न्यायिक मामलों को निपटाने के प्रशासनिक हल

Afeias
15 Jun 2021
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Date:15-06-21

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हाल ही में सेवानिवृत्ति हुए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों को लेकर चिंता जताई थी। इन मामलों की कुल संख्या 3 करोड़ है। इसी कड़ी में न्याय विभाग द्वारा कराए गए एक अध्ययन से कुछ चैंकाने वाले तथ्य प्राप्त हुए हैं। अधीनस्थ न्यायालयों में चलने वाले मामलों की समयावधि लगभग दस वर्ष और उच्च न्यायालय में 2.3 वर्ष रहती है। इसमें सुधार हेतु न्यायिक प्रक्रिया की गहन पुनर्विवेचना किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही इससे जुड़े कुछ प्रशासनिक बिंदुओं को भी ध्यान में रखा जा सकता है।

  • उच्चतम न्यायालय को चाहिए कि दस साल से अधिक समय से उच्च न्यायालयों मे लंबित पड़ी जनहित याचिकाओं का सारांश अनिवार्यत मंगवाए। इनमें महत्वपूर्ण नीति या कानून के प्रश्न से संबंधित याचिकाओं को अलग रखा जाए।
  • यह अनिवार्य किया जाना चाहिए कि सभी वाणिज्यिक मुकदमों पर तभी विचार किया जाएगा, जब याचिकाकर्ता की ओर से हलफनामा दिया गया हो कि मध्यस्थता या सुलह का प्रयास किया जा चुका है, और वह असफल हो गया है।
  • विभिन्न वाणिज्यिक कानूनों के तहत केवल प्रक्रियात्मक खामियों के लिए दंड को संयोजनीय बनाया जाना चाहिए। दंड का स्तर उल्लंघन के आकार के अनुपात में होना चाहिए और कार्यपालिका द्वारा बनाए नियमों के माध्यम से समय-समय पर पुनरीक्षण योग्य होना चाहिए।
  • सरकारी अधिकारियों के निर्णय लेने या इसकी कमी की स्थिति यदि मुकदमेबाजी का कारण है, तो उन्हें जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
  • मध्यस्थता संबंधी अनुपालन भी एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ सरकारी एवं अन्य वाणिज्यिक निकाय मध्यस्थता में खड़े होने से बचना चाहते हैं। अतः वे एक बचाव के विकल्प के रूप में उच्च न्यायालय में अपील करना बेहतर समझते हैं। उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध उनके पास अपील का विकल्प रहता है। कुछ विशेष मामलों को छोड़कर, इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।
  • न्याय विभाग के अध्ययन से यह भी पता चलता है कि बहुत से आपराधिक मामलों को निगोशिएबिल इंस्ट्रमेंन्ट एक्ट 1988 और सिविल मामलों को मोटर वाहन कानून, 1988 के अंतर्गत दर्ज किया जाता है। न्यायिक प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए कार्यकारी मजिस्ट्रेट को ही अपने स्तर पर मामलों के निपटान के लिए अधिकृत किया जा सकता है। 1973 से पहले की आपराधिक प्रक्रिया संहिता में कार्यकारी मजिस्ट्रेटों (जिनकी संख्या 5000 के लगभग है) को आपराधिक मामलों की सुनवाई का अधिकार था। वर्तमान में भी वे शस्त्र अधिनियम, सीनेमेटोग्रेफी अधिनिमय, आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत अनेक मामले देखते हैं। निगोशिएबिल इंस्ट्रमेंट एक्ट और मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत भी मामले देखने के लिए उनका दायरा बढ़ा दिया जाना चाहिए।

इन कदमों के माध्यम से हम भारतीय न्यायपालिका की क्षमता और गति को बढ़ाकर, उसकी छवि में सुधार कर सकते हैं। जेलों में बंद अभियोगाधीन, 27% के वैश्विक अनुपात में जिनकी संख्या 69% है कैदियों के जीवन के लिए जल्द से जल्द निर्णय की आवश्कयता को देखते हुए, इन सुधारों पर विचार किया जाना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित राघव चंद्र के लेख पर आधारित। 24 मई, 2021

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