आर्थिक प्रगति के लिए भय से मुक्ति जरूरी है

Afeias
17 Mar 2021
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Date:17-03-21

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हाल के वैश्विक भारत की दो छवियां हैं। एक में वह दक्षिण अमेरिका से लेकर दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों में वैक्सीन निर्यात कर रहा है, और दूसरी में वह किसान आंदोलन का समर्थन करने वाली पॉप स्टार रिहाना और पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट का उग्र विरोध करता है। साथ ही, वह टूलकिट को शेयर करने के जुर्म में दिशा रवि को जेल भेज रहा है, और कृषक आंदोलन पर पुलिस बल की तैनाती को बरकरार रखे हुए है।

वैक्सीन निर्यात का उद्देश्य दुनिया में एक विनिर्माण केंद्र के रूप में भारत को ‘आत्मनिर्भर’ दिखाना है। इसी कड़ी में, प्रधानमंत्री ने व्यापार में सुगमता पर ध्यान देने की घोषणा की है, और कहा है कि निजी क्षेत्र की भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही रोजगार के अवसरों में भी बढ़ोत्तरी करता है।

स्वतंत्रता अविभाज्य है। स्वतंत्रता को खंडों में बांटा नहीं जा सकता। चीन का सत्तावादी आर्थिक चमत्कार कुछ लोगों के लिए आदर्श हो सकता है, लेकिन भारत में आर्थिक जीवन की विभिन्नता को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि नागरिक और सामाजिक स्वतंत्रता के दौर में ही आर्थिक प्रगति ऊँचाई प्राप्त करती है।

जब एक विशाल सरकारी तंत्र नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकारों को गंभीर रूप से बाधित कर रहा हो, जब देशद्रोह को जबरन थोपा जा रहा हो, जब शासन का विरोध करने वालो को कैद किया जा रहा हो, और सबसे बढ़कर जब भय को व्याप्त किया जा रहा हो, तब निजी क्षेत्र की विफलता तो तय है।

हाल ही में वित्त मंत्री सीतारमण ने उद्योगों और निजी उद्यमों से ‘एनिमल स्पीरिट्स’ उजागर करने की अपील की है। यह विशेष शब्दावली ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मायनार्ड कायने की दी हुई है। इससे उनका तात्पर्य उस मानवीय भावना को उजागर करने से था, जो कठिन समय में ऊर्जावान वित्तीय गति को निर्देशित कर सके। विचार अभिव्यक्ति पर पाबंदी के साथ भय संचारित वातावरण में इस भावना को कदापि जाग्रत नहीं किया जा सकता। ‘एनिमल स्पीरिट’ की राह में तो ये सबसे बड़ी बाधा हैं।

आखिर एक आम उद्यमी कौन होता है ? यह सामान्यतः एक ऐसा मस्तिष्क होता है, जो स्वतंत्र विचारों के जरिए किसी ऐसे नवाचार को आधार देता है, जो लोगों को अपील कर सके। उद्यमशीलता का बीज उस परिवेश में रोपा जा सकता है, जहाँ सोचने की स्वतंत्रता हो, प्रचलित प्रतिमानों पर सवाल उठाए जा सकें, कड़वी या असुविधाजनक सच्चाई का घूंट पिया जा सके, और नए विचारों को स्वीकार किया जा सके। लेकिन जहाँ भय व्याप्त हो, जहाँ विचारों की स्वतंत्रता को ‘देशद्रोह’ माने जाने का डर हो, वहाँ नए उद्यमियों की सशक्त ऊर्जा के छिनने का खतरा बना रहता है।

पिछले कुछ समय में विभिन्न आंदोलन-स्थलों पर इंटरनेट को कई बार बंद किया गया है। विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्म को सरकार के अधीन रखने की जुगत चल रही है। राजनीतिक नेतृत्व ने आई ए एस बाबुओं का गला घोंटने का काम किया है। दिल्ली जिमखाना क्लब जैसे मनोरंजन केंद्र का भी सरकारी अधिग्रहरण किया गया है। विचारों पर पहरा बैठाने के प्रयास में सार्वजनिक वित्त पोषित विश्वविद्यालयों को अंतरराष्ट्रीय ऑनलाइन सम्मेलनों के लिए सरकार की अनुमति लेना आवश्यक कर दिया गया है।

नरसिम्हा राव, ए.बी. वाजपेयी और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में आर्थिक विकास दर सतत् रही, और नागरिक जीवन में ज्यादा दखल नहीं दी गई। वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने गठबंधन सरकारें चलाईं। समय-समय पर इनमें अस्थिरता भी आई, परंतु केंद्र सरकार ने न्यूनतम हस्तक्षेप की नीति रखी। किसी प्रकार के असंतोष को ‘देशद्रोह’ ठहराए जाने की कोशिश नहीं की गई।

अगर समाज का प्रत्येक क्षेत्र, सरकार या गैर सरकारी सत्ताओं के लिए निशाना बनता रहता है, तो नागरिकों को निरंतर राजनैतिक संरक्षण की आवश्यकता पड़ती रहती है। इसके बदले में उन्हें अपनी स्वतंत्रता का बलिदान देना पड़ता है। जब सरकार, समाज की स्वतंत्रता का गला घोंटने पर उतारू हो, तब उद्यमी कैसे स्वतंत्रता से सोच पाएंगे, और अपनी एनिमल स्पीरिट को कैसे उन्मुक्त कर पाएंगे।

ऐसी स्थितियों में, मुक्त-आत्मा उद्यमी, सरकारी तंत्र से हार मानने के बजाय पलायन करना बेहतर समझेंगे। वे न्यायसंगत रूप से व्यवसाय करने की जगह याराना पूँजीवाद को अपनाएंगे।

उदारवादी, आमतौर पर नियंत्रण का विरोधी है। इसका उदाहरण किसान-आंदोलन में देखा जा सकता है। बाजार का मतलब स्वैच्छिक नियम आधारित वार्ता है। इसमें दो पक्ष एक समझौते पर चर्चा करते हैं। यदि दोनों आश्वस्त हों, तो जीत दोनों की होती है। जब भय इस बात का हो कि एक पक्ष के लिए ही विषमताएं खड़ी की गई हैं, और वही सरकार की मनमानी नीतियों का शिकार बनने वाला है, तो विरोध तो निश्चित ही है। उस पर भी अगर इंटरनेट बंद किया जाए, सड़कें बंद की जाएं, नियंत्रण और आज्ञा की मानसिकता के साथ पुलिस कार्यवाही की जाए, तो ‘सुधार’ के नाम पर किए जाने वाले वायदों के प्रति विश्वास कैसे हो?

अगर पुलिस, विचारों पर नियंत्रण के माध्यम से संस्कृति और सामाजिक जीवन को जकड़कर रखना चाहती हो, तो आर्थिक जीवन में स्वतंत्रता की कल्पना कैसे की जा सकती है। इकॉनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट डेमोक्रेसी की 167 देशों की सूची में भारत का स्थान 27वें से गिरकर 53 पर पहुँच गया है। जब लोकतंत्र ही मंदी में हो, तो सत्ता के ठेकेदारों द्वारा अर्थव्यवस्था को ठप करना भला क्या मुश्किल है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सागरिका घोष के लेख पर आधारित। 24 फरवरी, 2021

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