जलवायु परिवर्तन में भारत की भूमिका

Afeias
05 Jan 2021
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Date:05-01-21

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तेजी से होते जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर देशों को अर्थव्यवस्था में कार्बन की कमी को जल्‍द से जल्‍द अपनाना चाहिए। उनके लिए यह लाभ की स्थिति होगी। जिन देशों ने अपनी नीतियों को जलवायु के अनुकूल बना लिया है, वे स्वच्छ वायु, ऊर्जा सुरक्षा, रोजगार के नए अवसरों के साथ विकास कर रहे हैं। इन लाभों के चलते अन्यव देशों को भी प्रतिस्‍पर्धात्‍मक विकास की दिशा में आगे बढ़ने हेतु प्रोत्साहन मिल रहा है।

भारत ने भी 2015 के पेरिस समझौते में पृथ्वी के तापमान को 20c से अधिक न बढ़ने देने की प्रतिबद्धता में शामिल होने का संकल्‍प लिया है, और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास किए भी जा रहे हैं।

  • नवीनीकृत ऊर्जा की उत्‍पादन क्षमता को 175 गीगावॉट से बढ़ाकर 450 गीगावॉट करना, 2.4 करोड़ हेक्‍टेयर परती भूमि का उद्धार करना, 10 गीगावॉट तक के कोयला आधारित संयंत्रों को बंद करना आदि ऐसे कुछ कदम हैं, जो भारत की जलवायु परिवर्तन की गति को रोकने की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करते हैं।
  • भारत एक निम्‍न-मध्‍यम आय वाला देश है, जहाँ विकास की बहुत कमी है। अभी यहाँ बुनियादी ढांचों के विकास की बहुत जरूरत है। अत: जितने भी संरचनात्‍मक और विनियमन संबंधी सुधार किए जाने हैं, उन्हें इस प्रकार से किया जाए कि वे जलवायु परिवर्तन के प्रति भेद्यता को कम करें, आर्थिक अवसर बढ़ाएं और मानव-जीवन को धारणीय बनाने योग्य पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा करें।
  • 2060 में जलवायु तटस्‍थता के दीर्घकालीन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अल्‍पकालीन छोटे-छोटे ऐसे लक्ष्य बनाए जाने चाहिए, जो निवेश, नीति और नवाचार के अनुकूल हों। खासतौर पर अर्थव्यवस्था  के विकास के लिए वायु प्रदूषण जैसी स्‍थानीय पर्यावरणीय समस्‍याओं का समाधान किया जाना चाहिए।
  • भारत जैसे देश के लिए वैश्विक एकजुटता और सहयोग बहुत महत्‍वपूर्ण है। परिवर्तनकाल के लक्ष्य को लेकर चलने वाले देशों को ही विकसित देशों से सहयोग मिल पाएगा। साथ ही इससे भारत जैसे विकासशील देशों को धनी औद्योगिक देशों से यह मांग करने का अवसर मिल सकेगा कि वे अपने देश में गैस उत्‍सर्जन की यात्रा को नियंत्रित करें।

निर्णय वही ले सकते हैं, जो किसी क्षेत्र में अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। भारत की विशाल अर्थव्‍यवस्‍था और उसके विकासशील देश के दर्जे को देखते हुए वह उन वैश्विक नीतियों, कार्यों और मानकों को प्रभावित कर सकता है, जो विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के इस संक्रमण काल में तैयार की हैं, और जिनका निर्धन देशों पर नकारात्‍मक प्रभाव पड़ सकता है।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित उर्मी गोस्वामी के लेख पर आधारित।