति नहीं दी जाती। सदन समितियों की जांच को आवश्यक नहीं समझा जाता।
  • नौकरशाहों द्वारा खराब तरीके से तैयार किए गए कानून, विधायकों की जांच से बचते हैं।
  • स्पष्टता की कमी के कारण इन कानूनों के अंतर्गत दायर मुकदमें लंबे समय तक चलते हैं।
  • एक शोध के अनुसार उत्तर प्रदेश, बंगाल और केरल में 2017 और 2019 के बीच सालाना औसतन 24,40 और 53 विधानसभा बैठकें, और 100, 122 व 306 कार्यात्मक घंटे दर्ज हैं।

उत्तर प्रदेश और बंगाल विधानसभा में क्रमशः 403 और 294 सदस्य हैं। ऐसे कम काम के घंटों का मतलब है कि विधायकों की इच्छा होने के बावजूद, कानून में सुधार या विधायी बहस में भाग लेने के लिए उन्हें पर्याप्त समय ही नहीं दिया जाता है।

  • राज्य विधानसभाएं अत्यधिक परिणामवादी कानून पारित करती हैं। उदाहरण के लिए, अंतर-धार्मिक विवाह पर लव-जिहाद कानून ऐसा बनाया गया, जो किसी पूछताछ के अधीन ही नहीं है। परिणामतः हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट ने धर्म स्वतंत्रता संशोधन कानून की कुछ धाराओं पर अंतरिम रोक लगा दी है। इसका सीधा मतलब है कि सिर्फ अंतरधार्मिक विवाह के आधार पर इस कानून के तहत एफआईआर दर्ज करना असंवैधानिक ही माना जाएगा।
  • विधायी बहस के अवमूल्यन की जड़ में 1985 का दलबदल विरोधी कानून है, जो सांसदों और विधायकों को पार्टी व्हिप का पालन करने की मांग करता है।

कानून का उद्देश्य विधायकों की खरीद-फरोख्त को रोकना था। परंतु इसने उनके मुँह पर ताला लगा दिया है। सत्ताधारी दल के सांसद और विधायक, कार्यकरिणी द्वारा तैयार विधेयकों पर सवाल नहीं उठा सकते हैं।

अमेरिका और ब्रिटैन जैसे लोकतंत्र में स्थिति विपरीत है। वहाँ के विधायक या सांसद आसानी से कानूनों का विरोध करके उनमें परिवर्तन पर जोर दे सकते हैं।

विधायको की भूमिकाएं सार्थक होनी चाहिए। उन्हें ‘हाँ’ या ‘ना’ में सिर हिलाने वाली कठपुतली की तरह इस्तेमाल में नहीं लाया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि भारतीय राजनीति में विचारशील विद्रोह की संभावना बहुत कम है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 17 अगस्त, 2021

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