विधायिका के सदस्य को अयोग्य ठहराने से जुड़े कुछ संवैधानिक और कानूनी मुद्दे
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राहुल गांधी को सूरत की एक अदालत ने लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहरा दिया था। इसे लेकर न्यायिक समुदाय सकते में है। हालांकि यह कोई अंतिम फैसला नहीं था। इसके लिए अपीलीय न्यायालय है। लेकिन मुख्य मुद्दें से जुड़े कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
- जनप्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 8 विभिन्न अपराधों के लिए सजा का निर्धारण करती है। इसमें विधायिका के सदस्य की अयोग्यता का प्रावधान है। इसके खंड (3) में कहा गया है कि इसके अलावा दो खंडों में उल्लिखित अपराध के अलावा किसी अन्य अपराध के लिए दोषी व्यक्ति को दंड स्वरूप दो वर्ष या अधिक के लिए विधायिका से अयोग्य ठहराया जा सकता है।
- खंड (4) में वर्तमान सदस्य को अयोग्यता से तीन महीने की छूट मिलती है, जिसमें वह अपील कर सके। इस खंड को उच्चतम न्यायालय की पीठ ने यह कहकर अस्वीकृत किया था कि संसद को वर्तमान सदस्यों के लिए ऐसी कोई छूट देने का अधिकार नहीं है (लिलि थॉमस बनाम भारत संघ, 2013) इसके बाद सदस्य की अयोग्यता तत्काल प्रभाव से लागू मानी जाने लगी।
- न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया था कि अपीलीय न्यायालय में सदस्य की अयोग्यता पर रोक लगाए जाने की स्थिति में सदस्यता बहाल कर दी जाएगी।
राष्ट्रपति की भूमिका –
- जनप्रतिनिधि कानून की धारा 8(3) के अनुसार सदस्य को अयोग्य सिद्ध करने के बाद अनुच्छेद 101(3)(ए) के अंतर्गत उसकी सीट खाली हो जाती है। लेकिन इस 8(3) को ध्यान से पढ़ने पर पता चलता है कि सदस्य को अयोग्य ठहराया जा सकता है (शैल बी डिस्क्वालिफाइड) इसका अर्थ लगाया जा सकता है कि सदस्य को किसी प्राधिकारी (आथॉरिटी) द्वारा अयोग्य घोषित किया जाएगा। इस स्थिति में राष्ट्रपति ही वह आथॉरिटी हो सकता है।
- सदस्य को अचानक अयोग्य ठहराने से निर्वाचन क्षेत्र अपना प्रतिनिधि खो देता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए धारा 8(4) अधिनियमित की गई थी।
- राहुल गांधी की अयोग्यता का निर्णय लिलि थॉमस वाले निर्णय के आधार पर लिया गया था। लेकिन धारा 8(3) के अनुसार उन्हें किसी प्राधिकारी द्वारा अयोग्य ठहराए जाने का अंतिम निर्णय लिया जाना था। अतः लोकसभा सचिवालय उन्हें अयोग्य नहीं ठहरा सकता है।
विचारणीय मुद्दा –
- आपराधिक मानहानि पर कानून की तत्काल समीक्षा की जरूरत है। यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका ने तो इसे खत्म कर दिया है। श्रीलंका ने भी इसे हटा दिया है।
- 1965 में उच्चतम न्यायालय ने चुनावी भाषणों में नेताओं द्वारा उपयोग किए जाने वाले आलंकारिक, अतिशयोक्तिपूर्ण या रूपक शब्दों के प्रयोग पर न्याय व्यवस्था को उदार दृष्टिकोण दिखाने की अपील की थी। न्यायालय ने कहा था कि ष्माहौल आमतौर पर पक्षपातपूर्ण भावनाओं से भरा होता है। अतिशयोक्तिपूर्ण भाषा का उपयोग या एक दूसरे पर शाब्दिक हमले करना, इस खेल का हिस्सा है। (कुलतार सिंह बनाम मुख्तियार सिंह)
परिपक्व लोकतंत्रों के लोगों को बिना डर के हास्य का आनंद लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। बहुदलीय लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष के नेताओं की छिटाकशीं कोई नई बात नहीं है। इसके लिए किसी को लंबे समय तक चुनावी प्रक्रिया से दूर नहीं रखा जाना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित पीण्डीण्टीण् आचार्य के लेख पर आधारित। 27 मार्च, 2023
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