प्रतिष्ठा के प्रति संवेदनशीलता
Date:18-03-21 To Download Click Here.
कुछ समय पहले हुई सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे जुड़े उनकी महिला मित्र रिया चक्रवर्ती पर किए गए अनेक दोषारोपण ने अनेक अनुत्तरित सवाल खड़े किए हैं। क्या हमारे न्याय तंत्र और मीडिया को नागरिकों की साख की जरा भी फिक्र है ? क्या इस देश में लोगों की प्रतिष्ठा को जरा भी महत्व दिया जाता है ?
रिया चक्रवर्ती की गिरफ्तारी और फिर जमानत पर छूट जाने से शायद मीडिया ने कुछ लोकप्रियता कमा ली हो, और मामले से जुड़े लोगों के गुस्से को शांत कर दिया हो, लेकिन इसमें प्रवर्तन निदेशालय और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो जैसी व्यापक स्तर पर काम करने वाली संस्थाओं की संलिप्तता की कितनी आवश्यकता थी ? सीबीआई ने भी स्थानीय पुलिस की भूमिका से अलग क्या कर दिखाया ?
रिया पर की गई कारवाई कितनी आवश्यक और न्यायपूर्ण थी ? गिरफ्तारियां तभी की जानी चाहिए, जब अभियुक्त के फरार होने, और कानून की प्रक्रियाओं से बचने की संभावना हो ; या उससे किसी प्रकार के हिंसक व्यवहार की आशंका हो। गिरफ्तारी इसलिए नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि यह कानून प्रवर्तन अधिकारी के लिए उचित है। यकीनन, रिया की गिरफ्तारी इन मानदंडों में से किसी एक को भी पूरा नहीं करती थी।
चरित्र और प्रतिष्ठा एक खजाने की तरह होते हैं, जो कई सालों में निर्मित होते हैं, और किसी के बेवकूफी भरे काम से मिट्टी में मिल जाते हैं। यह एक अमूल्य संपत्ति है, जो भौतिक चीजों से बेजोड़ है। किसी की प्रतिष्ठा को खाक करने को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
टीआरपी की दौड़ में भागने वाली मीडिया इन सबकी परवाह नहीं करती है। इतना ही नहीं, किसी प्रकरण में समानांतर जांच और स्टिंग ऑपरेशन शुरू करने के अलावा, वह दर्शकों के लिए अपना फैसला भी सुना देती है। इन सबमें किसी की प्रतिष्ठा की भी उसे कोई चिंता नहीं है।
वास्तव में, स्वतंत्रता के अधिकार के अलावा, प्रत्येक नागरिक के पास ‘प्रतिष्ठा का अधिकार’ भी होता है। उसकी प्रतिष्ठा का एक वास्तविक अस्तित्व होता है, जो उसके अलावा भी उसका प्रतिनिधित्व करती है। किसी भी व्यक्ति के न केवल कार्यों बल्कि उसके कार्यों की धारणाओं के आधार पर भी लोगों के मन-मस्तिष्क में उसकी छवि की निर्मित होती है, जो पूरे जीवन पर्यंत चलती है। अच्छी प्रतिष्ठा से जीवन कल्याणकारी बन जाता है, जबकि इसके धूमिल होने से उसके रास्ते बंद होते जाते हैं।
ऐसे अमूल्य तत्व की रक्षा के लिए, क्या मीडिया पर लगाम नहीं लगायी जानी चाहिए। अगर कानून, दुष्कर्म के पीड़ितों और नाबालिक आरोपियों का नाम उजागर करने से मीडिया को रोक सकता है, तो किसी पर आरोप सिद्ध होने से पहले ही उसे दोषी सिद्ध कर देने वाली मीडिया के लिए कड़े नियमन क्यों लागू नहीं कर सकता ?
इस प्रयास में सरकार की निष्क्रियता या विफलता के बाद अब न्यायपालिका ने कदम बढ़ाया है। बॉम्बे उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच ने सुशांत सिंह मामले का संज्ञान लेते हुए कहा है कि, “अगर कोई व्यक्ति वाकई में निर्दोष है, तो मीडिया की अत्यधिक रिपोर्टिंग से उसकी प्रतिष्ठा पर आंच आ सकती है।’’
लोगों की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ को बंद करने हेतु एक सशक्त तंत्र की जरूरत है। हमारी संस्थाओं को भी संवेदनशीलता दिखानी चाहिए। मीडिया को उन लोगों से सावधान रहना चाहिए, जो सार्वजनिक सहानुभूति प्राप्त करके अपने खिलाफ कानूनी कार्रवाई से बचने के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित नीरज कुमार के लेख पर आधारित। 26 फरवरी, 2021