
कमजोर होता सूचना का अधिकार
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- सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम की शुरूआत एक ऐसा कदम था, जिसने नागरिकों के वास्तविक अधिकारों की उम्मीद जगाई थी।
- इस अधिनियम ने नागरिकों के सूचना के मौलिक अधिकार को कानूनी आधार दिया था।
- यह दुनिया के सबसे पारदर्शी कानूनों में से एक था।
- कानून बनने के कुछ ही समय बाद सरकार इसे अपने लिए खतरा मानने लगी, और इसमें संशोधन करके इसे कमजोर कर दिया गया।
धीरे-धीरे क्षरण –
- सूचना आयुक्त के पद पर अधिकांशतः सेवानिवृत्त नौकरशाह लिए गए थे। इनके लिए नागरिकों को अधिकार देना मुश्किल काम था। दूसरे, आयुक्तों के चुनाव में पारदर्शी रिकॉर्ड को आधार नहीं बनाया गया। तीसरे, कई नौकरशाहों ने नौकरियों को सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्ति से जोड़कर खानापूर्ति की। ऐसे आयुक्त मामले निपटाने में बहुत पीछे रहे। सूचना देने के लिए निर्दिष्ट समय सीमा भी नहीं है। इसके अलावा, सरकारों ने आयुक्तों की नियुक्ति में देर करनी शुरू कर दी।
- 2011 में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और अन्य बनाम आदित्य बंदोपाध्याय मामले में उच्चतम न्यायालय ने सूचना के अधिकार अधिनियम की धारा 8 की सीमित व्याख्या की। इससे कानून को बड़ा झटका लगा।
- 2012 में गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम केंद्रीय सूचना आयुक्त मामले में धारा 8(1)(जे) के तहत छूट का दावा करते हुए मांगी गई जानकारी को अस्वीकार करने से इस धारा को विस्तार मिलता गया, और नागरिकों को दी जाने वाली सूचनाएं कम होती गईं।
जब कानून की भाषा अस्पष्ट हो, तो उसकी सही व्याख्या नहीं हो पाती है। न्यायालय भी स्पष्ट कहता है कि वह कानून की व्याख्या करने का अधिकार रखता है , उसमें कुछ नया नहीं कर सकता। आरटीआई की अस्पष्टता का लाभ सरकार अपने हित में उठा रही है। अब नागरिकों को अपने अधिकार की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित शैलेश गांधी के लेख पर आधारित। 25 फरवरी, 2025