राष्ट्रगान के सम्मान को लेकर न्यायिक तानाशाही

Afeias
16 Dec 2016
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1_1476873841Date: 16-12-16

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किसी देश में दी जाने वाली स्वतंत्रता और उस देश की सहिष्णुता का पता इस बात से लगता है कि वह देश घृणित समझे जाने वाले विचारों को भी किस प्रकार से स्वीकारता है। सन् 1986 में भारत ने बिजोय एमानुअल बनाम केरल राज्य के फैसले में कुछ ऐसी ही स्वीकारोक्ति का प्रदर्शन  किया था। तत्कालीन न्यायाधीश चिनप्पा रेड्डी ने कहा था कि ‘हमारी संस्कृति हमें सहिष्णुता सिखाती है, हमारा दर्शन सहिष्णुता का बखान करता है, हमारा संविधान सहिष्णुता की वकालत करता है, तो हमें भी उसमें तरलता आने देनी चाहिए।’’

हाल ही में राष्ट्रगान को सिनेमा घरों में बजाए जाने और उसके सम्मान में सभी दर्शकों को खड़े होने की बाध्यता को लेकर दिया गया उच्चतम न्यायालय का आदेश हमारी सहिष्णुता के दर्शन के विरुद्ध लगता है।

इसमें कोई शक नहीं कि ऐसा आदेश देने वाली बेंच का मंतव्य अच्छा रहा होगा। लेकिन नागरिकों के मौलिक कत्र्तव्यों के संबंध में यह आदेश देकर बेंच ने एमानुअल मामले से भिन्नता दिखाई है। इस आदेश में कोर्ट ने मौलिक कत्र्तव्यों की बात करने वाले संविधान के अनुच्छेद 51(क) का हवाला दिया है, जिसके अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और इसके आदर्शों और संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। न्यायालय का आदेश कई मायनों में उचित नहीं लगता।

  • सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजने पर खड़े होकर देश के प्रति सम्मान दिखाने के तरीके के अलावा भी और बहुत से रास्ते हैं, जिनके माध्यम से हम राष्ट्र सम्मान दिखा सकते हैं। हो सकता है कि सिनेमाघर में राष्ट्रगान के दौरान खड़े होने वाले व्यक्तियों में से कोई बड़ा अपराधी या देशद्रोही हो? तो क्या उसका खड़ा होना ही उसके देश के प्रति सम्मान का पैमाना माना जाए? और एक सच्चा देशभक्त किन्हीं कारणों से अगर सिनेमाघर में राष्ट्रगान के दौरान खड़ा न हो पाए, तो क्या उसे देशद्रोही या देश का अपमान करने वाला नागरिक समझा जाए?
  • जेहोवाह विटनेस संप्रदाय के लोग राष्ट्रगान नहीं गाते, क्योंकि उनकी धार्मिक आस्था उन्हें इसकी इजाजत नहीं देती। जेहोवाह संप्रदाय का यह रुख भारत के लिए अनूठा नहीं है। दूसरे देशों में भी इस संप्रदाय के सदस्य वोट देने, सार्वजनिक कार्यालयों में काम करने या सशस्त्र सेना में सेवा देने से इंकार करते हैं। तो क्या यह माना जाए कि वह संप्रदाय, जो राष्ट्रगान के गायन में भाग न ले, उसके प्रति अनादर व्यक्त कर रहा है?
  • उच्चतम न्यायालय ने अपने धर्म की उन्नति के लिए अनुदान देने के मामले पर कहा था कि ‘एक धर्मनिरपेक्ष न्यायाधीश दूसरे की आस्था को मानने को बाध्य है।’ बिजोय एमानुअल मामले में भी बेंच ने इसी परंपरा को निभाया। लेकिन हाल ही में राष्ट्रगान वाले आदेश में उच्चतम न्यायालय ने विपरीत रुख अपनाकर भारतीय नागरिकता के मौलिक अधिकारों पर सवाल खड़ा कर दिया है।
  • उच्चतम न्यायालय के इस आदेश से और भी कई सवाल उठ खड़े होते हैं, जैसे-राष्ट्रगान के समय अगर कोई नागरिक खड़ा नहीं होता, तो इसकी जाँच कौन करेगा? उसके खड़े न होने के पीछे के कारणों की जाँच कौन करेगा?
  • यह याद रखा जाना चाहिए कि जो भी व्यक्ति, जानबूझकर राष्ट्रगान के गायन को बाधित करता है या किसी सभा में इसे गाए जाने के दौरान व्यवधान उत्पन्न करता है, तो वह 1971 के राष्ट्रीय गरिमा अधिनियम के अंतर्गत दण्ड का भागी होगा।

उच्चतम न्यायालय का वर्तमान आदेश उसकी न्यायिक परिधि से परे एक कट्टर आदेश लगता है। न्यायपालिका तो कार्यपालिका को उसकी लक्ष्मण रेखा की याद दिलाती रहती है। ऐसे में स्वयं न्यायपालिका को भी अपनी लक्ष्मण रेखा की मर्यादा रखनी चाहिए।

ऐसा माना जा रहा है कि न्यायालय के वर्तमान आदेश से यह धारणा ध्वस्त होती दिखाई दे रही है। साथ ही इसने न्यायालय के खिलाफ मोर्चा कसने वालों के लिए एक और मौका दे दिया है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि ऐसा आदेश देने वाली बेंच अपनी अगली सुनवाई में सभी संवैधानिक, कानूनी एवं व्यावहारिक पक्षों को ध्यान में रखकर इस पर पुनर्विचार करेगी।

विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित लेखों पर आधारित।

 

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