न्यायालयों के बोझ के लिए सरकार जिम्मेदार
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न्यायालयों में लंबित ढेरों मामलों की अक्सर चर्चा की जाती है। इसके पीछे के कारण और समाधान के रूप में हाल ही में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति रमन्ना जी ने प्रधानमंत्री और राज्यों के मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में इसके लिए सरकारी नीतियों और कामकाज को जिम्मेदार ठहराया है। मुख्य न्यायाधीश ने कुछ निम्न मुख्य बिंदुओं को रेखांकित किया है –
- उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायालयों के लंबित मामलों के संकट को निपटाने के लिए सरकार को अपने कामकाज में सुधार करना चाहिए।
- पंचायत और नगर निकायों से लेकर तहसीलदारों तथा अन्य राजस्व अधिकारियों तक, थानों में पुलिसिंग से लेकर सेवा कानूनों तक, प्रदर्शन की कमी और संवैधानिक प्रक्रिया का पालन न करने से ही मुकदमेबाजी बढ़ती जा रही है।
- विधायिकाओं द्वारा जल्दबाजी में कानून बनाने, कानून पर पर्याप्त चर्चा न करने, न्यायिक घोषणाओं को लागू करने में सरकार की जानबूझकर दिखाई जाने वाली निष्क्रियता, विभिन्न सरकारी विभागों द्वारा तुच्छ मुकदमेबाजी, निर्णय लेने का बोझ न्यायालयों पर डालना, न्यायिक नियुक्ति की धीमी प्रक्रिया, न्यायिक अवसंरचना को अपग्रेड करने की कमी के कारण भी न्यायालयों का बोझ बढ़ता जा रहा है।
- लंबित मामलों में से 66% भूमि से जुड़े विवाद हैं। बेहतर और लक्षित सरकारी नीतियों के द्वारा इनमें से कई विवादों को हल किया जा सकता है।
- सरकार के सभी स्तर पर निर्णय लेने और अधिकारियों को निर्भय होकर कामकाज की स्वतंत्रता पर ध्यान दिया जाना चाहिए। प्रशासकों के न्यायालय जाने का एक बड़ा कारण निर्णय लेने की स्वतंत्रता का न होना है।
- शराब और गांजे का सेवन, असंतोष, किशोरों में यौन-संबंध, अंतर्धार्मिक विवाह, व्यवसायों पर अनुपालन का बढ़ता बोझ और राजनीति से प्रेरित अनगिनत मामलों को अपराध घोषित करने वाले गलत तरीके से बनाए गए कानून, शासन और संवैधानिकता का गलत उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। ये मामले भ्रष्टाचार को जन्म देते है, जो गरीबों को सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं। ऐसे मामलों और गलत कानून से ही नेता-बाबू-पुलिस की सांठगांठ खत्म नहीं हो रही है।
न्यायाधीश केवल कानून की व्याख्या कर सकते हैं। शासन से संबंधित अन्य मामलों के लिए संविधान ने कार्यपालिका और नौकरशाही को जिम्मेदारी सौंपी है। यदि वे उचित प्रक्रिया का पालन करके नागरिकों को न्याय दे सकते हैं, तो न्यायालयों का बोझ अपने आप ही कम हो सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 2 मई, 2022