गर्भपात से जुड़े अधिकारों में महिला गौण
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भारत में महिलाओं को गर्भपात से संबंधित निर्णय के केंद्र में अभी भी नहीं रखा जाता है। इसके लिए उन्हें डॉक्टर और न्यायालय पर निर्भर रहना पड़ता है।
कानून और पितृसत्ता का वर्चस्व –
ऐसे मामलों का याचिकाकर्ता के पक्ष में जाना या न जाना उसकी स्थिति की दयनीयता पर निर्भर करता है। चाहे वह बलात्कार पीड़िता हो, परित्यक्ता हो, एकल हो या भ्रूण की असमान्यता से पीड़ित हो, उसे अपनी पसंद के अनुसार चलने के लिए बाधाओं के एक बड़े पड़ाव को पार करना पड़ता है।
एक ओर, नौ न्यायाधीशों वाले एससी पुट्टस्वामी का ऐतिहासिक निर्णय है। इसमें कहा गया है कि प्रजनन संबंधी विकल्प चुनने का आधिकार एक महिला की निजताए सम्मान और शारीरिक अखंडता के मौलिक अधिकार से लिया गया है। दूसरी ओर, 1860 का आईपीसी प्रावधान गर्भपात को अपराध घोषित करता है। 1971 में एमटीपी अधिनियम ने इसके लिए अपवाद बनायाए ताकि चिकित्सकों को कुछ शर्तों के तहत गर्भपात करने में सक्षम बनाया जा सके। यह पूरी तरह से डॉक्टर-केंद्रित ढांचा है।
इसके लगभग 50 वर्ष बाद भी अलग-अलग डॉक्टर, अलग-अलग न्यायालय गर्भपात की अनुमति देने या अस्वीकार करने के लिए अलग-अलग मानदंड़ों का उपयोग करना जारी रखे हुए। इन सबसे बीच महिला की इच्छा गौण हो जाती है। हमें नागरिकों की शारीरिक स्वायत्तता बढ़ाने पर जोर देने की जरूरत है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 17 जुलाई, 2024