सूचना आयोग की जवाबदेही और संघात्मक मूल्यों पर प्रहार

Afeias
28 Aug 2019
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Date:28-08-19

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2005 में सचूना के अधिकार के पारित होने के छः माह बाद से ही इसमें संशोधन पर संशोधन किए जाते रहे हैं। हाल ही में इसमें एक और संशोधन पारित किया गया है। इस प्रस्ताव में विधेयक के अनुच्छेद 13, 16 और 27 को संशोधित किया गया है। इन अनुच्छेदों का संबंध केन्द्रीय सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति, कार्यकाल, वेतन एवं अन्य सुविधाओं से है। संशोधन होने के साथ ही सूचना आयोग के उच्च अधिकारियों की डोर एक प्रकार से केन्द्र सरकार के हाथ में चली गई है।

सवाल उठता है कि आखिर कानून में संशोधन के लिए इतनी जल्दबाजी क्यों है ?

  • इसके पीछे एक धारणा कहती है कि सूचना के अधिकार का लाभ उठाकर अनेक महत्वपूर्ण चुनाव प्रत्याशियों के एफिडेविट का क्रॉस वेरीफिकेशन किया गया, और तत्कालीन सूचना आयुक्तों ने खुलासे का समर्थन किया।
  • सूचना का अधिकार कानून सत्ता के दुरुपयोग को लेकर लगातार चुनौती देता रहता है। भारत जैसे देश में कानून के शासन की धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं, और भ्रष्टाचार का बोलबाला रहा है। यह कानून नागरिकों को सत्ता और उसके निर्णय तक पहुँच का मूलभूत अधिकार प्रदान करता है।
  • यह 40 से 60 लाख लोगों के अस्तित्व की रक्षा के लिए जीवन रेखा साबित हो चुका है। साथ ही प्रशासन के मनमाने रवैये, विशेषाधिकारों और भ्रष्टाचार की पोल खोलने के कारण यह कानून अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए खतरा है।

सरकार के अनुत्तरदायित्वती को चुनौती देने वाले सूचना के अधिकार से जुड़े 80 कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है।

  • सूचना आयुक्त के ऊँचे ओहदे और स्वतंत्रता कवच के कारण अक्सर ऊँचे स्तर पर लिए गए निर्णयों पर भी नागरिकों की पहुँच बन जाती है। सरकार इसमें सुधार करना चाहती है।
  • इस कानून ने एक ऐसा मंच और तंत्र तैयार किया है, जिसको प्रजातांत्रिक नागरिकता के मूलभूत आधार तथा सार्वजनिक सतर्कता को बल मिलता रहा है।

नियंत्रण और संतुलन – सरकारी नीतियों और कामकाज की जानकारी पाने के लिए एक संस्थागत और वैध तंत्र का होना समय की मांग है। यह तंत्र ऐसा हो, जो पारदर्शी होने के साथ-साथ सरकार में चली आ रही अवांछित गोपनीयता और विशिष्ट नियंत्रण से छुटकारा दिला सके। सूचना आयोग स्वतंत्र रूप से काम करते हुए दोषी अधिकारियों को सजा दिलाने की दृष्टि से मील का पत्थर साबित हुआ है।

सूचना आयोग की भूमिका चुनाव आयोग से भले ही अलग हो, लेकिन भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के लिए यह कम महत्व का नहीं है। यह जनता को न्याय दिलाने के साथ ही संवैधानिक गरिमा की भी रक्षा कर रहा है। एक प्रजातंत्र में शक्तियों के केन्द्रित होने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिए जाने से नियंत्रण और संतुलन डगमगा जाते हैं। यही कारण है कि सूचना के अधिकार में प्रस्तावित संशोधनों को सत्ता के समीकरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की दृष्टि से जांचा-परखा जाना आवश्यक है।

  • स्वतंत्र और शक्ति सम्पन्न सूचना आयोग को संशोधन के बाद, अब महज केन्द्र सरकार के अन्य विभागों की तरह केन्द्र सरकार के प्रति निष्ठा दिखाते हुए काम करना होगा।
  • आयोग की सेवाओं और वेतन पर अपना नियंत्रण स्थापित करके सरकार, कानून के अंतर्गत दी गई आयोग की स्वतंत्रता और शक्ति को अपने अधीन रखना चाहती है।
  • अनुच्छेद 13 में केन्द्रीय सूचना आयोग के अधिकारों में संशोधन करने के साथ ही अनुच्छेद 16 में वर्णित राज्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति को भी सरकार अपने हाथ में लेना चाहती है। यह संघात्मक मूल्यों पर प्रहार करने जैसा है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अरूणा रॉय और निखिल डे के लेख पर आधारित। 22 जुलाई, 2019

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