व्यक्तिगत अधिकार बनाम सामुदायिक तानाशाही

Afeias
04 Jan 2024
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हमारे देश में चुनने या पसंद की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ च्वायस) का अधिकार प्रत्येक नागरिक को दिया गया है। यह हमारे संविधान के मूल में है। लेकिन दुर्भाग्यवश विभिन्न धर्मों और जातियों के विभिन्न समुदाय इस स्वतंत्रता का पूरा उपयोग होने नहीं देते (विशेषकर महिलाओं के मामले में)। हाल ही में संसद में दो ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं। एक तो भाजपा के सांसद ने लिव-इन-रिलेशनशिप को खतरनाक बताया और इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाने की मांग की। दूसरी घटना में केरल में एक इस्लामी विद्वान ने वामपंथी दलों पर आरोप लगाया कि वे मुस्लिम महिलाओं को उनके धर्म के बाहर शादी करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

विवाह में जड़ता –

अपनी पसंद से विवाह करने का चलन बहुत पुराना नहीं है। वैश्विक स्तर पर यह औद्योगिक क्रांति से जन्में सामाजिक परिवर्तनों के कारण शुरू हुआ। हालांकि, भारत जैसे कई समाजों में इसे स्वीकार करने में बहुत कठिनाई रही है। इसके पीछे दहेज भी एक बड़ा कारण रहा है।

रूढ़ियों पर झुकते न्यायालय –

हमारे समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी कुछ रूढ़िवादी प्रवृत्तियां अक्सर न्यायलय के महत्वपूर्ण निर्णयों में दिखाई देती है। बहुसंख्यक राय अक्सर परंपरा की ओर झुकती है, और इसमें न्यायालय भी कुछ नहीं कर पाते हैं। उदाहरण के लिए 1949 के कानून को संवैधानिक पीठ का समर्थन नहीं मिल पाना है। यह कानून व्यक्तियों को धार्मिक आकाओं के बहिष्कार के प्रतिकूल प्रभावों से बचाने के लिए लाया जाना था।

संविधान ही एकमात्र सहारा –

स्वतंत्रता से संबंधित संवैधानिक अधिकार किसी दबंग सरकार के खिलाफ सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है। कुछ न्यायिक मामलों में छोटे समूह की राय को आधार बनाकर भी निर्णय दिए गए हैं। ये निर्णय सामाजिक अत्याचार के खिलाफ एक ढाल सिद्ध हुए हैं। उदाहरण के लिए अंतरात्मा की स्वतंत्रता को न्यायालय ने नास्तिकता को स्वीकार करने के अधिकार के रूप में बताया हैं। कुल मिलाकर, किसी व्यक्ति की पसंद को सामुदायिक मानदंडों के दबाव से सुरक्षित रखा जाना चाहिए।

वास्तव में, न तो सरकार और न ही न्यायपालिका व्यक्तिगत अधिकारों की लगातार रक्षा करने में सक्षम हैं। यह संविधान के मूलभूत सिद्धांतों और भारत की सामाजिक वास्तविकता के बीच बड़ा अंतर है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 9 दिसंबर, 2023

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