आर्थिक सुधारों से कृषि की दुर्दशा
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- आर्थिक सुधारों के पच्चीस वर्षों में सरकार की नीतियाँ अपने अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का विश्वास जीतने के लिए बनती रही हैं। इसमें छोटे उत्पादक किसानों तथा कामगारों के हितों का ध्यान नहीं रखा गया है।
- अपने निवेशकों को रिझाने के लिए सरकार को अमीरों पर कर बढ़ाते हुए मुद्रा स्फीति को नियंत्रण में रखना था। इसके चलते कृषि साधनों के दाम बढ़ाए गए, क्योंकि सब्सिडी कम करनी थी। साथ ही कई खाद्यान्नों पर से सरकार ने समर्थन मूल्य वापस ले लिया। इसकी वजह से राष्ट्रीयकृत बैंक भी किसानों को ऋण देने से छिटकने लगे। किसान को घूम-फिरकर महाजनों के चंगुल में फंसना पड़ा।
- कृषि एवं सिंचाई क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश के कम होने, कृषि व्यापारियों को बिना नियमन व मध्यस्थ के सीधे किसानों से सौदा करने की छूट देने, किसानों को स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं से वंचित रखने के कारण किसानों की दुर्दशा होती गई।
- किसानों की आय बहुत कम हो गई। कृषक आधारित कृषि के हालात बिगड़ गए और उसकी विकास दर गिरने से गाँवों की स्थिति दयनीय हो गई। अधिकतर किसानों के लिए घर चलाना मुश्किल हो गया और वे आत्महत्या के रास्ते को अपनाने लगे।
- किसानों जैसी ही दुर्दशा मछुआरों, शिल्पकरों, बुनकरों एवं अन्य छोटे उत्पादकों की हो गई।
- कृषकों की दुर्दशा का एक अन्य कारण उनकी जमीनों को सस्ते दामों पर उद्योगों एवं बुनियादी सुविधाओं के लिए हड़प लेना भी है।
- कृषकों एवं छोटे उत्पादकों की गिरती आय का प्रभाव उनके खानपान पर भी पड़ा। उनकी प्रतिदिन ग्रहण की जाने वाली कैलोरी की मात्रा घट गई और वे कुपोषण का शिकार हो गए।
‘दि हिंदू’ में प्रभात पटनायक के लेख पर आधारित
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