न्यायालयों को अपनी सीमाएं समझनी चाहिए

Afeias
15 Mar 2022
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उच्चतम न्यायालय बड़ी संख्या में लंबित मामलों के बोझ तले दबा हुआ है। ऊपर से ऐसी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई कर रहा है, जो मौलिक कर्तव्यों को कानूनी रूप से लागू करने का प्रयास करती हैं। इस मामले में न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस भी जारी किया है।

मामले से संबंधित कुछ बिंदु –

  • कानून बनाना संसद और कार्यपालिका का कार्यक्षेत्र है।
  • मौलिक कर्तव्यों को संविधान में 1976 के आपातकाल के दौरान भाग चार(ए) में शामिल किया गया। 11वां मौलिक कर्तव्य सन् 2002 में जोड़ा गया था।
  • जहाँ संवैधानिक नीति निर्देशक सिद्धांतों को सरकारी नीतियों को प्रभावित करने वाला समझा जाता है, वहीं मौलिक कर्तव्य नागरिकों को अपने सार्वजनिक जीवन में कुछ ‘आदर्श आचरण’ प्रदर्शित करने के लिए सामान्य निर्देश देते हैं। उन्हें कानूनी रूप से लागू करने के लिए एक ढांचा तैयार करना होगा। इस तरह के कानूनों का भारी दुरूपयोग और राजनीतिकरण होने की आशंका रहती है।

इसके अलावा राष्ट्रीय सम्मान के अपमान की रोकथाम अधिनियम, आईपीसी 124 ए, न्यायालयों की अवमानना अधिनियम, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, प्रचीन स्मारक और पुरातत्व अवशेष अधिनियम तथा शिक्षा का अधिकार अधिनियम जैसे कई कानून हैं, जो पहले से ही मौलिक कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं। जरूरत पड़ने पर संसद ने इनमें से प्रत्येक अधिनियम को अधिनियमित भी किया है। न्यायालयों का काम इन कानूनों की व्याख्या करना है।

  • न्यायपालिका को केवल उन जनहित याचिकाओं पर विचार करना चाहिए, जिनमें सरकारों और संस्थानों की निष्क्रियता के कारण जनहित को भारी नुकसान होने का डर हो।

संवैधानिक प्रावधानों से संबंधित कानूनों का गठन और उन्हें पारित करना, संसद का कार्यक्षेत्र है। न्यायपालिका को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में आने वाले मामलों में स्वयं को उलझाने से बचना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 23 फरवरी, 2022

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