प्रगति के लिए परंपरा से हटकर सोचने की जरूरत

Afeias
27 Sep 2018
A+ A-

Date:27-09-18

To Download Click Here.

अर्थव्यवस्था के आकलन में अक्सर ऐसा होता है कि अर्थशास्त्री, प्रगति के परंपरागत निर्धारकों और सैद्धांतिक गणना को ही आधार बनाकर चलते हैं। वे अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और पर्यावरणीय प्रभावों को नजरंदाज कर जाते हैं। विश्व और घरेलू स्तर पर विकास के कुछ ऐसे निर्धारक तत्व हैं, जो गैर-परंपरागत होने के साथ-साथ डाटा आधारित हैं।

  • लैंगिक समानता – मैकिंस्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की 2018 की रिपोर्ट बताती है कि अगर भारत अपने समाज और कार्यक्षेत्र में लैंगिक समानता को बढ़ावा दे, तो 2025 तक उसके सकल घरेलू उत्पाद में 770 अरब डॉलर की बढ़ोत्तरी हो सकती है।
  • जलवायु परिवर्तन की विश्व बैंक रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण एशिया के 80 करोड़ लोग ऐसे हॉटस्पॉट में रह रहे हैं, जो जलवायु परिवर्तन से जन्मे दुष्प्रभावों का मुख्य क्षेत्र होगा। बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा के कारण इस क्षेत्र के लोगों का जीवन-स्तर घटेगा, मृत्यु-दर बढ़ेगी, प्रवास में वृद्धि होगी, कृषि-उत्पादकता घटेगी एवं जल की कमी होगी। इन कारणों से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 2050 तक 2.8 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान है। भारत की आधी जनसंख्या पर जीवन-स्तर घटने का खतरा मंडरा रहा है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश जैसे कृषि बहुल क्षेत्रों के लिए सबसे ज्यादा खतरा है। वर्तमान स्थितियों में जलवायु और मौसमी परिवर्तन के कारण भारत को 10 अरब डॉलर का प्रतिवर्ष नुकसान हो रहा है।
  • धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र – किसी देश की राजनैतिक अस्थिरता उसकी अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डालती है। 2015 के ‘डोमोक्रेसी डज़ कॉज़ ग्रोथ’ नामक लेख में सकारात्क प्रजातंत्र के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले अच्छे प्रभावों के बारे में बताया गया है। इस अध्ययन में 1960 से 2010 तक उन कई देशों को शामिल किया गया है, जो गैर-प्रजातांत्रिक थे, और इस अवधि में उन्होंने प्रजातंत्र को अपनाकर लगभग 30 वर्षों के अंदर ही अपने सकल घरेलू उत्पाद को 20 प्रतिशत तक बढ़ा लिया। आर्थिक विकास के लिए नागरिक स्वतंत्रता को अति महत्वपूर्ण माना जाता है। प्रजातंत्र के माध्यम से मिलने वाली इस स्वतंत्रता के चलते आर्थिक सुधार संभव हो पाते हैं। ये सुधार निजी निवेश में बढ़ोत्तरी करते हैं। प्रजातंत्र के कारण सामाजिक मतभेद भी दूर होते हैं।
  • तकनीक – मेकिंस्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट की 2014 की रिपोर्ट ‘इंडियाज़ टैक्नोलॉजी अपॉर्चुनिटी ट्रांसफॉर्मिंग वर्क, एमपॉवरिंग पीपल’ में 12 ऐसी तकनीकें बताई गई हैं, जो करोड़ों लोगों को सक्षम बना सकती हैं। इन्हें अपनाकर 2025 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद को 550 अरब डॉलर से दस खरब डॉलर तक बढ़ाया जा सकता है। रिपोर्ट में इन्हें तीन क्षेत्रों में बाँटा गया है-जीवन और कार्यक्षेत्र को डिजीटल बनाना, कुशल भौतिक तंत्र का निर्माण एवं ऊर्जा। यह भारत की सामाजिक-आर्थिक समस्या को काफी हद तक दूर कर सकता है।
  • स्वच्छता – एक विश्व स्तरीय रिपोर्ट में बताया गया है कि स्वच्छता के अभाव में विश्व के सकल घरेलू उत्पाद में होने वाले नुकसान का आधा यानि 106.7 अरब डॉलर भारत के जिम्मे आता है। यह 2015 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 5.2 प्रतिशत था। इसमें स्वच्छता के अभाव में होने वाली बीमारियों, स्वास्थ्य पर अधिक खर्च, उत्पादकता में कमी और मृत्यु-दर में वृद्धि जैसे चार पहलुओं को लिया गया है।

ये पाँच बिन्दु ऐसे हैं, जिनकी मदद से भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद में खरबों डॉलर जोड़ सकता है। ये पैमाने केवल सिद्धांत और आँकड़े नहीं हैं, बल्कि वास्तविकता को बताते हैं। सिलिकॉन वैली की सफलता की कहानी एक उदार समाज का नतीजा है, जहाँ धर्मनिरपेक्ष प्रजातंत्र के चलते नागरिक स्वतंत्रता को अहमियत दी गई। भारत से भिन्न, यह विविधता से भरा ऐसा समाज है, जो असफलता का खतरा उठाते हुए नवोन्मेष को बढ़ावा देता है। विश्व की कुछ बड़ी कंपनियां सिलिकॉन वैली की देन हैं। ये कंपनियां अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद में अरबों डॉलर की वृद्धि कर रही हैं।

21वीं शताब्दी के अपने भविष्य को उज्जवल करने के लिए भारत को भी समाज में समानता लानी होगी, अपने नागरिकों को स्वच्छ जीवन और कार्यस्थल के अलावा संवैधानिक और प्रजातांत्रिक अधिकारों से लैस करना होगा।

‘द इकॉनॉनिक टाइम्स’ में प्रकाशित मिलिंद देवड़रा के लेख पर आधारित। 20 अगस्त, 2018

Subscribe Our Newsletter