आस्था और लैंगिक न्याय

Afeias
28 Feb 2019
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Date:28-02-19

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हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक साक्षात्कार में कहा कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का मामला, जहाँ परंपरा से जुड़ा है, वहीं तीन तलाक का मामला लैंगिक न्याय से जुड़ा हुआ है। भाजपा के अन्य नेता भी लगातार यही कहते रहे हैं कि सबरीमाला का मामला आस्था से जुड़ा हुआ है। हैरानी इस बात की है कि 2017 के शायरा बानो निर्णय में न्यायालय ने लैंगिक न्याय जैसी कोई बात नहीं कही थी। न्यायालय की पीठ ने तीन तलाक प्रथा को गैर-इस्लामिक यानि आस्था के विरूद्ध पाया, और उसे विचार-विमर्श से अलग ही रखा।

ऐसे समय जब यह दिखाई दे रहा है कि 2019 के आम चुनावों में धर्म एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला है, ‘परंपरा’, ‘आस्था’ और लैंगिक न्याय’ के अर्थ को समझना जरूरी हो जाता है। यह जानना जरूरी है कि सबरीमाला और तीन तलाक के मुद्दे आस्था, परंपरा या लैंगिक समानता में से किससे जुड़े हुए हैं।

न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा ने सबरीमाला मुद्दे को धार्मिक विविधता से प्रेरित मामला बताते हुए सरकार के इस तर्क का समर्थन किया। परंतु शायरा बानो मामले में जब न्यायाधीशों ने तीन तलाक की परंपरा को इस्लाम जितना ही 1400 वर्ष पुराना बताया, तो उसे नहीं माना। सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश निषेध का मामला प्राचीन परंपरा से जुड़ा नहीं है, और 1939 में त्रावणकोर की महारानी के मंदिर प्रवेश की जानकारी मिलती है।

तीन तलाक के मामले में निर्णय लेते हुए अधिकांश न्यायाधीशों ने धार्मिक स्वतंत्रता को संपूर्ण माना। इसके अंतर्गत ही पसर्नल लॉ आता है, और न्यायाधीशों का कर्तव्य है कि इस पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप किए बिना उसकी रक्षा करें। न्यायाधीशों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि पर्सनल लॉ की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। अतः तीन तलाक को जनादेश या स्वास्थ्य या नैतिकता या अन्य किसी मौलिक अधिकार के चलते गलत नहीं ठहराया जा सकता। कुछ न्यायाधीशों ने इसे ‘पाप’ की श्रेणी में रखते हुए, उन इस्लामिक प्रथाओं से बाहर रखा, जिन्हें संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। ‘पाप’ की बात करें, तो यह ‘आस्था’ का प्रश्न है, जिसे धर्मशास्त्र में ‘पाप’ माना जाता है और उसे कानूनी तौर पर वैध नहीं माना जाता।

एस राधाकृष्ण का मानना था कि, ‘‘धर्म नैतिक नियमों और रस्मों के अनुपालन की एक संहिता है, और समारोह एवं पूजा के अलग-अलग तरीके इसकी अभिव्यक्ति के बाहरी रूप हैं।’’ अतः किसकी पूजा, कहाँ करनी है, कैसे करनी है और कब करनी है, आदि प्रश्न आस्था या धार्मिक परंपरा से जुड़े हुए हैं। आस्था ही हमें बताती है कि किन संदर्भों में क्या स्वीकृत है, और क्या नहीं। अनुच्छेद 26 में प्रत्येक पंथ को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार दिया गया है।

कुछ मुस्लिम देश तीन तलाक को स्वीकार नहीं करते, ऐसा कहकर तीन तलाक को आस्था का मामला न बनाकर उसे अपराध की श्रेणी में खड़ा कर देना गलत है। इस्लामिक कानून समरूप नहीं है। इसमें एक संप्रदाय, दूसरे से भिन्न है। तीन तलाक को तलाक देने का एक वैध तरीका न मानना एक बात है, परन्तु उसे अपराध मान लेना गलत है। अतः इसे वैध न मानने पर तो भारतीय इस्लाम के अधिकांश विशेषज्ञों में मतैक्य है। लेकिन इनमें से अधिकतर इसको अपराध माने जाने के विरूद्ध हैं, क्योंकि यह एक सामाजिक मुद्दा है।

‘आस्था’ तो विश्वास की बात है। यह तर्क और नैतिकता पर आधारित नहीं होता। धर्म किसी तर्क और अनुभववाद को नहीं मानता। बल्कि सभी आस्थाएं प्रतिगामी, अपवर्जनात्मक और भेदभावपूर्ण होती है, क्योंकि उनका उद्भव पूर्व आधुनिक काल में हुआ है।

एक प्रगतिशील दस्तावेज होने के नाते हमारे संविधान ने हमें धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद 25-28) में एक सीमा तक तार्किक दृष्टिकोण और धर्मान्धता, दोनों ही रखने का अधिकार दिया है। संवैधानिक नैतिकता का वास्ता देकर सबरीमाला मंदिर विवाद निर्णय में इस अधिकार को कम करने का प्रयत्न किया गया है। इसी के कारण विरोध किया जा रहा है। न्यायाधीश चन्द्रचूड़ ने जब इस विवाद को छुआछूत के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहा, तो सबको लगा कि वे मुद्दे से दूर जा रहे हैं। परंतु दो महिलाओं के मंदिर-प्रवेश के बाद उसको पवित्र किए जाने के समाचार ने न्यायाधीश चंद्रचूड़ के विचार को सही सिद्ध कर दिया। यह सब तब हुआ, जबकि संविधान ने छुआछूत की प्रथा को समाप्त कर दिया है।

सबरीमाला मामले में बहुमत ने महिलाओं को वर्जित करने के नियम का विरोध किया, क्योंकि यह पूजास्थलों के मूल अधिनियम के विरूद्ध है। इस अधिनियम में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि केरल के सभी पूजा-स्थलों को, सभी वर्ग के हिन्दुओं के लिए खुला रखा जाए। उच्चतम न्यायालय ने अयप्पा के भक्तों को हिन्दुओं में एक अलग संप्रदाय की पहचान देने से इंकार कर दिया। सबरीमाला ट्रस्ट ने अयप्पा भगवान के ब्रह्मचारी होने का वास्ता देते हुए रजस्वला महिलाओं का प्रवेश वर्जित रखने के लिए न्यायालय में गुहार लगाते हुए, धार्मिक स्वतंत्रता को ईश्वर तक विस्तृत करने की मांग की थी। परन्तु न्यायालय ने यह कहकर इसे अस्वीकृत कर दिया कि भगवान को मौलिक अधिकार प्रदान नहीं किए जा सकते।

लैंगिक न्याय की अवधारणा आधुनिक है, और हमारा संविधान इसके लिए प्रतिबद्ध है। धर्म की स्वतंत्रता समानता के अधिकार के अधीन है, और यही कारण है कि न्यायाधीशों को भेदभावपूर्ण प्रथाओं को बनाए रखने के लिए बहुत कम विकल्प मिलते हैं। लेकिन हमें मात्र औपचारिक समानता का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए, बल्कि ठोस समानता प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। ठोस समानता में ऐसे सिद्धांत को स्वीकृत किया जाता है, जिसमें पुरुष एवं महिला के साथ अलग-अलग व्यवहार किया जा सके। इसमें तो पुरुष एवं महिला के बीच की असमानता को पहचानकर, उनकी प्रकृति के अनुरुप व्यवहार करने की वकालत की जाती है।

आस्था और धर्म के बीच का अंतर कृत्रिम है, और लैंगिक न्याय दोनों में ही सुधार की मांग करता है। अयप्पा के भक्तों और मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड; दोनों को ही लैंगिक न्याय की संवैधानिक अवधारणा का स्वागत करना चाहिए, और अपने धर्मों में आंतरिक सुधारों का प्रयास करना चाहिए। ऊपर से या न्यायालय से थोपे गए सुधार, भारतीय समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकते, क्योंकि भारतीय जनमानस मूलतः धार्मिक है और वह अपने धार्मिक गुरूओं की अधिक मानता है। सबरीमाला के संबंध में चल रहा जनविरोध यह दर्शाता है कि आस्था में सुधार लाने के लिए हमारे न्यायालय सही हथियारों से लैस नहीं है।

द इंडियन एक्सप्रेसमें प्रकाशित फैज़ान मुस्तफा के लेख पर आधारित। 8 फरवरी, 2019

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