कार्यबल में गिरती महिलाओं की भागीदारी
Date:29-01-21 To Download Click Here.
कोविड महामारी के चलते वैश्विक परिदृश्य में बड़ा परिवर्तन आया है। अधिकांश लोग आज वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि कार्यस्थल ही खत्म हो जाएंगे। लेकिन यह जरूर है कि अब बहुत सा काम घरों से ही किया जाता रहेगा। भविष्य में ऐसे लोगों की जरूरत बढ़ने की उम्मीद है, जो पार्ट-टाइमर की तरह काम कर सकें। इससे उत्पादकता में भी वृद्धि होगी।
भारत के लिए सबसे बड़ी उम्मीद की किरण यह है कि कार्यबल में गिरती महिलाओं की संख्या को वर्क फ्राम होम संस्कृति से बढ़ाया जा सकेगा। धनी देशों में 15 वर्ष से अधिक की दो-तिहाई महिलाएं काम में संलग्न हैं। इससे उनकी आय और जीवन स्तर बढ़ता है। एशिया की मिरेकल अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में कामकाजी महिलाओं का योगदान 7% बढ़ा है। इस दृष्टि से भारत ही एक ऐसा अपवाद है, जहाँ 1990 में कामकाजी महिलाओं का 33% , अब घटकर 25% रह गया है।
इस गिरावट का अर्थ कुल कार्यबल की संख्या का कम होना माना जाएगा। भारत के जनसंख्यिकीय लाभांश से की जाने वाली आशा से यह एकदम विपरीत जा रहा है। एक दशक पूर्व तक कुल भागीदारी 50% थी, जो 2019-20 में गिरकर 43% रह गई हैं। इसके क्या कारण हो सकते हैं ?
- एक अनुमान के अनुसार 15-25 आयु वर्ग के अधिकांश युवा अब स्कूल या कॉलेजों में पंजीकृत हैं। दीर्घकालीन दृष्टि से इसे इस शर्त पर उपलब्धि माना जा सकता है, अगर हमारी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो जाता है। 25 से 65 आयु वर्ग की महिलाओं की भी कार्यबल में भागीदारी कम हुई है। शहरी क्षेत्रों की देखें, तो यह 16% पर रही है, जो विश्व स्तर पर सबसे कम कही जा सकती है। महिलाओं की शिक्षा के बाद भी इसमें गिरावट देखी जा रही है।
- इस समस्या के कुछ सामाजिक कारण भी हैं। उत्तर अफ्रीका के मोरक्को से शुरू हुआ एक वैश्विक परिदृश्य दिखाता है कि मध्यपूर्वी देशों से होती हुई मुस्लिम आबादी की एक रेखा उत्तर भारत तक जाती है। यह संस्कृति स्त्री-शिक्षा की विरोधी है। शायद इसके प्रभाव से हिंदुओं ने भी महिलाओं की शिक्षा, रोजगार और बाहर जाकर काम-काज करने पर रोक लगा दी है।
उत्तर भारत में कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संशय बना रहता है। ग्रामीण क्षेत्रों में सामूहिक रूप से खेतों में काम करना अपेक्षाकृत सुरक्षित समझा जाता है, परंतु अब कृषि का मशीनीकरण बढ़ने से यह काम भी नही है।
- एक समय था, जब गरीब परिवारों में महिलाओं को मजबूरी में काम पर जाना पड़ता था। गरीबी की दर गिरने के साथ ही वेतन में हुई वृद्धि और शहरी रिश्तेदारों से भेजी गई रकम की सहायता से परिवारों का खर्च आराम से चल जाता है। कुंवारी और युवा लड़कियों को काम पर न भेजा जाना, गांवों में सामाजिक स्तर का एक पैमाना बन गया है। इसे परिवारों की समृद्धि से जोड़कर देखा जाने लगा है। घर पर रहने वाली युवतियों के लिए अच्छे वर पाए जाने की संभावना ज्यादा रहने लगी है।
कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी कम होने के कारण बहुत गहरे हैं, और इन्हें जल्दी से बदला नहीं जा सकता। अब विभिन्न ऑनलाइन माध्यमों के द्वारा होने वाले काम पर ही देश के कार्यबल के बढने की उम्मीद टिकी है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित। 10 जनवरी, 2021