न्यायिक निर्णयो और टिप्पणियों में लैंगिक संवेदनशीलता की जरूरत

Afeias
06 Apr 2021
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Date:06-04-21

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2018 में थॉमसन रायटर के एक सर्वेक्षण में भारत को महिलाओं के लिए अत्यंत असुरक्षित देश बताया गया है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार यहाँ प्रतिदिन 88 बलात्कार होते हैं। प्रत्येक घंटे में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की संख्या 39 दर्ज की गई है।

लैंगिक असंवेदनशीलता का मामला

हाल ही में उच्चतम न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश ने बलात्कार के एक मामले में दोषी को पीड़िता से विवाह करने को कहा था, जिसकी बहुत आलोचना की गई थी। भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 165 के तहत भारत की न्यायपालिका के प्रमुख को निष्पक्ष होना चाहिए। दूसरे, न्यायाधीश ने इस मामले से जुड़ी संवेदनशीलता को महसूस करते हुए स्वयं के वक्तव्य में सुधार करते हुए कहा कि ‘हम आपको पीडिता से शादी करने के लिए मजबूर नहीं कर रहे हैं।’ चिंताजनक मुद्दा यह है कि कानूनी रूप से बलात्कार कोई क्षमायोग्य अपराध नहीं हैं, और इसमें समझौते जैसी स्थिति का कोई स्थान नहीं है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश से माफी मांगने की अपेक्षा नहीं की जा सकतीय हालांकि, दक्षिण अफ्रीका के मुख्य न्यायाधीश मोगेंग को हाल ही में एक वेबिनार में इजरायल समर्थक टिप्पणी करने के लिए बिना शर्त माफी मांगने का निर्देश दिया गया था।

वास्तविक समस्या यह है कि इस तरह के टालने योग्य बयान हमारे न्यायाधीशों की पितृसत्तात्मक मानसिकता का परिचय देते हैं। ये कथन हमारी लैंगिक असंवेदनशीलता को प्रदर्शित करते हैं। पहले भी कई भारतीय न्यायाधीशों द्वारा ऐसे कई आदेश और निर्णय दिएगये हैंए जिन्होंने लैंगिक न्याय को बहुत हानि पहुंचाई है।

मुख्य न्यायाधीश ने तो वैवाहिक बलात्कार को भी अपराध की श्रेणी में रखने पर संशय व्यक्त किया है। आर एस एस ने भी इसे अपराध की श्रेणी में रखने का विरोध किया है। दिलचस्प बात यह है कि न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा समिति (2013), जिसका गठन दिल्ली निर्भया कांड (2012) के बाद किया गया था, ने कहा था कि बलात्कार को एक महिला की शुद्धता या कौमार्य के उल्लंघन के रूप में नहीं, बल्कि उसकी शारीरिक अखंडता और यौन स्वायतता के उल्लंघन के रूप में देखा जाना चाहिए। इस स्वायतता को वैवाहिक जीवन में प्रवेश करके स्थायी रूप से खोया नहीं जा सकता। संबंधों से परे, बलात्कार अपराध ही रहेगा।

1995 के भंवरी देवी मामले को कैसे भुलाया जा सकता है। सामूहिक बलात्कार के इस मामले में राजस्थान न्यायालय ने विचित्र दलीलें देते हुए आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया था। 25 वर्षों के बाद भी मामला चलता चला आ रहा है। यहीं नहीं, 2010 के एक मामले में प्रसिद्ध न्यायाधीश एम.काटजू ने दूसरी हिंदू पत्नी को ‘रखैल’ बताते हुए उसे सहायता राशि की अधिकारिणी बताने से इंकार कर दिया था। सामान्यतः तो पत्नी को पति के परिवार के उत्तरदायित्व की समान उत्तराधिकारी माना जाता है, परंतु हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम में वह सम्पत्ति की समान उत्तराधिकारी नहीं है। न्यायालयों में भारतीय और हिंदू जातीय संस्कारों का मनमाने ढंग से हवाला दिया जाता है, जबकि मुस्लिम पसर्नल लॉ अलग है। सन् 2018 के हादिया मामले मे उच्चतम न्यायालय से उसे मिली सुरक्षा के बाद एक उम्मीद जन्मी है कि अब हमारे न्यायाधीश, अपने निर्णयों में शायद लैंगिक संवेदनशीलता का ध्यान रखेंगे। अपने अंतिम निर्णय में उसका पालन न भी कर सकें, तो कम से कम मौखिक टिप्पणियों और प्रश्नों में तो इसका ध्यान अवश्य ही रखेंगे।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित फैजान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 10 मार्च 2021

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